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गढ़वाल में कांटे की टक्कर

‘दि संडे पोस्ट-आईएमआईएस’ द्वारा राज्य में कराए गए तीन चुनावी सर्वेक्षणों में एक ही बात उभर कर आई थी कि प्रदेश का गढ़वाल क्षेत्र भाजपा के प्रति ज्यादा रुझान रखता है। चुनाव की तारीख नजदीक आते-आते ये रुझान अब बदलता नजर आ रहा है। भाजपा को यहां अपने बागी नेताओं के चलते भारी नुकसान हो सकता है वहीं अपनी पार्टी के बागियों को मैनेज करने में काफी हद तक सफल रही कांग्रेस को कुछ सीटों में अप्रत्याशित जीत मिल सकती है

टिहरी में नेता वही चुनाव चिन्ह् नए

टिहरी विधानसभा में भाजपा, कांग्रेस के साथ-साथ उत्तराखण्ड जन एकता पार्टी के दिनेश धनै भी मैदान में हैं रातोंरात उम्मीदवार बदलने का सबसे दिलचस्प मामला टिहरी में ही सामने आया है। भाजपा के निवर्तमान विधायक धनसिंह नेगी भाजपा का दामन छोड़ कांग्रेस के टिकट पर चुनाव में उतरे हैं तो पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष किशोर उपाध्याय ने कांग्रेस को बाय-बाय कहकर भाजपा का दामन थाम अपनी खोई हुई राजनीतिक जमीन को फिर से जोतने के लिए मैदान में हैं। इन दोनों को दिनेश धनै मजबूती के साथ चुनौती दे रहे हैं।

कांग्रेस इस सीट पर पूरी तरह से बैकफुट पर है। इसका एक बड़ा कारण यह माना जाता है कि हरीश रावत सरकार में मंत्री बनने के बाद तकरीबन समूची कांग्रेस अघोषित तौर पर दिनेश धनै के साथ जुड़ गई थी। नतीजतन कांग्रेस इस सीट से कमजोर होती चली गई। 2017 के चुनाव में इसका असर देखने को भी मिला था। तब कांग्रेस के उम्मीदवार नरेन्द्र चंद रमोला तीसरे स्थान पर रहे थे। इसका खमियाजा इस बार के चुनाव में कांग्रेस को उठाना पड़ सकता है। किशोर उपाध्याय के कांग्रेस में रहते हुए जिन कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को कार्यक्रमों में देखा जाता था उनमें से ज्यादातर किशोर के ही समर्थक थे जो आज भी किशोर के साथ मजबूती से खड़े हैं।

धनसिंह नेगी के कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ना समर्पित और पुराने कांग्रेसियों को रास नहीं आ रहा है। साथ ही नेगी को पार्टी के मजबूत और समर्पित कार्यकर्ताओं की भारी कमी से भी जूझना पड़ रहा है। दिलचस्प बात यह है कि नेगी का अपना जनाधार वाला क्षेत्र जाखणीधार है और किशोर उपाध्याय का गृह क्षेत्र भी यही है। इसके चलते दोनों के वोट का बंटवारा होना तय माना जा रहा है। विदित हो कि 2017 में किशोर उपाध्याय के टिहरी से चुनाव न लड़ने के चलते धनसिंह नेगी को जाखणीधार क्षेत्र से सबसे ज्यादा मत मिले थे और वे दिनेश धनै को आसानी से पराजित कर पाए थे। इस बार ऐसा नहीं है। इसके अलावा दिनेश धनै और धनसिंह दोनां ही ठाकुर चेहरे हैं और किशोर एक मात्र ब्राह्मण चेहरा। इस चलते ठाकुरों के वोट का बंटवारा माना जा रहा है और किशोर के मजबूत होने के कयास लगाए जा रहे हैं। दिनेश धनै टिहरी सीट पर मजबूत नेता के तौर पर अपने आप को स्थापित कर चुके हैं। टिहरी नगर क्षेत्र के अलावा चंबा नगरीय क्षेत्र में धनै का जनाधार पहले से बढ़ा है जिससे उनकी राह आसान हो सकती है। राजनीतिक जानकारों की मानें तो टिहरी सीट पर सीधे-सीधे मुकाबला किशोर और धनै के बीच ही है लेकिन अगर कांग्रेस अपने कार्यकर्ताओं और नेताओं को चुनाव में मजबूती से धनसिंह के साथ डटने के लिए तैयार कर ले तो धनसिंह चुनाव को त्रिकोणीय बना सकते हैं। कुल मिलाकर भाजपा-कांग्रेस के लिए अपने कार्यकर्ताओं को रातोंरात उम्मीदवार बदलने के दुष्प्रभाव से जूझना पड़ रहा है जिसका असर 14 फरवरी को देखा जा सकता है।

 

भाजपा के लिए इस सीट पर कड़ी चुनौती स्वयं पूर्व भाजपा नेता ओम गोपाल रावत ने खड़ी की है। ओम गोपाल रावत भाजपा से टिकट न मिलने पर कांग्रेस में शामिल हो नरेन्द्र नगर सीट से उम्मीदवार हैं। गौर करने वाली बात यह हे कि इस सीट पर कांग्रेस अपने पुराने नेताओं को बागी होने से रोकने में सफल रही है। इस चलते इस सीट पर कांग्रेस में अब 2017 की तरह भीतरघात की आशंका नहीं के बराबर है। भाजपा के उम्मीदवार सुबोध उनियाल इस सीट से तीन बार चुनाव जीत चुके हैं। 2002 में सुबोध उनियाल भाजपा के दिग्गज नेता लाखी राम जोशी को चुनाव में पटखनी देकर पहली बार विधायक बने थे तो 2007 में उक्रांद (डी) के ओम गोपाल रावत से महज 4 वोटां से चुनाव हार गए थे। 2012 में सुबोध उनियाल ने ओम गोपाल को महज 401 मतों के बेहद कम अंतराल से एक बार फिर इस सीट पर कब्जा कर लिया। 2017 में सुबोध चुनाव जीते और इस बार हार-जीत का अंतर 4972 का रहा।

 

नरेन्द्र नगर सीट पर चुनावी हार-जीत का समीकरण सबसे ज्यादा ढालवाला और तोपवन क्षेत्र को ही माना जाता है। इन क्षेत्रों में 22 हजार के करीब मतदाता हैं। सुबोध उनियाल को पिछले तीनों चुनावां में इस क्षेत्र से भरपूर वोट पड़ते रहे हैं जबकि ओम गोपाल अन्य पहाड़ी क्षेत्रां में बढ़त बनाने में सफल रहे हैं लेकिन ढालवाला तपोवन क्षेत्र में कमजोर ही रहे हैं। वहीं सुबोध का जनाधार पहाड़ी क्षेत्रों में पहले की अपेक्षा कुछ कम हुआ है। इस बार स्थिति में बड़ा भारी बदलाव देखने को मिल रहा है। जहां ओम गोपाल पर्वतीय इलाकों में अपना जनाधार बढ़ाने में कामयाब तो रहे हैं, वहीं ढालवाला क्षेत्र में भी ओम गोपाल को 2017 की अपेक्षा बेहतर प्रदर्शन कर पा रहे हैं। वहीं सुबोध उनियाल से इस क्षेत्र के मतदाताओं में नाराजगी भी देखने को मिल रही है। 2017 में यह क्षेत्र पूरी तरह से भाजपामय हो गया था और कई छोटे-बड़े क्षेत्रीय नेता उनियाल के साथ जुड़ गए थे लेकिन इस बार ये नेता ओम गोपाल के साथ जुड़ चुके हैं। इसका सबसे बड़ा कारण ढालवाला तपोवन क्षेत्र में उनियाल के कट्टर समर्थक और कार्यकर्ताआें से मतदाताओं की भारी नाराजगी है। सबसे ज्यादा नाराजगी की चर्चाएं तो नगर पालिका चेयरमैन के व्यवहार को लेकर ही बताई जा रही है। आज इस क्षेत्र में एक नारा ‘सुबोध से कोई बैर नहीं, लेकिन चकड़ैतो की खैर नहीं’ खूब चर्चाओं में है। अगर सुबोध उनियाल मतदाताओं की नाराजगी को दूर करने में सफल नहीं होते तो उनके लिए चुनाव में जीत हासिल करना बेहद कठिन साबित हो सकता है।

ऋषिकेश में हाथ को बढ़त

2007 से लगातार तीन बार भाजपा के कब्जे वाली इस सीट पर त्रिकोणीय मुकाबला नजर आ रहा है। भाजपा से तीन बार हैट्रिक लगाकर जीत हासिल करने वाले प्रेमचंद अग्रवाल के मुकाबले इस बार कांग्रेस पार्टी के युवा नेता जयेन्द्र रमोला मैदान में ताल ठोक रहे हैं। भाजपा-कांग्रेस के बीच तीसरे कोण के तौर पर कांग्रेस सरकार में पीडीएफ कोटे से मंत्री रहे दिनेश धनाई की उत्तराखण्ड जन एकता पार्टी से कनक धनाई मजबूती से खड़े नजर आ रहे हैं। प्रेमचंद अग्रवाल लगातार तीन बार इस क्षेत्र से चुनाव जीतते रहे हैं। अग्रवाल के खिलाफ एंटी इन्कम्बेंसी फैक्टर भी एक बड़ा कारण है। आज भी ऋषिकेश विधानसभा क्षेत्र में बड़ी दीर्घकालीन योजनाएं धरातल पर नहीं उतर पाई हैं। यहां तक कि तिवारी सरकार और निशंक सरकार के समय घोषित योजनाओं पर काम नहीं हो पाया है। हैरत की बात यह है कि स्वयं निशंक ने ऋषिकेश में एक बालिका महाविद्यालय की घोषणा की लेकिन उसका आज तक कोई अत-पता नहीं है। हालांकि ऋषिकेश में केंद्र सरकार की सबसे चर्चित ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेलवे लाइन का काम प्रगति पर है और केंद्र सरकार की कई योजनाएं ऋषिकेश में निर्माणाधीन है। लेकिन एक विधायक के तौर प्रेमचंद अग्रवाल के खाते में विधायक निधि की योजनाओं से ज्यादा कुछ नहीं हो पाया है। इसके चलते एंटी इन्कम्बेंसी फैक्टर को नकारा नहीं जा सकता।

कांग्रेस से इस बार युवा चेहरे के तौर पर जयेंद्र रमोला को इस सीट से चुनाव में उतारा है। रमोला छात्र राजनीति से ही कांग्रेस की मुख्यधारा की राजनीति में आए हैं। युवाओं में रमोला का खासा जनाधार है। नगरीय क्षेत्र में रमोला कांग्रेस के बड़े मजबूत युवा नेता के तौर पहचान बना चुके हैं। पूर्व में नगर पालिका चुनाव में रमोला कांग्रेस के उम्मीदवार के तौर पर भी चुनाव लड़ चुके हैं। पहाड़ी मूल के होने के चलते रमोला का जनाधार ग्रामीण क्षेत्रों में भी खासा मजबूत है।
इस सीट पर कांग्रेस ने सभी दावेदारों को मनाने का बड़ा काम किया है। पूर्व मंत्री रहे शूरबीर सिंह सजवाण और दो बार कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ चुके राजपाल खरोला के अलावा पूर्व नगर पालिका अध्यक्ष दीप शर्मा को टिकट न मिलने पर उनकी नाराजगी को दूर तो किया ही है, साथ ही 2017 के चुनाव में बसपा के मजबूत नेता लल्लन राजभर को कांग्रेस पार्टी में शामिल करवाकर रमोला के लिए भीतरघात की आशंकाओं को खत्म करने में सफलता हासिल की है। इसके चलते कांग्रेस अब इस सीट पर मजबूती के साथ चुनाव में खड़ी नजर आ रही है। इस सीट पर टिहरी बांध विस्थापित क्षेत्र के मतदाताओं की बड़ी आबादी चुनाव में हार-जीत का समीकरण बदल सकती है। इसी को देखते हुए कनक धनै इस बार उत्तराखण्ड जन एकता पार्टी से चुनाव में उतरे हैं। युवाओं में खासतौर पर बांध विस्थापत क्षेत्रों के युवाओं में कनक धनै की लोकप्रियता तेजी से बढ़ी है। महज कुछ ही माह पूर्व धनै इस क्षेत्र में राजनीतिक रूप से सक्रिय हुए लेकिन जिस तरह से उनको टिहरी बांध विस्थापितों का समर्थन मिल रहा है उससे प्रेमचंद और रमोला के माथे पर चिंता की लकीरें साफ देखी जा सकती है। कनक धनै के चलते इस बार इस सीट पर चुनावी मुकाबला त्रिकोणीय हो चुका है। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि धनै और रमोला दोनां ही पर्वतीय मूल के होने से पहाड़ी मतां का बंटवारा होना निश्चित है जिससे अग्रवाल को बड़ा फायदा हो सकता है।

धनौल्टी सीट में त्रिकोणीय संघर्ष

धनौल्टी सीट पर भाजपा के भीतर बड़ा घमासान मचा हुआ है। इस सीट पर भाजपा ने कांग्रेस सरकार में मंत्री रहे प्रीतम पंवार को भाजपा उम्मीदवार के तौर पर मैदान में उतरा है। प्रीतम पंवार 2017 का चुनाव निर्दलीय लड़े थे। 2021 के आखिर में भाजपा का उन्होंने दामन थामा। भाजपा ने उनको टिकट दिया है जबकि इस सीट पर भाजपा के पूर्व विधायक और त्रिवेंद्र सरकार में दायित्वधारी रहे महाबीर सिंह रांगड़ दावेदारी कर रहे थे। टिकट न मिलने से नाराज होकर रांगड़ निर्दलीय ही चुनावी मैदान में कूद कर भाजपा के लिए परेशानी खड़ी कर रहे हैं। वहीं कांग्रेस ने पूर्व ब्लॉक प्रमुख जोत सिंह बिष्ट को अपना उम्मीदवार बनाया है जिसके चलते मामला त्रिकोणीय हो चला है।
दिलचस्प बात यह हे कि धनौल्टी सीट पर कांग्रेस और भाजपा दोनां का ही बराबर कब्जा रहा है। 2002 में कांगेस के कौलदास इस सीट पर चुनाव जीते थे तो 2007 में भाजपा के खजानदास ने बाजी मारी थी। 2012 में भाजपा के महाबीर रांगड़ ने इस सीट पर फिर से भाजपा का कब्जा बरकरार रखा तो 2017 में प्रीतम सिंह निर्दलीय चुनाव जीते थे।

इस क्षेत्र में जौनपुर विकासखण्ड का क्षेत्र ही सबसे ज्यादा मतदाताओं वाला क्षेत्र है और सबसे कम मतदाताओं वाला थौलधार विकासखंड का क्षेत्र है। इन क्षेत्रों में महाबीर रांगड़ और प्रीतम पंवार दोनां का ही अपना जनाधार है जबकि जोत सिंह बिष्ट का जनाधार थोलधार क्षेत्र में भी खासा मजबूत है। इसके चलते थौलधार क्षेत्र चुनावी हारजीत का फैक्टर हो सकता है। महाबीर रांगड़ जोनपुर विकास खण्ड के ब्लॉक प्रमुख रह चुके हैं, साथ ही 2012 में भाजपा के टिकट पर चुनाव जीत चुके हैं। रांगड़ को 26 फीसदी से ज्यादा मत मिले थे। जबकि प्रीतम पंवार को 2017 में 36 फीसदी से ज्यादा मत मिल चुके हैं। इसके चलते प्रीतम पंवार सबसे ज्यादा मतबूत उम्मीदवार के तौर पर दिखाई दे रहे हैं। जोत सिंह बिष्ट 2012 में निर्दलीय चुनाव लड़े थे और 22 प्रतिशत से भी ज्यादा वोट हासिल करके तीसरे स्थान पर रहे थे। बिष्ट का इस क्षेत्र पर अपना खासा जनाधार है और विगत पांच वर्ष से वे इस सीट पर चुनाव लड़ने की तैयारी करते रहे हैं जिसका फायदा उन्हें इस चुनाव में मिलने की संभावना है।
इस तरह से धनौल्टी सीट पर चुनावी घमासान त्रिकोणीय बन चुका है जिसके कारण चुनाव में किसी की हार-जीत का आकलन करना बेहद मुश्किल तो है लेकिन प्रीतम पंवार के लिए राह सबसे कठिन बन चुकी है। प्रीतम पंवार अपने व्यक्तिगत वोट पर अभी भी अपना वर्चस्व बनाए हुए हैं लेकिन भाजपा के वोटों में महाबीर रांगड बड़ी सेंध लागने के लिए मजबूती से खड़े हैं। हालांकि रांगड़ को भाजपा ने पार्टी से बाहर कर दिया है लेकिन क्षेत्र के लोकप्रिय नेता होने के चलते वे भाजपा के लिए बड़ी चुनौती बन चुके हैं।

घनशाली में बागियों की बम-बम

सुरक्षित सीट घनशाली पर भाजपा-कांग्रेस दोनों ही बागियों से जूझ रही है। भाजपा ने सीटिंग विधायक शक्तिलाल शाह पर फिर से दांव खेला है तो कांग्रेस ने 2019 में पार्टी में शमिल हुए धनीलाल शाह को चुनावी मैदान में उतरा है। दिलचस्प बात यह है कि भाजपा और कांग्रेस अपने-अपने बागियों के चुनाव में ताल ठोंकने से परेशान है। जहां भाजपा क्षेत्र के बड़े नेता दर्शनलाल आर्य को टिकट न मिलने से नाराज होकर निर्दलीय चुनाव में खड़े हैं तो वहीं कांग्रेस से टिकट न मिलने से नाराज हो भीमलाल आर्य चुनाव में डटे हुए हैं। इस विधानसभा में ग्यारगांव हिंदाव पट्टी क्षेत्र और थाती कठूड़ क्षेत्र सबसे ज्यादा मतदाताओं वाले क्षेत्र हैं। भाजपा के शक्तिलाल शाह और कांग्रेस के धनीलाल शाह के साथ-साथ भाजपा के बागी उम्मीदवार दर्शनलाल आर्य तीनां की ग्यारगांव हिंदाव पट्टी क्षेत्र के हैं। इसके चलते इस क्षेत्र के वोटों का बंटवारा तय माना जा रहा है। वहीं दूसरी ओर भीमलाल आर्य थाती कठूड़ क्षेत्र के होने से उनका पलड़ा सबसे मजबूत बताया जा रहा है। इस सीट पर वैसे तो भाजपा का बड़ा जनाधार है लेकिन व्यक्तिगत राजनीति के चलते उम्मीदवारों का जनाधार सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाला रहता आया है। पूर्व में भीमलाल आर्य भाजपा के टिकट पर चुनाव जीते थे लेकिन 2016 में हरीश रावत सरकार के गिराने के षड्यंत्र के समय वे भाजपा का दामन छोड़ कर कांग्रेस में शामिल हो गए थे। 2017 में भीमलाल को दल-बदल का दंड इस कदर मिला कि वे बुरी तरह से चुनाव हार गए।

इस बार वे फिर से निर्दलीय चुनाव में खड़े हैं। राजनीतिक जानकारों का कहना हे कि भीमलाल आर्य केवल इसलिए मजबूत दिखाई दे रहे हैं कि तीनों उम्मीदवार एक ही क्षेत्र से हैं जिससे उनके वोटों में बंटवारा होना तय है, जबकि भाजपा इस क्षेत्र में बड़े जनाधार वाली पार्टी है और अगर भाजपा का समर्पित वोटर अपना मन न बदले तो भाजपा की राह आसान हो सकती है। लेकिन दर्शनलाल आर्य इस क्षेत्र में भाजपा के बड़े नेता माने जाते हैं और उनके निर्दलीय खड़े होने से भाजपा को बहुत बड़ा नुकसान हो सकता है। कांग्रेस के धनीलाल शाह इस क्षेत्र के बड़े मजबूत नेता रहे हैं। वे तीन बार चुनाव लड़ चुके हैं और उनका 10 हजार मतों पर सीधा असर है। लेकिन वे भी भीमलाल आर्य के निर्दलीय चुनाव में खड़े होने से बड़ी चुनौती में घिर चुके हैं। अब इस सीट पर 14 फरवरी को मतदाता क्या फैसला करेगा यह तो कहा नहीं जा सकता लेकिन इस सीट पर भाजपा और कांग्रेस दोनों ही बागियों से मिल रही कड़ी चुनौतियों से जूझ रहे हैं।

धर्मपुर में चौतरफा घिरी भाजपा

 

धर्मपुर सीट से इस बार कांग्रेस ने फिर से दिनेश अग्रवाल को ही टिकट दिया है। हालांकि यहां कांग्रेस के कई दावेदार थे जिनको पार्टी ने मनाकर दिनेश अग्रवाल की राह आसान कर दी है, जबकि इसके विपरीत भाजपा के हालात चुनौती भरे हैं। मौजूदा विधायक विनोद चमोली के खिलाफ क्षेत्र की जनता और स्वयं भाजपा के कई कार्यकताओं एवं पदाधिकारियों में भी खासी नाराजगी देखने को मिलती रही है। इसी नाराजगी के चलते चर्चा थी कि इस बार चमोली का टिकट कट सकता है लेकिन हुआ इसके उलट। भाजपा ने चमोली पर ही फिर से चुनावी दांव खेलते हुए उनको अपना उम्मीदवार बनाया है। धर्मपुर सीट पर सबसे ज्यादा पर्वतीय मूल के मतदाताओं का प्रभाव है। साथ ही इस सीट पर मुस्लिम मतदाता भी एक बड़ा असर रखते हैं। भाजपा के पुराने कार्यकर्ता और कई पदों पर काम कर चुके वीर सिंह पंवार टिकट न मिलने से नाराज होकर निर्दलीय चुनाव में डटे हुए हैं। हालांकि भाजपा ने वीर सिंह पंवार और उनका साथ देने वाले कई कार्यकर्ताओं और पार्टी पदाधिकारियों को निष्कासित कर दिया है। बावजूद इसके पंवार के साथ आज भी भाजपा के अनेक कार्यकर्ता हैं जो पर्दे के पीछे से उनके लिए काम कर रहे हैं।

विनोद चमोली के पांच साल के कार्यकाल के दौरान उन पर क्षेत्र की घोर अनदेखी का आरोप भी लगता रहा है। भाजपा के कई कार्यकर्ताओं ने चमोली का घेराव तक किया है। इस क्षेत्र में अनेक बड़ी योजनाएं स्वीकøत तो हुई है। लेकिन उनका काम नहीं हो पाया है। चुनाव सिर पर आने के बाद कुछ योजनाओं पर काम शुरू तो किया गया है लेकिन इससे जनता में नाराजगी कम नहीं हुई है। इसके विपरीत कांग्रेस के दिनेश अग्रवाल के साथ जनता की सहानुभूति भी है। उनके कार्यकाल में इस क्षेत्र में जम कर विकास कार्य हुए थे। एक अनुमान के मुताबिक पांच वर्ष में अग्रवाल द्वारा 1 हजार करोड़ से भी ज्यादा के काम इस क्षेत्र में करवाए थे जिनका असर आज भी देखा जा सकता है। यही कारण है कि चमोली के पांच साल बनाम अग्रवाल के पांच साल के बीच चुनाव सिमट रहा है। जिस पर अग्रवाल चमोली पर भारी पड़ते नजर आ रहे हैं। ‘दि संडे पोस्ट’ के सर्वेक्षण में भी चमोली से जनता की भारी नाराजगी सामने आई थी और इस बार कांग्रेस के उम्मीदवार को मत देने वालों की संख्या भाजपा से ज्यादा थी।

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