अटल बिहारी वाजपेयी ने जिस राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की नींव 1998 में रखी, उसे जतन से, धैर्य से बढ़ाया, आज भाजपा के प्रचंड बहुमत सहारे केंद्र की सत्ता में काबिज होने के दौर में वही एनडीए लगभग मृतप्राय हो चला है। इस गठबंधन की शुरुआत भाजपा, समता पार्टी, अन्नाद्रमुक एवं शिवसेना के साथ मिलकर चुनाव लड़ने और कांग्रेस को राज्यों एवं केंद्र की सत्ता से बाहर करने के लक्ष्य से हुआ था। इसके पहले अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी बने। अटल बिहारी वाजपेयी का सहज स्वभाव और उनके खास सखा आडवाणी का साथ एनडीए में घटक दलों को लगातार जोड़ता गया। अटल बिहारी के ‘चार्म’ का असर तब पूरे देश को दिखा भी, इस ‘चार्म’ ने धर्मनिरपेक्ष ताकतों को चौंकाया भी, जब समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडीस की समता पार्टी एनडीए का हिस्सा बनने को तैयार हो गई। 1998 में एनडीए में 14 घटक दल थे जो 1999 के मध्यावधि चुनावों में बढ़कर 17 हो गए थे। 99 में एनडीए केंद्र की सत्ता में काबिज हुआ। जॉर्ज फर्नांडीस लंबे समय तक एनडीए के संयोजक बने रहे। 2004 के चुनावों से पहले 17 में से 5 घटक दल अलग-अलग कारणों के चलते अलग हो गए। मुख्य रूप से तेलगुदेशम पार्टी, अन्नाद्रमुक व नार्थ ईस्ट के कई राजनीतिक दल एनडीए से बाहर हो गए। 2009 के आम चुनाव में एक बार फिर से एनडीए के घटक दलों में से दो दलों ने साथ छोड़ दिया। इन चुनावों में एक बार फिर से एनडीए को पराजय का सामना करना पड़ा था और भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी का प्रधानमंत्री बनने का सपना, सपना ही रह गया। 2014 के आम चुनावों से पूर्व एनडीए की ताकत में भारी इजाफा हुआ। इन चुनावों में यूपीए में शामिल कई दलों ने एनडीए का दामन थामा। एनडीए में घटक दलों की संख्या 24 पहुंच गई। केंद्र की सत्ता में एक बार फिर भाजपा आसीन हुई। इस बार लेकिन उसके पास अकेले दम पर ही सरकार बनाने का जादुई आंकड़ा था। जाहिर है ऐसे में सरकार भले ही एनडीए की बनी, मोदी एनडीए के प्रधानमंत्री कहलाए, गठबंधन में शामिल दलों की हैसियत कमतर हो गई।
2019 आते-आते कई राजनीतिक दलों का एक बार फिर से भाजपा से मोहभंग होता स्पष्ट देखने को मिला। इन चुनावों में एनडीए के घटक दलों की संख्या 24 से घटकर मात्र 20 रह गई। भाजपा का इस चुनाव में प्रचंड बहुमत मिला। इतना प्रचंड की एनडीए में शामिल राजनीतिक दलों की हैसियत कमतर होती चली गई। नतीजा 2021 में एनडीए समर्थक दलों की संख्या मात्र 14 है। कई बड़े क्षेत्रीय दलों ने भाजपा की वर्चस्व की राजनीति से तंग आकर एनडीए छोड़ डाला है।
इनमें दो ऐसे दल भी शामिल है। जो 1998 से लगातार इस गठबंधन का महत्वपूर्ण हिस्सा थे। ये दल हैं शिवसेना और अकाली दल।
छह साल, छूटा 20 का साथ
पिछले छह बरस यानी मोदी-शाह काल में 20 घटक दल एनडीए से अलग हो चुके हैं। इनमें कभी एनडीए के संयोजक रहे चंद्रबाबू नायडू की तेलगुदेशम भी शामिल है। हालांकि इस दौरान नार्थ ईस्ट में भाजपा ‘कमल’ खिलाने में सफल रही लेकिन उसके साथ कदम से कदम मिलाकर चलने वाली कई क्षेत्रीय पार्टियां अब उससे दूर जा चुकी है।
इनमें बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट शामिल है जिसका एक संसद सदस्य और असम में 12 विधायक हैं। भाजपा या एनडीए से अलग होने वालों में ऐसे क्षेत्रीय दल भी शामिल हैं जिन्हें अगले चार माह के भीतर चुनाव लड़ने हैं। इनमें पश्चिम बंगाल का गोरखा जनमुक्ति मोर्चा, तमिलनाडु की पीएमके सिने स्टार विजयकांत की पार्टी डीएमडीके शामिल हैं।
जदयू भी कर सकता है किनारा
तेरह बरस तक एनडीए का अटूट हिस्सा रहे जनता दल यूनाइटेड के साथ भी भाजपा के संबंध बेहद तनावपूर्ण हो चले हैं। हालांकि कम विधानसभा सीटें जीतने के बावजूद जदयू के नीतीश कुमार को भाजपा ने बिहार की गठबंधन सरकार का नेता बनने दिया है। लेकिन भितरखाने वह राज्य में अपना सीएम बनाने के लिए दांव-पेंच का सहारा ले सकती है। अरुणाचंल प्रदेश में जिस प्रकार भाजपा ने जदयू विधायक दल में तोड़-फोड़ मचाई उससे स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं कि यह गठबंधन ज्यादा दिन का मेहमान नहीं है।