नागालैंड में सैनिकों की गोलीबारी में ग्रामीणों समेत 14 की मौत के बाद एक बार फिर सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून (अफस्पा ) को हटाने की मांग बढ़ती ही जा रही है । नागालैंड और मेघालय ने इस कानून को हटाने की मांग उठाई है। जिसके बाद से यह मामला गरमाता जा रहा है। इस मामले को लेकर राज्य की राजधानी कोहिमा में लोगों का विरोध – प्रदर्शन जारी है। हालात यह हैं कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और ‘अफस्पा कानून’ के खिलाफ लोगों की नाराज़गी अब आक्रोश में बदलती दिख रही है। प्रदर्शनकारियों ने अमित शाह के बयान को झूठा और बनावटी बताते हुए उनसे माफी की मांग की है। इतना ही नहीं प्रदर्शनकारियों ने उनका पुतला जला अपना आक्रोश जाहिर किया। प्रदर्शनकारियों का कहना है कि जब तक अफस्पा को हटाया नहीं जाएगा तब तक सुरक्षा कर्मियों की गोलीबारी में मारे गए लोगों को सरकार द्वारा घोषित मुआवजे की राशि को स्वीकार नहीं करेंगे। उन्हें आशंका है कि अफस्पा का इस्तेमाल इस मामले में शामिल सैनिकों को बचाने के लिए किया जा सकता है।
वहीं अब इरोम शर्मिला का मानना है कि पूर्वोत्तर से विवादास्पद सुरक्षा कानून अफस्पा को हटाने का समय आ चुका है। इरोम शर्मिला सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (अफस्पा) के खिलाफ 16 सालों तक भूख हड़ताल करने वाली मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। उन्होंने कहा है कि नागालैंड में सुरक्षा बलों की गोलीबारी में नागरिकों की मौत की घटना न सिर्फ दमनकारी कानून है बल्कि यह मूलभूत मानवाधिकारों का व्यापक उल्लंघन करने जैसा है।अपनी लंबी चली भूख हड़ताल को 2016 में खत्म करने वाली शर्मिला ने कहा कि नागालैंड की घटना ने एक बार फिर दिखाया है कि क्यों पूर्वोत्तर से कठोर अफस्पा को वापस लिया जाना चाहिए। यह घटना आंखें खोलने वाली होनी चाहिए। मानव जीवन इतना सस्ता नहीं है।
दरअसल, पिछले दिनों नागालैंड के मोन जिले में सैनिकों की गोलीबारी दौरान ग्रामीणों सहित 14 लोगों की जान चली गई थी। जिसके बाद केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने घटना का ब्योरा देते हुए संसद में कहा था कि 4 दिसंबर को नागालैंड के मोन जिले में भारतीय सेना को उग्रवादियों की आवाजाही की सूचना मिली थी और उसके 21वें पैरा कमांडो ने उस जगह पर इंतजार किया। शाम को एक वाहन उस स्थान पर पहुंचा और सशस्त्र बलों ने उसे रोकने का संकेत दिया, लेकिन वह नहीं रुका और आगे निकलने लगा तो उग्रवादियों के होने के संदेह में इस वाहन पर गोलियां चलाई गईं, जिसमें वाहन पर सवार 8 में से छह लोग मारे गए। बाद में इसे गलत पहचान का मामला पाया गया।
गौरतलब है कि ‘अफस्पा’ के विरोध में प्रदर्शन का पूर्वोत्तर में लंबा इतिहास रहा है। शर्मिला इरोम ने लंबे समय तक इस कानून के खिलाफ अनशन जारी रखा था, इस कानून को हटाना पूर्वोत्तर राज्यों का चुनावी मुद्दा भी रहा है। इसकी जड़ में है अफस्पा यानी आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट, जो सुरक्षा बलों को असाधारण अधिकार देता है। इस बार भी सरकार की तरफ से यह प्रतिबद्धता दिखाई गई है कि जांच में जो भी दोषी पाए जाएंगे, उनके खिलाफ कानून के मुताबिक कार्रवाई की जाएगी। पर क्या अफस्पा के रहते दोषियों के खिलाफ कानूनन किसी तरह की कार्रवाई संभव हो पाएगी? आज भी यह कानून नागालैंड, असम, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश के कुछ इलाकों में लागू है। इसके तहत सुरक्षा बलों के जवान और अधिकारी संदेह के आधार पर किसी को गोली मार सकते हैं, बिना किसी वॉरंट के घर की तलाशी ले सकते हैं और कानूनी कार्रवाई से भी बचे रह सकते हैं।
हालांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि आतंकवाद या उग्रवाद से निपटना काफी मुश्किल काम है और सुरक्षा बलों को भी अपनी जान जोखिम में डाले रहते हुए ड्यूटी करनी पड़ती है। इसके बावजूद सुरक्षा बलों या आम लोगों के बीच इस तरह का अहसास जमने देना ठीक नहीं है कि सुरक्षा बलों के जवान कुछ भी करें उनके खिलाफ किसी तरह की कानूनी कार्रवाई नहीं होगी। कई चर्चित मामलों में भी सुरक्षा बलों के खिलाफ किसी तरह की कार्रवाई न होने से ऐसा भाव बनने लगा है और यह भी एक वजह है कि कई विशेषज्ञ भी अफस्पा हटाने की जरूरत बताते रहे हैं। खासकर चीन के साथ सीमा विवाद से गरमाए माहौल और म्यांमार में सैन्य सत्ता की वापसी के चलते सीमावर्ती राज्यों में बने हालात को ध्यान में रखें तो अफस्पा पर पुनर्विचार की यह जरूरत और बढ़ जाती है।
गौरतलब है कि वर्ष 1958 में अफस्पा कानून के लागू होने के बाद यह अनुमान लगाए जा रहे थे कि पुर्वोत्तर में बिगड़ी परिस्थितियों को सुधारा जा सकेगा लेकिन यह बार -बार शक के घेरे में खड़ा होता रहा है। अफस्पा के कारण सैनिकों द्वारा इस कानून का गलत इस्तेमाल करने को लेकर काफी विवाद होता रहा है। यही कारण है कि इसे हटाने के लिए कई बार आंदोलन भी होते रहे हैं।