शादी के बाद लड़की सरनेम बदले या नहीं, इस वाक्य से ही मन खटकने सा लगता है। क्योंकि नाम बदलने का सारा दारोमदार लड़की के ऊपर ही थोपा जा रहा है। भला लड़कों को इससे, एकतरफा छूट देने वाले वे कौन से लोग थे जो इस दकियानूसी विचार को संतुष्ट करने के लिए या कहें अपनी सहूलियत के लिए इसे एक परम्परा बनाकर चले गए। नियम, जिसे वही बनाते हैं वही थोपते हैं। आज भी कुछ खास नहीं बदला है। रेप पीड़िता से एक जज आज भी पूछ लेता है कि क्या तुम रेपिस्ट से शादी करोगी ?
सरनेम बदलना क्या किसी तर्क पर सटीक बैठ सकता है ?
बात 2016 की है गुजरात के ऊना में दलितों पर मारपीट के बाद वहां के दलितों ने जातिगत भेदभाव को मिटाने के लिए अपने नाम से जाति हटाकर अपनी मां के नाम का इस्तेमाल किया। उनका स्पष्ट कहना था कि न केवल जातिगत पहचान मिटाने के लिए बल्कि लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने अपनी मां का नाम इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। हालांकि यह घटना बिल्कुल हैरान करने वाली नहीं है।
ख़ैर, आते हैं शादी के बाद लड़कियों के सरनेम या नाम बदलने की बहस पर। इस विषय पर जानते हैं उनके विचार जिन्होंने अपनी सृजनात्मक अभिव्यक्ति से साहित्य जगत में एक विशेष पहचान बनाई है।
सर्वण पुरुषों को स्त्री विमर्श, दलित विमर्श इस तरह की चीजों में न्यूनतम बोलना चाहिए
“मेरा कहना है कि इस विषय पर आख़िर पुरुषों से क्यों सर्टिफिकेट लेना। मेरा सीधा सा मानना है कि सर्वण पुरुषों को स्त्री विमर्श दलित विमर्श इस तरह की चीजों में न्यूनतम बोलना चाहिए। जब स्त्रियां बोल रही हों, दलित बोल रहे हों, कश्मीरी बोल रहे हों तो उन्हें चुपचाप सुनना चाहिए और मनन करना चाहिए। सवर्ण पुरुषों ने जबरदस्ती का मान अपने हाथों में रखकर सारे विमर्शों का सत्यानाश कर रखा है। सवर्ण पुरुषों की हर जग्ह नेतृत्व पर कब्जे की कोशिशों ने अक्सर काफी नुकसान पहुंचाया है।”
-अशोक कुमार पांडेय, इतिहासकार एवं लेखक
मैं भला क्यों अपना नाम बदलूं!
“मेरे मां-बाप ने या मेरे अभिभावक ने मेरे पूरे व्यक्तित्व को बनाया है, मैं भला क्यों अपना नाम बदलूं। उन्होंने मेरा नाम रखा तो इसका मतलब उन्होंने मुझे एक पहचान दी है। आप (पति) कानूनी रूप से एक दिन में हमारे पति हो जाते हैं इसका मतलब यह थोड़े है कि मैं अपनी आइडेंटिटी बदल लूं। महाराष्ट्र में लड़कियां भी अब अपना पहला नाम नहीं बदल रही है, जैसे पहले आशा रेणुका में बदल जाती थी। अब वह आशा आशा ही रहती है। सरनेम अभी भी बदल जाता है।
पिता की जगह पति का नाम अभी भी जुड़ जाता है। हो सकता है कुछ दिनों बाद इस पर भी बात हो, लेकिन अभी यह पहली बात है कि उनका नाम नहीं बदला जा रहा। देखिये महाराष्ट्र और गुजरात में कई जगह तो शादी के बाद पूरा- पूरा नाम बदलने का रिवाज है पर मैंने नहीं बदला। जो लोग यह कह कर नाम बदल रहे कि हम सम्मान में, प्रेम में नाम बदल रहे हैं वह दरअसल उनकी पितृसत्तात्मक सोच होती है। यह कैसा सम्मान है कि नाम बदल लिया और दिन-रात लड़ाई- झग्ड़े कर रहे हैं। असल में यह एक बकवास कवायद है।”
-विभा रानी, साहित्यकार एवं नाटक- कर्मी
जो तलाकशुदा औरतें हैं वे अपने पति का नाम लेकर कैसे चलेंगी !
“मैं अपना किस्सा बताती हूं, वो 1967 का दौर था मुझे लंदन जाना था तो मैं नासिरा अली के नाम से कैसे जा सकती थी। उस वक्त कानून था कि मुझे मैरिज सर्टिफिकेट दिखाना था, वाइफ आफ बताना था। पहले मैं नासिरा अली थी बाद में नासिरा शर्मा बनी। पासपोर्ट में तो बदलना पड़ा। बाद में इसी नाम से लेखिका बनी, लोग जानने लगे ।
नाम सबके मुंह पर चढ़ गया। यहां यह भी है कि अगर मैं शादी के पहले लिखना शुरू करती और लोग नासिरा अली नाम जानने लगते तो शायद मैं दूसरी तरह सोचती। देखिए बहुत सारी वजहें होती हैं नाम बदलने की।
सिर्फ़ पसंद के तौर पर नहीं देखा जा सकताए कभी- कभी कुछ कानूनी हालात भी होते हैं। अब जो तलाकशुदा औरतें हैं वे अपने पति का नाम लेकर कैसे चलेंगी । मेरा मानना है कि नाम या सरनेम बदलने को लेकर कोई नहीं होना चाहिए। हां, अगर कानून बना दिया जाता है तो अलग बात है।
-नासिरा शर्मा, वरिष्ठ साहित्यकार
यह स्त्रियों की चाॅइस है कि वो नाम बदलना चाहती हैं या नहीं
“अगर मैं अपनी मां का सरनेम अपने नाम के आगे लगती तो वो भी तो मेरे नाना का सरनेम होता।
तो कुल मिलाकर जो सरनेम की
सोशियोलाॅजी है या हिस्ट्री है वह पुरुषों से ही जुड़ी हुई है।
इसलिए मैंने अपना नाम नहीं बदला। हालांकि यह स्त्रियों की चाॅइस है कि वो नाम बदलना चाहती हैं या नहीं जब हम चाॅइस की बात करते हैं तो यह सही नहीं है कि जो स्त्रियां अपनी मर्जी से अपने पति का सरनेम अपने नाम के आगे लगती हैं हम उनकी आलोचना करें।
मैं ये मानती हूं कि नाम बदलना या न बदलना यह सब बहुत बेकार की बाते हैं। यह सब मध्य वर्ग के लोग या जिनका बहुत पेट भरा हुआ है उनके चोंचले हैं। क्योंकि यह सब बातें तब सही होतीं जब इससे मेरी पीढ़ी की औरतों की स्थितियों में बदलाव होता। उनकी दुनिया में क्या इससे कुछ खास बदलाव हो ग्या। यह सब भरे पेट का स्त्रीवाद है।”
-क्षमा शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार
नाम बदलवाने का मुझे कोई कारण समझ नहीं आता
“कहते हैं, नाम में रखा क्या है? लेकिन कुछ लोगें का मानना है नाम में बहुत कुछ रखा है। भारतीय संस्कृति में पितृसत्ता को बनाये रखने के लिए स्त्री का शादी के उपरांत सरनेम बदलने का रिवाज रहा है। लेकिन जब से ग्लोबलाइजेशन का दौर शुरू हुआ है। तब से स्त्री सिर्फ होम मेकर नहीं रही। वह घर के आर्थिक बोझ उठाने में भी सहभागी बनने लगी है। बाहर जाॅब करती है, काम करती है और आर्थिक रूप से सबल होने लगी है।
जिस कारण उसका पुराना सरनेम अधिकतर आॅफिसियल सरकारी और बैंक के काग़जों गया पर लिख जाता है। आज की तारीख में शादी के बाद नाम बदलवाना बड़ा तकलीफदेह हो ग्या है।
सिर्फ आत्मसंतुष्टि के लिए नाम बदलवाने के लिए इतनी मेहनत करने का मुझे कोई कारण समझ नहीं आता। अगर दिल मिल रहे हैं तो सरनेम मिले न मिले क्या फर्क पड़ता है।”
-भगवंत अनमोल, युवा कथाकार
“कुछ लड़कियां कहती हैं कि हमने प्यार में सरनेम बदला पर प्यार मतलब यह थोड़े ही होता है कि प्यार में आप बदल जाएं, नाम बदल लें। जो जैसा है उसे वैसे ही प्यार करो तब तो प्यार है न। अग्र अपवाद छोड़ दिया जाए तो क्या आपने कभी किसी पुरुष को शादी के बाद नाम बदलते देखा है।
मैं अंतरराष्ट्रीय स्तर की बात कर रही हूंए कहीं भी हो शादी के बाद स्त्रियों को ही नाम बदलना होता है। शादी के बाद पत्नियों को पतियों को सब आर्डिनेट या प्राॅपर्टी माना जाता है। जरूरत है इस चीज से छुटकारा पाया जाए।
जो स्त्रियां शादी के बाद स्वतंत्र रूप से भी अग्र सरनेम बदल रही हैं तो वो कहीं न कहीं उस सोच में बंधी हुई हैं जो बचपन से उन्हें सिखाई गयी है कि शादी के बाद तुम पति की हो जायेगी या अब सब निर्णय तुम्हारा पति ही लेग आदि। जैसे सोनम कपूर ने अपना नाम बदलकर सोनम कपूर आहूजा कर लिया और स्वतंत्र रूप से किया लेकिन वो भी एक कंडीशनिंग का हिस्सा है।”
-अणुशक्ति सिंह, युवा लेखिका
(अंतर्राष्ट्रीय महिला सप्ताह पर विशेष )