रक्षा मंत्रालय द्वारा पूर्व सैनिकों तथा उनके परिवारों को मिलने वाली सामान्य पारिवारिक पेंशन, विशेष पारिवारिक पेंशन, लिबरालाइज्ड फैमिली पेंशन, अपंगता पेंशन व युद्ध में लगी चोट के लिए पेंशन की मांग करने की समय सीमा लिमिटेशन एक्ट 1963 के तहत पांच वर्ष निर्धारित कर दी गई है। इसे पूरी तरह पूर्व सैनिकों के परिजनों के मूल अधिकारों का हनन माना जा रहा है। आर्मी के सिस्टम की गलती के चलते कमांडिंग ऑफिस, रिकॉर्ड ऑफिस, पीसीडीए (पेंशन) इलाहाबाद में लगातार पेंशन संबंधी अपीलीय शिकायतों का ढेर लगता जा रहा है, लेकिन समय पर इनका निदान नहीं हो पा रहा है। उत्तराखण्ड सैनिक कल्याण परिषद के पूर्व उपाध्यक्ष व सेवानिवृत्त ले. कर्नल एसपी गुलेरिया (एडवोकेट) लिमिटेशन एक्ट में हुए बदलावों के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं। उनसे सैनिकों के संवैधनिक अधिकारों के सवालों पर ‘दि संडे पोस्ट’ संवाददाता दिनेश पंत की खास बातचीत :
पहला सवाल तो यह कि रक्षा मंत्रालय द्वारा पूर्व सैनिकों की तमाम तरह की पेंशन की मांग करने की जो समय सीमा लिमिटेशन एक्ट 1963 के तहत पांच वर्ष निर्धारित की गई है, क्या वह सैन्य परिजनों के मूल अधिकारों के खिलाफ है?
सेवानिवृत्त सैनिकों को पेंशन की मांग करने के लिए किसी भी प्रकार की समय सीमा में बांधना गलत है। 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू होने के बाद से मई 2016 तक कई पूर्व सैनिक 10 से लेकर 43 सालों तक पेंशन पाने में सफल रहे हैं। संविधान की धारा 13 कहती है कि जो भी नियम बनेगा वह उस दिन से लागू होगा जब यह बना। उससे पहले वालों पर यह लागू नहीं होगा। इस तरह से यह 10 मई 2016 के बाद वालों के लिए लागू होना चाहिये। मैंने खुद पिछले 17 सालों में 3770 केस डील किये हैं जो 10 से 50 साल पुराने हैं। लिमिटेशन एक्ट किसी समय सीमा में नहीं बांधता, बल्कि वह कहता है कि पेंशन की मांग करने में देरी क्यों हुई। अगर वजह सही है तो उस पर सुनवाई होती है। एक्ट वाजिब कारण मांगता है। लेकिन अब इस एक्ट के तहत समय सीमा निर्धारित होने से सैनिक के मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा है। यह एक तरह से पूर्व सैनिक के राइट टू अपील को खत्म करता है। वैसे भी देर से अपील करने के पीछे 90 प्रतिशत सिस्टम जिम्मेदार है। अब आप बताइये कि अगर कमांडिंग ऑफिस में डिस्चार्ज गलत लिखी होगी। भगौड़े की रिपोर्ट का रिकार्ड ठीक नहीं होगा। जहां एफआईआर रिपोर्ट रिकॉर्ड कराने में वर्षों लग जाते हों वहां पर पेंशन की मांग करने में देरी के लिए कौन जिम्मेदार है? अब रक्षा मंत्रालय कह रहा है कि हमारे पास बहुत देर से आवेदन आ रहे हैं तो इसको देखते हुए समय सीमा पांच वर्ष निर्धारित कर दी गई है। जबकि देरी के पीछे जो सिस्टम जिम्मेदार है, उसे दुरुस्त किये जाने की जरूरत है। अभी तक सैनिकों की पेंशन का समाधन लिमिटेशन एक्ट 1, 5, 17 के आधार पर होता था। सैनिक 12 से 16 घंटे ड्यूटी करता है, हफ्ते में चार से पांच घंटे उसे सोने को मिलते हैं। ऐसे में अगर उसके पेंशन पाने का हक ही छीन लिया जाएगा तो उसका जीविकोपार्जन कैसे होगा? उसके बच्चे कैसे शिक्षा प्राप्त करेंगे? यह व्यक्ति के सम्मान के साथ जीने के मौलिक अधिकारों का सीधा उल्लघंन हो गया। जो आपका हक है, लाभ है, उसको मांगने के लिए क्या किसी को किसी समय सीमा पर बांधा जा सकता है?
क्या यह संशोधन भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 19 (1) व अनुच्छेद 21 के तहत सैनिक अधिकारों के खिलाफ जाता है?
बिल्कुल। राइट टू जस्टिस, राइट टू अपील, राइट टू लाइफ व राइट टू प्रिंसिपल ऑफ नेचुरल जस्टिस भारतीय संविधान की अवधारणा के अनुसार सैनिकों के भी अधिकार हैं। जब आप अपील ही नहीं करेंगे तो आपको न्याय कैसे मिलेगा? यह भारतीय संविधान की धारा 14 के खिलाफ है। लिमिटेशन एक्ट में दो हिस्से बना दिये गये। जो अभी आये हैं उन्हें पांच साल कर दिया गया व जो पहले आये वह 43 साल बाद भी पेंशन पाने में सफल रहे। यह पूरी तरह से संविधान की धारा 14 का उल्लघंन हो गया क्योंकि इसमें विविधता आ गई। जबकि धारा 14 समानता के संरक्षण की बात करती है। जब सब कुछ समान है तो फिर एक को 40 साल तो दूसरे को 5 साल का समय क्यों ? यही नहीं धरा 13(3) कहती है कि भारत के राष्ट्रपति, गवर्नर या फिर किसी भी संवैधानिक अथॉरिटी को अधिकार है कि वह कानून बना सकती है बशर्तें यह किसी का हक न मारे। यह धारा 19-1 (एफ) के तहत राइट टू आर्मी सर्विस पेंशन के खिलाफ भी जाता है। वहीं धारा 21 जो व्यक्ति के सम्मान की बात करती है यह उसके खिलाफ भी जाता है। यह पिछले 66 सालों से सोशियल जस्टिस ऑफ आर्मी मैन को रोकने की कोशिश भी है। लिमिटेशन एक्ट 1963 सेक्शन 26, सेक्शन 191 (1), सेक्शन 1, सेक्शन 5 व सेक्शन 17 जो सेना के जवानों के मौलिक अधिकारों को सुरक्षित रखते हैं। वहीं आर्मी एक्ट 1950 के सेक्शन 26, सेक्शन 191(1) के तहत मौलिक अधिकार संरक्षित हैं। लेकिन संशोधन के बाद उनका यह मौलिक अधिकार खतरे में है। वैसे भी इंडियन एवीडेंस एक्ट 1972 के सेक्शन 108 कहता है कि अगर सेना से कोई सैनिक अचानक लापता हो जाता है तो 7 वर्ष तक उसमें कोई कार्यवाही नहीं हो सकती। इसके बाद जिला कोर्ट में क्लेम करने पर 3 से 5 साल लग जाते हैं। इस तरह लापता सैनिक के परिजनों को पेंशन पाने के लिए 12 साल का समय लग जाता है। अगर देखें तो इस मामले में लिमिटेशन एक्ट के तहत पांच साल सीमा निर्धारण का कोई औचित्य नहीं रह जाता।
एक सवाल अपंगता पेंशन को लेकर उठता रहा है, इसमें किस तरह की विसंगतियां हैं?
जब सेना में जवान भर्ती होता है तो वह पूरी तरह फिट होता है। सर्विस के दौरान चोट लग जाने, बीमार हो जाने या युद्ध के दौरान अपंग हो जाने पर सेना के अन्य स्वस्थ सैनिक की अपेक्षा उसके काम करने की क्षमता में कमी आ जाती है तो ऐसे में सेना उस अपंग सैनिक को अपंगता पेंशन देती है। लेकिन बहुत से लोगों को समय पर अपंगता पेंशन नहीं मिल पाती। इसकी वजह यह रही है कि पीसीडीए (पेंशन) इलाहाबाद में एक मेडिकल एडवाइजर होता है। यहां पर जो मेडिकल डॉक्युमेंट आते हैं उनमें से 90 प्रतिशत डॉक्युमेंट को सीधे रिजेक्ट कर दिया जाता है। जबकि दिल्ली हाईकोर्ट ने सीडीए को पैरा 3 से 10 तक की एक गाइड लाइन दी है लेकिन इसका पालन नहीं होता। जिससे कई सैनिक अपंगता पेंशन पाने से वंचित रह जाते हैं।
देखने में आया है कि आर्मी में पेंशन संबंधित अपीलीय मामलों की संख्या बढ़ती जा रही है, इसका जिम्मेदार कौन है?
नब्बे प्रतिशत सिस्टम। वजह यह कि सैनिक के डिस्चार्ज करने की प्रक्रिया को ठीक से नहीं लिखा जाता। कानून के आधार पर नहीं लिखा जाता। किस कारण से सैनिक डिस्चार्ज हुआ, यह ठीक से नहीं लिखा जाता। समय पर डिस्चार्ज सर्टिफिकेट नहीं दिये जाते। सेना से जब कोई भगौड़ा हो जाता है या फिर कोई सैनिक लापता हो जाता है तो उसकी एफआईआर लिखने में ही सालों लग जाते हैं। जब किसी सैनिक को सजा मिलती है तो उसके साथ का सर्पोंटिंग डाक्युमेंट होना चाहिए, वह नहीं लगा होता है। कई बार डाक्युमेंट के रिकार्ड नहीं मिलते। कई बार रिकॉर्ड जानबूझकर गुम कर दिये जाते हैं। जबकि पेंशनर के डाक्यूमेंट 25 वर्ष व सेवा दे रहे जवान के डाक्युमेंट को 65 वर्ष तक रखना होता है। मेडिकल एक्जामिनेशन कॉपी खो जाती है। इसके अलावा अगर कोई रिकार्ड गुम हो जाता है तो उसे बनाने में ही 10 साल से ऊपर का समय लगा दिया जाता है। अब देखिए, सैनिक कोर्ट से जो 95 प्रतिशत मामले रिजेक्ट कर दिये जाते हैं उसमें से अधिकांश को सिविल कोर्ट पास कर देती है। इससे समझा जा सकता है कि सिस्टम किस तरह से काम कर रहा है।
आप अपने स्तर से क्या प्रयास कर रहे हैं?
मैंने 22 पृष्ठीय एक दस्तावेज भारत के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, संसद की स्टैंडिंग कमेटी ऑन डिफेंस के चेयरमैन, चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ, जिला सोल्जर बोर्ड के चेयरमैन के साथ ही जिलाधिकारी को सौंपा है। जिसमें लिमिटेशन एक्ट की समय सीमा पांच वर्ष निर्धारित होने से पेंशन की मांग करने वाले सैनिकों, उनके परिजनों के मौलिक अधिकारों का किस किस तरह उल्लघंन हो रहा है, साथ ही यह भारतीय संविधान की मूल अवधारणा में सैनिकों के हितों के खिलाफ किस तरह जा रहा है, इसको रेखाकिंत किया है व इस पर पुनर्विचार करने की मांग की है।