स्वतंत्रता दिवस विशेष
– सूर्यकांत पांडेय
उनकी तुर्बत पर नहीं है एक भी दिया
जिनके खूँ से जलते हैं चिराग ए वतन।
जगमगा रहे हैं मक़बरे उनके
बेंचा करते थे जो शहीदों के क़फ़न।
इतिहास में भारतीय परम्परा अनुसार स्याह एवं सफ़ेद दोनों पक्षों को याद किया जाता है। यही कारण है कि सांस्कृतिक आयोजनों के अंतर्गत दशहरे में भगवान श्रीराम की महिमा के साथ रावण का पुतला भी दहन किया जाता है। दुर्गा पूजा में दुर्गा की महिमा के साथ महिसासुर वध भी किया जाता है। रंगारंग होली खेलने के पहले होलिका दहन भी किया जाता है और सोलह कलाओं के अवतार श्रीकृष्ण की लीला के साथ कंसवध भी किया जाता है। दूसरी तरफ जब हम भारतीय स्वतंत्रता के क्रन्तिकारी इतिहास में अपने नायकों की वीरगाथा कहते और सुनते हैं तब उनकी शहादत के जिम्मेदारों, गद्दारों और आज़ाद भारत में उनके परिवारों की दुर्दशा का जिक्र तक नहीं करते हैं। यही कारण है कि स्वतंत्रता संग्राम का स्याह और गद्दारी का पक्ष आज़ाद भारत में आनंदपूर्वक ऐशो-इशरत से रह रहा है।
भारत में 1998 में बनी एक संस्था अशफ़ाक़ उल्लाह खां मेमोरियल शहीद शोध संस्थान वर्ष 2000 से नयी परंपरा कायम करते हुए स्वतंत्रता दिवस पर मुखबिरों और गद्दारों की अर्थी निकाल कर उसका दहन करता है।
सांस्कृतिक पक्ष में चार घटनाओं का ज़िक्र करने के बाद क्रन्तिकारी आंदोलन के भी चार नायकों का, उनके मुखबिरों का,आज़ादी के बाद उनके परिवारों का तथा गद्दारों और मुखबिरों के रसूख का ज़िक्र करना आवश्यक है। इसमें शहीद-ए-आज़म भगत सिंह, सुखदेव एवं राजगुरु पर चलाये गए मुक़दमे में जिन दो व्यक्तियों की गवाहियाँ आधार मानी गयीं उनका नाम है सर शोभा सिंह और सर शादी लाल। भारतीय जनता की नज़रों में तो वह घृणा के पात्र अवश्य थे, पर कनाट प्लेस नयी दिल्ली में स्थित सर शोभा स्कूल में प्रवेश के लिए रसूखदारों के बच्चों की क़तार लगती है। लगभग आधा से अधिक कनाट प्लेस अंग्रेजी हुकूमत ने भगत सिंह के खिलाफ गवाही के लिए बतौर इनाम दिया था। दूसरे साहब सर शादी लाल जिनकी फैक्ट्री की बनी शराब सामंतियों का गला तर करती है, वह मेरठ के शामली में स्थित है। अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें हज़ारों बीघा ज़मीन और करोड़ों रुपए इनाम में दिए। बम्बई में स्थित वीडियो ग्रुप के मालिक सर शादी लाल के वंशज हैं, जिनके परिवार में मोहम्मद अली जिन्ना की बेटी ब्याही है।
मजे में हैं गद्दारों के वंशज
-मुंबई में वाडिया ग्रुप के मालिक हैं सर शादी लाल के वंशज
– सर शोभा सिंह के नाम पर कनाट प्लेस में चल रहा हैं नामी गिरामी स्कूल। रसूखदारों के बच्चे पढ़ते हैं यहां।
भारतीय क्रन्तिकारी आंदोलन के सेनापति शहीद शिरोमणि चंद्रशेखर आज़ाद, जिन्हें 27 फ़रवरी 1931 को जिस नाट बाबर की गोलियों से शहादत मिली थी, उसके मुखबिर वीरभद्र तिवारी वास्तव में एच.एस.आर. ए. की केंद्रीय समिति के साथ-साथ कानपुर पुलिस के स्पेशल पुलिस अफसर भी थे। उन्हें अंग्रेज़ पुलिस प्रति माह बतौर तनख्वाह उस समय 200 रुपये देती थी। वह आज़ाद की गतिविधियों से नाट बाबर को अवगत कराते रहते थे। जिस वक़्त मुठभेड़ की यह घटना हुई उसके पूर्व अल्फ्रेड पार्क में बैठे सुखदेव राज ने वीरभद्र तिवारी को खुद को देखते हुए देख लिया था। आज़ाद ने सुखदेव राज को साइकिल लेकर भाग जाने का आदेश दिया और नाट बाबर तथा उसके एक साथी पर गोली चला दी जिससे नाट बाबर का हाथ जख्मी हो गया और साथी का जबड़ा टूट गया। बदले में चली गोलियों से शहीद शिरोमणि बलिदान हो गए। पोस्ट-मार्टम में उन्हें तीन गोलियां लगी बताई गयी थीं। आज़ादी आने के बाद वीरभद्र तिवारी अपने जिले का जिलापंचायत अध्यक्ष और समृद्ध व्यक्ति बना। दूसरी तरफ शहीद की माँ जगरानी देवी को कई महीने कोदो खाकर पेट पालना पड़ा। जब कहीं से इसका पता तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को लगा तो उन्होंने 500 रुपए भिजवाया। चंद्रशेखर आज़ाद के विश्वसनीय साथी विश्वनाथ वैशम्पायन उनको अपने साथ झाँसी ले गए और मृत्यु तक उनकी सेवा की और उनकी श्रद्धानुसार तीर्थयात्रा भी करवाई। वैशम्पायन की सेवा से प्रसन्न होकर जगरानी जी ने कहा कि अगर चंदू जिन्दा होता तो वह भी मेरी इतनी सेवा न कर पाता।
क्रन्तिकारी आंदोलन के सैद्धांतिक पक्ष को तब तक नहीं समझा जा सकता जब तक काकोरी एक्शन के जिम्मेदार एच. आर. ए. के शहीदों पंडित राम प्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह एवं अशफ़ाक़ उल्लाह खां जिन्हें क्रमशः गोरखपुर, इलाहाबाद और फैज़ाबाद में 19 दिसंबर 1927 को फांसी दी गयी। जबकि भागने के डर से राजेंद्र लाहिड़ी को 17 दिसंबर को ही गोंडा जिला जेल में फांसी पर लटका दिया गया था। एक्शन के नेतृत्वकर्ता राम प्रसाद बिस्मिल की माँ जब फांसी से पूर्व बिस्मिल से मिलने गोरखपुर जेल पहुंची, तब बिस्मिल की डबडबायी आंख देखकर कहा : ” अरे! मैं तो समझती थी कि मेरा बेटा बहुत बहादुर है और उसके नाम से अंग्रेज सरकार भी थरथराती है। मुझे पता नहीं था कि वो मौत से इतना डरता है।” वह यहीं नहीं रुकीं, उन्होंने कहा: “तुझे ऐसे ही रोकर फांसी पर चढ़ना था तो तूने क्रांति की राह क्यों चुनी। तब तो तुझे इस रास्ते पर कदम ही नहीं रखना चाहिए था।” आज़ादी के बाद उन्हें और बिस्मिल की दादी को हिन्दू धर्मों के मुताबिक मिले दान से गुजारा करना पड़ा।दूसरी तरफ एच. आर. ए. के ही गद्दार साथी बनवारी लाल, जो खुद शाहजहाँ पुर जनपद के तिलोकपुर गाँव के रहने वाले थे , आज़ादी के बाद ब्राह्मणों के डर से अपना गाँव छोड़कर केशवपुर में रहने लगे, जहाँ उन्होंने अंग्रेजों के दिए हुए धन से कोठी बनवाकर ऐशो-आराम की ज़िन्दगी जी और वर्ष 2000 के आस-पास मरे।
सबसे संवेदनशील और हृदयविदारक घटना तो उस व्यक्ति के साथ होती है, जो शहीद ए आज़म भगत सिंह के साथ असेम्बली बम काण्ड में गिरफ्तार हुए था। ऐसे बटुकेश्वरदत्त आज़ादी के बाद लगभग 18 वर्ष ज़िंदा रहे। वह इस बात से दुखी थे कि भगत सिंह के साथ उनको फांसी की सजा क्यों नहीं मिली। वह साथियों से बार-बार कहते थे कि जीते को माड़ नहीं और मरे को खाँड़। उनके साथ तो इससे भी बुरा। आज़ाद भारत में न जीते जी उनकी कोई पूछ रही और न ही उनकी स्मृति का कोई मोल दिखता है। 1947 में आज़ादी आने के बाद वह शादी करके पटना में बस गए थे। उन्होंने कभी सिगरेट कंपनी का एजेंट, टूरिस्ट गाइड, ब्रेड विक्रेता, आदि बनकर पटना की सड़कों पे धूल फांकी। तत्कालीन प्रधानमंत्री गुलज़ारीलाल नंदा को जब पता चला, तो उन्होंने बिहार सरकार से उनकी सहायता करने को कहा। बिहार सरकार ने पटना कमिश्नर को बस का परमिट देने को कहा। जब वह सरकार के कहने से कमिश्नर से मिलने गए तो उसने इनसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का प्रमाण पत्र मांगा। फिलहाल काला पानी की यातनाओं से उनका शरीर कमजोर हो चुका था , उन्हें टीबी की बीमारी थी। 22 नवम्बर 1964 को उन्हें गंभीर हालत में दिल्ली लाया गया और सफदरजंग अस्पताल में भर्ती कराया गया। उन्होंने पत्रकारों से कहा: “जिस दिल्ली में मैंने भगत सिंह के साथ असेम्बली में बम फोड़ा था, वहां मैंने स्ट्रेचर पर अपाहिज की तरह आने की कल्पना नहीं की थी।” 20 जुलाई 1965 की रात 1 बजकर 50 मिनट पर उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया और उनकी इच्छा के मुताबिक उन्हें उनके साथी भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के साथ भारत पाक सीमा के करीब दफ़न कर दिया गया।
अध्यात्म और संस्कृति के स्याह और सफ़ेद पक्षों को जिस तरह हम याद करते हैं; उसी तरीके अशफ़ाक़ उल्लाह खां मेमोरियल शहीद शोध संस्थान स्वतंत्रता दिवस पर क्रन्तिकारी आंदोलन के स्याह पक्ष को याद कराना चाहता है। इसलिए वर्ष 2000 से 15 अगस्त के दिन स्वतंत्रता दिवस समारोहों के बाद गद्दारों और मुखबिरों का पुतला दहन करके उसके स्याह पक्ष को नयी पीढ़ी तक पहुंचाने की कोशिश में है। जिससे आज़ादी के क्रन्तिकारी मूल्यों को बचाया जा सके।
(लेखक अशफ़ाक़ उल्लाह खां मेमोरियल शहीद शोध संस्थान के प्रबंध निदेशक हैं )