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  •     श्वेता माशीवाल
    सामाजिक कार्यकर्त्ता

ऊं तीन स्वरों से बना है। अ, उ और म। ये ध्वनियां जीव की तीन अवस्थाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। जगना, स्वप्न देखना और गहरी नींद। इन तीन ध्वनियों का तारतम्य पृथ्वी, झील और स्वर्ग से भी जुड़ता है। इस त्रिमूर्ति से परे चौथी अवस्था मौन या शुद्ध की अवस्था है, जो ऊं शब्द में अर्धचंद्र पर शीर्ष बिंदु द्वारा दर्ज की गई है। इस प्रकार ऊं पर्वत उस परम वास्तिवकता का प्रतिनिधित्व करता है जो दुनिया से परे हैं

देवभूमि उत्तराखण्ड के भौगोलिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक इतिहास तथा वर्तमान के विषय में काफी कुछ कहा सुना पढ़ा लिखा जा चुका है तथा उसका विश्लेषण भी समय-समय पर होता रहा है पर जो विषय आज भी व्यापक तौर पर साझा नहीं हुआ है वो है हिमालय श्रृंखला का वैदिक अलौकिक इतिहास। आध्यात्मिक पुंजों ने समय-समय पर इस तरफ ध्यान आकर्षित अवश्य किया है लेकिन मुझे यह लिखने में कोई संकोच नहीं कि हमारी इस धरोहर से आज भी सामान्यतः सब पूरी तरह से परिचित नहीं हैं। मैं कुछ वषों से यहां की इसी धरोहर को पढ़ने जानने समझने का प्रयास और अब उसे आपके साथ साझा करने का प्रयास भी कर रही हूं। सोच रही थी शुरू कहां से करूं तो यकायक ही ध्यान गया उस स्वर पर जिसका अस्तित्व ब्रहमांड से भी पहले का है। ऊं का नाद।

कहते हैं ऊं का ही स्वर है जिसने संसार की रचना में प्राण डाले। ओम की तीन मात्राएं हैं ‘अकार, ‘उकार’ तथा ‘सकार’ जो प्रकृति के तीन गुणों की प्रतीक हैं अकार सतोगुण, उकार रजोगुण तथा मकार तमोगुण को तथा ऊं के ऊपर की बिंदी त्रिगुण से परे समानता का प्रतीक है। इसके साथ ऊं में ही ब्रह्मा, विष्णु तथा सदाशिव निहित हैं। ऊं तीन स्वरों से बना है। अ, उ और म। ये ध्वनियां जीव की तीन अवस्थाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। जगना, स्वप्न देखना और गहरी नींद। इन तीन ध्वनियों का तारतम्य पृथ्वी, झील और स्वर्ग से भी जुड़ता है। इस त्रिमूर्ति से परे चौथी अवस्था मौन या शु़़द्ध की अवस्था है, जो ऊं शब्द में अर्धचंद्र पर शीर्ष बिंदु द्वारा दर्ज की गई है। इस प्रकार ऊं पर्वत उस परम वास्त्विकता का प्रतिनिधित्व करता है जो दुनिया से परे हैं।

वैसे तो समस्त ब्रह्माण्ड का संचालन ही दैविक शक्तियां करती हैं लेकिन मान्यता है कि हिमालय ही शिव स्थान है। वैज्ञानिक पठन पाठन कई दफा हमें इन मान्यताओं से अलग तर्क संगत सोचने के लिए कहता है लेकिन जब पिथौरागढ़ से ऊं पर्वत को देखते हैं तब लगता है और कितने प्रमाण चाहिए? इस पर्वत पर नैसर्गिक तरीके से ऊं का आकार बना है जो हिमालय की वजह से एकदम स्पष्ट दिखाई देता है। ऊं पर्वत को कैलाश मानसरोवर यात्रा के मार्ग में लिपुलेख के दर्रे के रास्ते अंतिम शिविर (केएमवीएन हट्स के पश्चिम में नाभिढांग दर्रा) से देखा जा सकता है। भारत इस पर उत्तराखण्ड की ओर से धारचूला में अपना दावा करता है। जबकि नेपाल इस पर नेपाल के दारचुला जिले में अपना दावा करता है। यह हमेशा से दुनिया भर के हिंदुओं के लिए पवित्र पर्वत रहा है। कुथी घाटी में आदि कैलाश जाने वाले कई ट्रैकर्स अक्सर ऊं पर्वत को देखने के लिए गंुजी का रुख करते हैं। ऊं पर्वत कैलाश पर्वत मानसरोवर झील यात्रा मार्ग पर नाभिधग शिविर के पूर्व में स्थित है। कैलाश पर्वत को लिपियाधुरा दर्रे के साथ-साथ पुराने लिपुलेख दर्रे (लिपुलेख दर्रे से कुछ किलोमीटर पश्चिम) से भी देखा जा सकता है। यह पर्वत भारत नेपाल सीमा के पास कैलाश मानसरोवर यात्रा के मार्ग में आता है और लगभग 6,191 मीटर (20,312 फीट) की ऊंचाई पर स्थित है। इसके निकट ही आदि कैलाश और पार्वती झील हैं। जैन धर्म के अनुयायी इसे ‘आष्टापद पर्वत’ से जोड़कर देखते हैं।

ऊं पर्वत के दर्शन के लिए मई-जून या फिर सितंबर-अक्टूबर सबसे उपयुक्त महीने हैं। बाकी समय बरसात या अति ठंड रहती है और वहां जाने से जोखिम हो सकता है। पिथौरागढ़ से धारचूला और वहां से गूंजी नाबी या कुटी 70 किलोमीटर दूर है। यहां आपको होमस्टे मिलेंगे जिनसे आगे जकर ऊं पर्वत के दर्शन होते हैं। सनद रहे दर्शन के लिए उपजिलाधिकारी कार्यालय धारचूला से विशेष परमिट की आवश्यकता भी होती है।

सभी शिव स्थल पर्वतों की भांति ये पर्वत भी अलघ्य ही है। साधकों को इसमें नंदी बैल तथा शेर का मुख भी दिखाई देता है। अब चिंता ये है कि 2024 में पहली बार ग्लोबल वार्मिंग के चलते बर्फ पूरी तरह से पिघल गई और ऊं पर्वत पूरी तरह से कई महीनों के लिए बर्फ शून्य हो गया। इसे अच्छा संकेत नहीं माना जा सकता। निश्चित ही पॉलिसी मेकर्स, पर्यावरणविद और ग्लोबल कम्युनिटी को कुछ करना होगा। सबसे पहले तो सीमित गाड़ियों का आवागमन, हेली सर्विस पर रोक, फॉरेस्ट फायर मैनेजमेंट और सस्टेनेबल टूरिज्म पॉलिसी की तरफ काम करना तत्काल जरूरी है।

हिमालय इस ब्रह्माण्ड की धरोहर है। इसे सहेजने की जिम्मेदारी हम सबकी है। यह जिम्मेदारी सबसे अधिक हिम प्रदेश के वासियों की है। देवभूमि संतों की तपस्थली है। यहां का कंकड-कंकड शंकर है लेकिन इस बात का मर्म या दिव्यता केवल साधक समझते हैं। विचार बस इतना करना है कि इन धरोहरों को सहेजने के लिए क्या प्रयास किए जाएं। जिम्मेदारी केवल एक की नहीं हम सबकी है। हिम प्रदेश सिर्फ पर्यटन के लिए ही नहीं कंजरवेशन के मानकों के लिए भी जरूरी है और अब इस तरफ हमें अपनी चेतना की धारा को मोड़ना होगा। इस ‘उत्तराखण्ड एक आध्यात्मिक खोज’ श्ृृंखला के जरिए मेरा प्रयास आपको देवभूमि के अध्यात्म से जोड़ना तो है ही, साथ ही उन मुद्दों को भी सामने रखना है जिन पर यदि समय रहते हम नहीं चेते तो इस देवभूमि का देवत्व समाप्त होते देर नहीं लगेगी।

(लेखिका रेडियों प्रजेंटर, एड फिल्म मेकर तथा
वत्सल सुदीप फाउंडेशन की सचिव हैं)

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