By ओंकार नाथ सिंह
पता नही क्यों मुझे भारत सरकार की नई शिक्षा नीति भा नहीं रही है। मुझे ऐसा लग रहा है कि इस सुधार से और पीछे लिए गये कुछ निर्णयों से जो हमने शिक्षा जगत में धूम मचा रखी थी उसमें कमी आ जायेगी। जब भी कोई नीति बनाई जाती है तो कायदे से उसमें उस क्षेत्र के योग्य व्यक्तियों को लेना चाहिए जिससे उसमें कुछ सुधार हो सकें। जैसे भारत सरकार ने नई शिक्षा नीति में जो कमेटी बनाई उसके लिए तमाम योग्य व्यक्तियों को समिति में लिया, लेकिन प्राइमरी शिक्षा के सुधार के लिए प्रारम्भिक एवं माध्यमिक शिक्षा के किसी भी योग्य शिक्षक को नही लिया बल्कि उसकी जगह कृष्ण मोहन त्रिपाठी पूर्व शिक्षा निदेशक उत्तर प्रदेश को सदस्य समिति में लिया। यानी बच्चों में किस शिक्षा पद्धति का प्रवेश करना चाहिए यह शिक्षक नहीं, बल्कि अधिकारी बताएगा। जबकि सबसे आमूल चूल परिवर्तन प्रारम्भिक और माध्यमिक शिक्षा में ही किया गया है। चलिये इसका विश्लेषण करने के लिए उच्च शिक्षा से प्राइमरी तक चलें तो इसकी अच्छाई और बुराई दोनों सामने आ जाएंगी। अभी तक बड़े – बड़े शिक्षा संस्थानों को भारत सरकार अनुदान देती थी जैसे आईआईटी, आईआईएम, जेएनयू, सरकारी मेडिकल कालेज, एम्स, सरकारी इंजियनिरिंग कालेज और अनेक संस्थाए हैं। अब इनका अनुदान बन्द किया जा रहा है। इससे होगा यह कि जो गरीब छात्र मेधावी होगा वह यह शिक्षा धन के अभाव में नहीं ग्रहण कर पायेगा और जो वास्तव में असली ब्रेन दुनिया में धूम मचाता था उससे यह दुनिया वंचित रह जायेगी। अब दूसरी तरफ ध्यान दीजिए इन्होंने बीए का चार वर्ष का कोर्स कर दिया। अभी तक यह तीन वर्ष का था जब हम लोग पढ़ते थे तब दो वर्ष का था। यह इसलिए किया गया क्योंकि जो बच्चे बीए के बाद उच्च शिक्षा के लिए विदेश में पढ़ने जाते थे तो उनको दाखिला मिलने में कठिनाई होती थी। उनके हिसाब से तो ठीक है पर आपने गरीबों पर एक बोझ और बढ़ा दिया। होना यह चाहिए था कि जो बच्चे विदेशों में उच्च शिक्षा ग्रहण करना चाहते हैं उनके लिए चार वर्ष का कोर्स कर देते बाकी तीन वर्ष का रहने देते। आप सब यह जानते हैं कि कोर्स में कोई बढोत्री नहीं हो रही है जैसे लॉ का कोर्स 5 साल का भी है और तीन साल का भी। तीन साल का कोर्स बीए के बाद और 5 साल का कोर्स 12वीं के बाद करना होता है। पांच साल वाले कोर्स में बीए के कोर्स की भी शिक्षा दी जाती है। इस प्रकार सरकार ने अमीरों को फायदा पहुंचाने के लिए गरीबों को परेशान कर दिया। इन्होंने एक काम और किया कि अब एमए पार्ट -1 की भी डिग्री मिला करेगी अर्थात आप एमए 1 करने के बाद नौकरी कर सकते हैं एमए पार्ट- 2 करने की आवश्यकता नहीं है। पर इससे फायदा क्या है अगर आपको डिग्री कालेज में लेक्चरर बनना है तो आपको एमए और पीएचडी तो करना ही होगा। और अगर सिविल सर्विसेस में बैठना है तो भी प्रत्याशी एमए करने के बाद ही प्रतियोगिता में प्रवेश करने का इक्छुक होता है।
अब आइये प्राइमरी और माध्यमिक शिक्षा के सुधार पर। इसमें इन्होंने 3 साल से बच्चों को स्कूल भेजने की व्यवस्था बनाई है। अभी तक इस पर विचार चल रहा था कि बच्चों को 5 वर्ष के पहले स्कूल न भेजा जाए क्योंकि उनके दिमाग पर स्ट्रेस बढ़ रहा है इसीलिए गांव में या सरकारी स्कूल में इन क्लासों को समाप्त कर दिया था।
जो लोग गांव के परिपेक्ष्य से आते हैं उनको याद होगा कि पूर्वांचल के गांव के स्कूलों में भी गोबरहिया गोल, छोटी, गोल और बड़ी गोल होती थी फिर बच्चा पहली क्लास में आता था। पश्चमी क्षेत्र के गावों के स्कूलों में भी ऐसी ही व्यवस्था थी उनको क्या कहते थे इसका ज्ञान मुझे नहीं है।शहर में तो आज भी प्ले स्कूल नर्सरी और के जी है उसके बाद पहली क्लास आती है। सरकार इसे हटाने की व्यवस्था करने पर विचार कर रही थी पर अब सरकार ने इस पर आधिकारिक मुहर लगा दी। इन्होंने यह फैसला किया कि अब तीसरी, पांचवी और आठवीं क्लास में परीक्षाएं होंगी। दसवीं और बारहवीं में बोर्ड परीक्षाओं को हटा कर सेमिस्टर सिस्टम किया गया है। आप भली भांति जानते हैं कि हमारे देश में शिक्षा व्यवस्था की एक प्रणाली वर्षो से चली आ रही है जिसमें छात्र और अभिभावक रम गए हैं ।
इस नई प्रणाली से होगा यह कि अभिभावक परीक्षा न होने से थोड़े गम्भीर कम हो जाएंगे । वह सोचेंगे जब परीक्षा होंगी तब देख लेंगे और होगा यह कि बच्चों की नींव कमज़ोर हो जाएगी। अब आप देखिये इन्होंने पांच वर्ष का कार्यक्रम प्रारम्भिक शिक्षा का रखा है वह है तीन वर्ष प्राइमरी प्लस पहली और दूसरी। उसका क्या निष्कर्ष इन्हें प्राप्त होगा उसकी कोई परीक्षा का कोई प्राविधान नहीं है तो बच्चे की प्रारम्भिक नींव क्या पड़ी उसका कोई आकलन ही नहीं हो पायेगा।
एक और बात इसमें यह है कि यदि इंटर कालेज में 3 हज़ार से कम बच्चे होंगे तो तीन साल में उस कालेज की मान्यता समाप्त हो जाएगी। इससे बेरोज़गारी बढ़ेगी और स्कूल संस्थाओं की मनमानी होगी। यदि बच्चा कमज़ोर हुआ और ,स्कूल ने दाखिला लेने से मना कर दिया तो उसे दूसरे स्कूल में जाना पड़ेगा जो उसके घर से दूर होगा। होना यह चाहिये की स्कूल अधिक से अधिक खुलें और बच्चे कम संख्या में हों तो शिक्षक बच्चों पर अधिक ध्यान दे पाएंगे। अब तीन हज़ार बच्चे अगर एक स्कूल में होंगे तो स्कूलों के संस्थान अधिक बच्चों को एक सेक्शन में रखना शुरू कर देंगे और बच्चों पर ध्यान इस प्रकार शिक्षकों का कम हो जाएगा। इन्होंने शिक्षा को रोजगारपरक बनाने की कोशिश की है पर जब रोज़गार देश में होंगे तभी इस शिक्षा का महत्व होगा। इन्होंने इसके पीछे उद्देध्य यह रखा है कि बच्चे ट्रेंड होकर विदेशों में भी रोज़गार पा सकेंगे। लेकिन इन्होंने प्राइमरी स्कूलों को मातृभाषा में शिक्षा देने का प्राविधान किया है। और इसे मिडिल स्कूल अर्थात आठवीं तक बढाने का भी अनुमोदन कर रखा है। फिर जब इंग्लिश और विदेशी भाषाओं का इनको ज्ञान ही नहीं रहेगा तो यह विदेशों में नौकरी कैसे कर सकेंगे क्योंकि कौशल केंद्रों पर शिक्षा ग्रहण करने के लिये विदेशी भाषा या अंग्रेज़ी सीखने का प्राविधान ही नहीं है? कुल मिलाकर इस नीति से हम अपनी योग्यता की छवि को दुनिया में कम कर देंगे जिसकी हमने धूम मचा रखी थी। जो गरीब मेधावी छात्र सरकारी अनुदानों के चलते भारत का नाम दुनिया में रोशन कर रहे थे वह लगभग समाप्त हो जाएगा। सरकार को शिक्षा, स्वास्थ, सुरक्षा और भोजन अपने नियंत्रण में सदैव रखना चाहिए तभी देश का विकास होगा। निजीकरण से शिक्षा जगत में कोई अभूतपूर्व परिवर्तन होगा इसमे मुझे सन्देह है।
ओंकार नाथ सिंह
पूर्व महासचिव एवं प्रवक्ता
उत्तर प्रदेश कांग्रेस
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