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इतिहास का यह शाश्वत सत्य है कि हम परिवर्तन का परिणाम तभी  देख पाते हैं जब उसकी प्रक्रिया समाप्त हो जाती है। प्रारंभ के नीचे पता नहीं कितने प्रारंभ छिपे रहते हैं। और अंत हो जाना किसी चीज का खत्म हो जाना नहीं होता। आजादी के आंदोलन के दौरान ‘इंकलाब जिंदाबाद’ को किसी मंत्र की तरह जपते क्रांतिकारी हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गए ताकि गुलाम देश आजाद हो सके। देश आजाद हुआ मगर सही मायने में ‘इंकलाब’ नहीं आया। वह सुबह नहीं हुई जिसका इंतजार था। उसी न होने वाली सुबह का सपना दिखाकर आजाद देश के सियासतदां ने जनता को बार-बार नए तरीके और नए नारों से छला। हार न मानने वाली जनता बदलाव की आस में छलनी दिल लिए बार-बार अपने ‘नायकों’ पर भरोसा करने को अभिशप्त रही। इंदिरा के गरीबी हटाओ, जेपी के संपूर्ण क्रांति, आडवाणी के राममंदिर, नक्सली आंदोलन, आरक्षण आंदोलन से लेकर अन्ना हजारे आंदोलन। किसी न किसी सपने से जुड़े इन आंदोलनों का नतीजा अमूमन शिफर ही रहा है। सामाजिक-राजनीतिक बदलाव के लक्ष्य को लेकर चले देश के विभिन्न आंदोलन क्यों वह सुबह नहीं ला पाए जिसका इंतजार अब तक है,  ‘दि संडे पोस्ट’ के इस विशेषांक में इन्हीं सवालों से जूझने की विनम्र कोशिश की गई है

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