सूर्यकांत पांडेय
अशफ़ाक़ की 120वें जन्मदिन पर विशेष
अगर हिंदुस्तान आज़ाद हो और बजाय गोरे आकाओं के हमारे वतनी भाई सल्तनत व हुकूमत की बागडोर अपने हाथ में लें और तफ़रीक़ो तमीज, गरीब और अमीर, जमींदार व काश्तकार में रहें , तो ऐ खुदा मुझे ऐसी आज़ादी उस वक़्त तक न देना, जब तक मुल्क में मसावात क़ायम न हो जाये। अगर मेरे इन ख़यालात से मुझको इस्तिराकी (कम्युनिस्ट) समझा जाय तो मुझको इसकी फ़िक्र नहीं है। मै हिंदुस्तान की ऐसी आज़ादी का ख्वाहिशमंद था, जिसमें गरीब खुश और सब आराम से रहते और सब बराबर होते। खुदा मेरे बाद वह दिन जल्द लाये, ताकि छतरमंजिल लखनऊ में अब्दुल्ला मिस्त्री लोको वर्कशाप और धनिया चमार, किसान भी मिस्टर खलीकुज्जमा और जगत नारायण मुल्ला, व राजा साहब महमूदाबाद के सामने कुर्सी पर बैठे नज़र आये। 93 साल पहले यानि 19 दिसंबर 1927 को फांसी पर चढ़ने से पहले 22 अक्टूबर 1900 में जन्मे अशफ़ाक़ उल्ला खां के ये विचार थे।
अशफ़ाक़ उल्लाह खां चार भाइयों में सबसे छोटे थे। वह किशोरावस्था में हसरत के तखल्लुस यानि उपनाम से शायरी किया करते थे। पर घर में जब भी शायरी की बात चलती थी, तो उनके बड़े भाई लगातार राम प्रसाद बिस्मिल का जिक्र किया करते थे। इन्ही किस्सों के चलते अशफ़ाक़ बिस्मिल के दीवाने या फैन हो गये। इसी वक्त बिस्मिल का नाम जोरों-खरोस से मैनपुरी कांड में आना शुरू हो गया। इससे अशफ़ाक़ बिस्मिल से मिलने के लिए बेचैन होने लगे और उन्होंने ठान लिया कि बिस्मिल से मुझे मिलना ही है। आखिरकार उनकी दोस्ती बड़े भाई के जरिये बिस्मिल से हो ही गयी।
इसी समय जब गाँधी जी का असहयोग आंदोलन अपने जोरों पर था और शाहजहाँ पुर की एक मीटिंग में भाषण देने बिस्मिल को आना था, जब अशफ़ाक़ को यह पता चला तो उनसे मिलने वह पहुंच गए और जैसे ही कार्यक्रम ख़त्म हुआ, वो बिस्मिल के पास गए और अपना परिचय दिया कि मैं वारसी और हसरत के नाम से शायरी करता हूँ। बिस्मिल की थोड़ी रुचि बढ़ी और उनको साथ ले आये और उनके कुछ शेर सुने जो उनको पसंद आये। इसी के बाद दोनों अक्सर साथ दिखने लगे और एक साथ आने जाने लगे।
काकोरी एक्शन के हीरो अशफ़ाक़ उल्लाह खां ने दोस्ती की जो मिसाल क़ायम की वह आज भी बेमिसाल है। भारतीय एकता व अखण्डता में दूसरी कोई ऐसा उदहारण नहीं है। कई क्रांतिकारियों के नाम जोड़े से लिए जाते हैं जैसे भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु, लेकिन जो बेमिसाल जोड़ा है वह बिस्मिल और अशफ़ाक़ का ही कहा जा सकता है, जिसे दुनिया के सांप्रदायिक इतिहास का अब तक सबसे बेहतरीन उदाहरण कहा जा सकता है। भारत की आज़ादी की लड़ाई में हिन्दू मुस्लिम एकता का इससे अच्छा प्रतिमान नहीं है।
यह बात पूरे अक़ीदे के साथ कही जा सकती है कि प्लासी के 1757 के युद्ध से लेकर 1925 में काकोरी एक्शन तक आज़ादी की लड़ाई में किसी प्रकार का कोई वैचारिक एजेंडा नहीं था, कोई सपना नहीं था, सब कुछ एक प्रकार का प्रतिक्रियावाद था। सपने बुनने का काम, आज़ाद भारत की परिकल्पना का काम एचआरए के नौजवान क्रांतिकारियों ने शुरू किया। उन्होंने ही रेवोलुशनरी नामक अंग्रेजी का परचा जारी किया, जिसमे स्पष्ट किया गया कि उनकी जंग किस बात के लिए है। और यह जान-बूझ के अंग्रेजी में परचा जारी किया गया, जिससे अंग्रेज भी समझ सकें कि वह क्यों उनके खिलाफ हैं।
उनके पत्र जो इस बात को स्पष्ट करते हैं कि उनके जज़्बात क्या थे और वतन के लिए क्या सोचते थे और जो सोचते थे उसे कर गुजरते थे, छोटे भाई रफ़ी खान के जरिये शहीद अशफ़ाक़ ने जो आखिरी खत अज जिन्दान फैजाबाद, फाँसी की कोठरी से 15 दिसम्बर, 1927 को अपनी माँ को लिखा था, उसके कुछ अंश काफी होंगे।
फना है सबके लिए हमपे कुछ नहीं मौकूफ ,
बका है एक फकत जाते किब्रियाँ के लिए।
आप भी बखूबी वाकिफ है और तालीमयाफ्ता है मगर यह जरूर है कि बूढी सिनरसीदा दुखिया माँ के लिए यह सदमा जरुर बड़ा है कि उनका जवान बेटा नामुराद दुनिया से उठ जाए और वह उसकी लाश पर दो आँसू भी न डाल सके या उसकी मरी हुई सूरत देख सके। मगर यह तो बताओ यह हुकम किसका है? क्या दुनिया के किसी इंसान का हुकम है? क्या कोई मुझे उसके हुकम के बिला मार सकता है? उसने रोजेअजलसे ऐसा ही लिखा था कि अशफाक तुझको फाँसी पर मरना है और जब तू मरेगा तो कोई तेरे आइज्जा व अकरुबा (रिश्तेदार) व अहबाब में से न होगा। पस हुकम खुदाबन्दी पूरा होकर रहेगा और ऐसा होता चला आया है। मैं यह लिख देना चाहता हूँ कि मैं बइत्मीनान और पुरसकुन (शान्ति से) मौत मर रहा हूँ। हुक्मे खुदा ऐसा ही था और वह अटल है , होकर रहेगा। मौत सबके लिए है और सब मरेंगे।
मैं खूब जानता हूँ कि आप सोचेंगी कि मैंने अपनी करतूतों से पका बुढ़ापा खराब किया और भाइयों और दीगर अइज्जा की जिंदगी दुःख की जिंदगी बना दी। मैंने क्या या? मैंने कुछ नहीं किया। उसका हुकम रोजेअजल से ऐसा ही था, सो होकर रहा। जो बात होने वाली होती है असबाब उसके पेश्तर से होना शुरू होते और असबाब जब पाय-ए-तकमील को पहुंच जाते हैं बात पूरी हो जाती है। पस मेरे लिए यह मौत और यह दिन था सो मुझे इला। और तुम्हारे लिए दुःख, बुढ़ापे का धक्का और सिनाकोबी लिखी थी वह तुम्हें मिल रही है। जो जिसके लिए उसने मुनासिब समझा वह उसे तकसीम कर दिया। पस कौन है जो शिकवा करे और लब शिकायत के वास्ते खोले —
हम रजाकार है हम पर है बहरहाल यह फर्ज ,
शुक्रे हक लब पे रहे शिकवय आदा न करे।
मान ले फैसलाए दोस्त को बेचुनोचरा,
फिकरे इमरोज ही रखे , गमे फर्दा न करे।
भाइयो! तुमने इन्तहाई की कोशिश की मगर खुदा का हुकम टाले नहीं टलता और पूरा होकर रहेगा। तुम भी मजबूर हो रहे हो। सब्र – शुक्र करो। खुदा की मरजी ही यह है। मैं बताये देता हूँ कि मैं एक पुरसकुन मौत मर रहा हूँ। मैं नहीं कह सकता कि कौन ख्याल मुझे मस्त व खुश बनाये हुए है। दिल अन्दर से फुला चला आता है। मुझे कतई ख्याल ही नहीं गुजरता कि मुझे फाँसी दी जायेगी। मरेंगे तो सभी कुछ, मैं ही नहीं मर रहा हूँ। तुम खुदा पर नजर रखो और बजाए रोने – धोने के मेरे ईसाले सवाब में लगे रहना कि वहाँ काम आए। अब ज्यादा क्या लिखूँ? खुदा तुम सबको सब्रजमील अता फरमाए और मुझ गुनाहगार को जवारे रहमत में जगह दे।
ऐसे थे हमारे शहीद-ए-आज़म अशफ़ाक़! उनका और उनके साथियों का उद्देश्य सिर्फ हिंदुस्तान को अंग्रेजों से आज़ाद करवाने का नहीं था, बल्कि हर एक ऐसी चीज से आज़ाद करवाना था, जो शोषण और असमानता का कारण हो। लेकिन यदि वो आज आज़ाद हिंदुस्तान देख सकते तो शायद कदापि खुश न होते। हर तरफ लूट-मार, अन्याय और भ्रष्टाचार! और साथ ही शहीदों के विचारों और सपनों का नीतिगत और सांस्थानिक तौर पर दमन। सरकारों द्वारा शहीदों, उनके विचारों व उनके परिजनों की उपेक्षा कोई नई बात नहीं है। अनेक महान क्रांतिकारियों को इसी देश में आज़ादी की लड़ाई के बाद सड़को की धूल फांकनी पड़ी। लेकिन भाजपा शासन में यह अपने चरम पर पहुंच गया है, इसी का नतीजा है कि आज अशफ़ाक़ के स्मारक को जनता के लिए बंद कर दिया गया है। वहां कोई जा नहीं सकता, श्रद्धांजलि नहीं अर्पित कर सकता। जिन अशफ़ाक़ ने अपना जीवन आज़ादी के लिए लड़ते-लड़ते कुर्बान कर दिया, उन्हीं अशफ़ाक़ को आज हमारी सरकार ने आज़ाद हिंदुस्तान में एक बार फिर से कैद करके रख दिया है।
(लेखक अशफ़ाक़ उल्ला खां मेमोरियल शहीद शोध संस्थान के प्रबंध निदेशक हैं)