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The Sunday Post Special

अपने रचना संसार में जीवित रहेंगे प्रेम भारद्वाज

मृत्यु सबसे बड़ा सत्य है। जाना सबने है, लेकिन किसी इंसान का समय से पहले चले जाना बहुत पीड़ादायक होता है। प्रेम भारद्वाज जी के साथ ‘दि संडे पोस्ट’ में एक दशक से ज्यादा समय तक काम किया। इस दौरान के बहुत से ऐसे अनुभव हैं, बहुत सी ऐसी यादें हैं, जो जीवन भर याद रहेंगी। सचमुच बहुत ही व्यवहारकुशल थे भारद्वाज भाई साहब। जब कभी भी ‘दि संडे पोस्ट’ के किसी अंक या विशेषांक को छूटने में ज्यादा समय लगा, तो उन्होंने हमेशा इस बात का ध्यान रखा कि अब देर रात में जाने के लिए कोई सुविधा मिलनी मुश्किल है, साथी भला कैसे घर जाएंगे। ऐसे मौकों पर उन्होंने अपने रोज के रूट से घर जाने के बजाए मुझे और साथी जनार्दन को छोड़ने के लिए हमारे पटपड़गंज वाले रूट से होकर घर जाना उचित समझा। कई बार मैंने उनसे कहा भी कि भाई साहब आप अपने रूट से चले जाएं, हमें अभी वाहन सुविधा मिलने की पूरी गुंजाइश है, तो इस पर भी वे नहीं मानते थे। कहते थे कि चलिए आगे सहारा तक तो बैठ ही जाइये और फिर अपने वाहन को हमारे रूट की दिशा में मोड़ देते थे।

वे एक अच्छे पत्रकार थे। खेल, सिनेमा, साहित्य राजनीति आदि तमाम विषयों पर कोई बात पूछते ही वे तत्काल बता देते थे कि यह फलां वर्ष की घटना है। गजब की याददाश्त थी उनकी। विषयों पर उनका गहन अध्ययन था। ‘दि संडे पोस्ट’ के खास आयोजन ‘टाॅक ऑन टेबल’ में शरीक होने वाली शख्सियतों को उनके तीखे सवालों से असहज होना पड़ता था। ‘दि संडे पोस्ट’ के विभिन्न विषयों पर जो विशेषांक निकले उनमें उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। पत्रकारिता की कई नई प्रतिभाओं को भी उनका मार्गदर्शन मिला। लंबे समय तक ‘दि संडे पोस्ट’ में उनका काॅलम ‘दिल्ली ऊंचा सुनती है’ काफी लोकप्रिय रहा। विषयों और खबरों को लेकर साथियों की किसी भी सहमति या असहमति को उन्होंने हमेशा बड़ी सहृदयता से लिया।

साहित्य जगत और साहित्यिक बिरादारी का मैं जीव नहीं हूं, लेकिन शाम के समय जब साथ चाय पीने जाते थे, तो वहां उनसे बातों-बातों में साहित्य जगत की कई जानकारियां हासिल हो जाती थी। साहित्य के प्रति मेरी उत्सुकता को देखते हुए वे कई बार मुझे खुद अपने साथ साहित्यिक कार्यक्रमों में ले गए। ‘पाखी परिचर्चा’ को लेकर पहले ही बता देते थे कि उसमें मौजूदा रहना है। साहित्यिक बिरादरी में उनकी अच्छी पहचान थी। वे एक अच्छे स्रोता भी थे। जो जानकारियां हमारे पास होती थी, उन्हें भी बड़ी गंभीरता से सुनते थे।

साहित्य के प्रति उनके समर्पण और निष्ठा का मैं कायल रहा हूं। मयूर विहार फेस-3 में किराए के उनके घर आना-जाना होता था तो देखता था कि घर में कैसे साहित्यिक कृतियों का भंडार सजा रखा है। सुबह ऑफिस आते और शाम को ऑफिस से जाते वक्त उनके हाथ में हर दिन मैंने किताबें ही देखीं। मुझे कोई दिन ऐसा याद नहीं जब मैंने उनके हाथों में साहित्यिक किताबें न देखी हों। साहित्य के प्रति उनकी निष्ठा, दूसरे शब्दों में कहें तो उनकी ‘साहित्य साधना’ का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मृत्यु सामने खड़ी थी, लेकिन उनकी प्राथमिकता किसी किताब को पढ़ लेने की रही या फिर कुछ नया लिख देने की। कैंसर जैसी असाध्य बीमारी में भी वे साहित्यिक साधना करते रहे।

मैंने उनका जीवन एक ‘साहित्यिक साधु’ के तौर पर देखा है। यही वजह है कि पत्रकार से ज्यादा सम्मान उन्हें एक साहित्यकार के तौर पर दूंगा। उन्होंने बहुत सी रचनाएं की। उनके संपादकीय और कहानियों पर रंगमंच की दुनिया से जुड़े कलाकारों ने मंचन भी किए। आज प्रेम भाई बेशक चले गए, लेकिन वे अपने सृजन संसार में जीवित हैं। उनका सृजन उन्हें अच्छे साहित्यकारों में रखता है। कुछ समय पहले सर्दियों के मौसम में जब वे दिल्ली आए थे, तो तब मैं ‘दि संडे पोस्ट’ के प्रबंधक अमित के साथ उनसे मिलने गया था।

बड़ी आत्मीयता से उन्होंने हमारा हाल-चाल पूछा। पूछा कि बच्चे कौन-कौन सी  कक्षाओं में पढ़ रहे हैं। जब मैंने बताया कि ठीक पढ़ रहे हैं, तो उनके चेहरे पर चमक आ गई थी। अमित जी और मैंने उन्हें कहा भी कि इन दिनों दिल्ली में काफी प्रदूषण है। आपको ऐसे समय पर नहीं आना चाहिए था। इस पर उन्होंने कहा कि आप जैसे मित्रों का स्नेह यहां खींच लाया। एक रिटायर्ड आईएएस अधिकारी जो कि साहित्य में दिलचस्पी रखते हैं, वे भी उनका हाल लेने पहुंचे थे। प्रेम भाई के स्वास्थ्य में सुधार आ रहा था। मुझे लगा कि वे कैंसर को जीत लेंगे, लेकिन वे अनंत यात्रा पर चले गए। उनका यूं जाना खल रहा है।

प्रेम भारद्वाज का जन्म 25 अगस्त, 1965 को बिहार के जिला छपरा, गांव विक्रम कैतुका में हुआ था। प्राथमिक शिक्षा-दीक्षा गांव में ही हुई। चूंकि उनके पिता भारतीय सेना में थे और पिता का स्थानांतरण होता रहता था, इसलिए आगे की पढ़ाई देश के विभिन्न शहरों जैसे कि दार्जिलिंग, दिल्ली, इलाहाबाद, पटना, चंडीगढ़ आदि में हुई। पटना विश्वविद्यालय से उन्होंने हिंदी में एमए किया। साहित्यिक क्षेत्र में कुछ करने के अंकुर छात्र जीवन में ही फूट चुके थे। यही वजह है कि पिता की इच्छा के विपरीत जाकर उन्होंने पत्रकारिता और साहित्य को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया।

करीब दो दशक पहले पटना से पत्रकारिता में शानदार ढंग से पदार्पण किया। कई पत्र-पत्रिकाओं से जुड़े रहे। वर्ष 2001 में वे ‘दि संडे पोस्ट’ से जुड़े। करीब डेढ़ दशक तक इस पत्र के कार्यकारी संपादक का दायित्व निभाया। ‘दि संडे पोस्ट’ प्रकाशन समूह ने साहित्यिक पत्रिका ‘पाखी’ का प्रकाशन शुरू किया तो प्रेम भारद्वाज को पहले कार्यकारी संपादक और बाद में साहित्य के प्रति उनके समर्पण भाव को देखते हुए संपादक का दायित्व भी सौंपा गया। करीब एक दशक तक उन्होंने इस दायित्व को बखूबी निभाया। गंभीर विषयों पर उनके संपादकीय साहित्यिक बिरादारी में लोकप्रिय रहे। साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र के कई प्रतिष्ठित सम्मान भी उन्हें प्राप्त हुए।

प्रेम भारद्वाज का जीवन बेहद संघर्षपूर्ण रहा। धर्मपत्नी लता जी का खुद से पहले चले जाना उन्हें बेहद सालता रहा। कई बार वे कहते भी थे कि ‘यार मेरी ताकत तो लता जी ही थीं।’ पहले माता-पिता और फिर पत्नी के चले जाने का कष्ट उन्होंने झेला। फिर खुद कैंसर जैसे असाध्य रोग से ग्रसित हो गए। इसके बावजूद उन्होंने साहित्य साधना जारी रखी। ‘पाखी’ के बाद ‘भवन्ति’ के दो सफल अंक निकाले। प्रेम भारद्वाज जैसे जीवट रचनाकार का जाना वास्तव में साहित्य और पत्रकारिता जगत के लिए एक बहुत बड़ी क्षति है।

-दाताराम चमोली (कार्यकारी संपादक ‘दि संडे पोस्ट’)

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