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The Sunday Post Special

मृत्यु से भी भयानक मृत्यु का भय होता है

यह अटल सत्य है कि जीवन मरणधर्मा है| भारतीय दर्शन मे मृत्यु के स्थान पर मुक्ति का उल्लेख खूब मिलता है| मुक्ति देह व जग -जीवन से विश्राम की अवस्था का दूसरा नाम है|

आज के वर्तमान परिप्रेक्ष्य मे दो बातें बहुत सोचनीय हैं पहला, क्या कोरोना संक्रमण के चलते स्वाभाविक मृत्यु का स्तर न्यून हो जायेगा| दूसरा, क्या सार्स, प्लेग और अब कोरोना जैसी घातक महामारी की चपेट में लोग मौत के आगोश मे समाते चले चले जायेंगे?

भय एक ऐसा मनोविकार है कि जो आदमी से गलतियाँ करवाता है, जब भय मृत्यु का हो तो स्थिति और नाजुक हो जाती है|
इस वक्त इसी मृत्यु-भय के संत्रास से करीब आधी दुनिया ग्रसित है| यहाँ यह समझना जरूरी है कि व्यक्ति अपनी जीवनशैली को लेकर जितना अगंभीर हो गया है वही बड़ी चिंता की वजह है| कोरोना उसी मुगालते से चौकन्ना रहने की घंटी बजा रहा है|

वैश्विक पटल पर कोरोना की धमक से मृत्यु की गरिमा को चोट जैसे पहुंची है| आदमी के अदृश्य वायरस की चपेट मे आकर चटपट निकल लेने से आम से खास लोगों के जनजीवन में मौत का खौफ बुरी तरह घर कर गया है, जिसके फलस्वरूप मनुष्य की सहज प्रवृतियों के लगभग लोप के साथ मनुष्यता भी खतरे में पड़ गयी है| इस विपति में चाहकर भी लोग अपने स्वजन, परिजन और पुरजनों की मदद करने से घबरा रहे हैं|

यह जो मौत का खतरा और सोते – जागते उसका भय मन के अवचेतन में बरकरार है वह तो मौत से भी भयावह है| वि.स्वा.संगठन के पदाधिकारियों ने भारत सरकार के बचाव के लिए उठाये गये कदमों की सराहना की|

उसके हवाले से पता चला कि बाकी प्रभावित देशों की तुलना में भारत में कोरोना से मौत का अनुपात औसतन कम है|यहाँ यह भी गौर करने की जरूरत है कि इधर हाल के दिनों में सरकारी तंत्र की कमी व राजनीतिक नफे नुकसान को दृष्टिगत रखते हुए प्रवासियों को उनके मूल निवास तक पहुँचानें में कोताही की वजह से मरीजों की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ|

भारतीय धर्म सिद्धांत , जलवायु एवं आबोहवा की बदौलत यहाँ के निवासियों में, उनके व्यवहार में अनुकूलन की क्षमता जन्मजात है| तमाम लापरवाहियों के बावजूद देखने में यह आ रहा है कि उनकी इम्युनिटी पावर का ग्राफ काफी हद तक संतोषजनक है| ऐसे मे जरूरत सतर्क रहने की है,और अपने आसपास लोगों को सचेत रखने की ज्यादा है|

मनोवैज्ञानिक भय जनित मनोरोगों की अलग ही व्याख्या करते हैं|उनके अनुसार हर मनुष्य अपना बहुत कुछ खोने के दबाव में सहमा हुआ है, अंदर से भयभीत है| क्रोध मूलत: इसी भय की अवस्था की परिणति है, और मृत्यु पराकाष्ठा| मृत्यु (मुक्ति)के भय से प्राणीमात्र में ऊर्जा भरने हेतु शास्त्रों मे ‘जिवैषणा’ जैसे अर्थसम्पन्न शब्द प्रयुक्त हुए|

हर आदमी इसी फितरतमें जीता है कि थोड़ा और खिंच जाये जीवन| यह अभिलाषा बुरी नहीं|वस्तुत: जन्म के समान ही मृत्यु अकाट्य है परंतु उसकी आठो याम चिंता करना मूर्खता ही नहीं आत्मघाती भी है| शव मृत्यु की साकार उपस्थिति है|

शवदाह को श्मशान लेकर जाते वक्त व्यक्ति के मन में बैराग भाव जाग उठता है, परंतु यह क्षणिक है| वापस लौटते ही माया ,मोह, अहंकार, ईर्ष्या, लोभ अपना काम फिर शुरू कर देते हैं|बारीकी से देखा जाये तो ये भाव एक तरह से मृत्यु के ही प्रछन्न रूप हैं, जिसमें उलझा रहकर व्यक्ति मृत्यु से खुद को दूर ले जाने का यत्न करता है|

आपदा के विभिन्न रूपों यथा बाढ़, तूफान, आकाशीय बिजली का गिरना, भूकम्प व रोगजनित महामारी से उत्पन्न भय मूलत: मृत्यु-भय ही है|
आज के परिदृश्य में कोविड-19 के संक्रमण से मृत्यु सुनिश्चित मानना असल में भय की व्याप्ति है| इससे ठीक होकर अस्पतालो से बाहर निकलते लोगों पर फूल वर्षा व ताली बजाकर स्वागत किया जाना भूलना गलत होगा| जरूरत आत्मसंयम, जागरुकता, जीवनशैली में बदलाव व सकारात्मक चिन्तन को अमल में लाने का है, यह बुरा वक्त कटेगा हम सब की समझदारी और संयम से|

यहाँ भाग्यवादी होकर जो ‘भगवान करेंगे वही होगा’वह सूत्र तो पक्का ले डूबेगा|बल्कि मुट्ठी तान कर संकल्प लेने की आज जरुरत है कि कोरोना हारेगा, भारत जीतेगा|ध्यान रहे , हमेशा मौत से डरने वाला जीवन का लक्ष्य, सुख व भोग भोगने से वंचित रह जाता है, धरती पर बोझ बनकर जीना है या
धरती का प्रहरी बनकर रक्षा करना है यह चुनाव तो आपके ही हाथ में है|

इस लेख को लिखा है सन्तोष कुमार तिवारी ने। संतोष युवा कवि व लेखक हैं| समकालीन साहित्य व समाज पर आपकी गहरी पकड़ है| आपके दो काव्यसंग्रह छप चुके हैं|

सन्तोष कुमार तिवारी

मो.09412759081

santoshtiwari913@gmail.com

 

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