प्रोफेसर दिनेश सिंह दुनिया के गणितज्ञों में एक जाना-पहचाना नाम हैं। वे दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति रहे हैं। उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान शिक्षा पद्धति को लेकर अभिनव प्रयोग किए। दुनिया में उनकी दूर-दृष्टि को पहचाना गया। प्रो. सिंह अमेरिका के ह्यूस्टन विश्वविद्यालय में अमेरिट्स प्रोफेसर भी हैं। भारत की शिक्षा से संबधित विभिन्न आयामों पर उनसे कुमार गुंजन की विशेष बातचीत के मुख्य अंशः
स्वतंत्रता के बाद भारत की शिक्षा नीति को आप कैसे देखते हैं, कमियां कहां रहीं, जिसकी वजह से हम शिक्षा के क्षेत्र में अपेक्षानुसार तरक्की नहीं कर पाए?
देखिए, जहां तक मैं समझ पाया हूं, स्वधीनता के बाद जो संस्थाएं चल रही थी, उनमें कोई ज्यादा दिक्कत नहीं थी। संस्थाएं ठीक चल रही थी। इनमें बाद के दिनों में दिक्कतें आई, क्योंकि यह संख्या में ज्यादा नहीं थी। भारत की आवश्यकता इनसे पूरी नहीं हो सकती थी। भूल हमसे संस्थानों को उनकी गुणवत्ता के साथ बरकरार रखने में भी हुई। जैसे बीएचयू को ही लीजिए, मालवीय जी ने कितने ऊंचे सिद्धांतों के साथ उसकी नींव रखी थी। उसके कृषि विभाग को ही देखिए, कितने बेहतरीन शोध उस विभाग में हुए। समय के साथ उसे और बेहतर होना चाहिए, पर ऐसा नहीं दिखता। इसके पीछे की एक वजह पाठ्यक्रम में हाथों का प्रयोग न होना और इसे समय के साथ न बदला जाना है। इससे हम बाद के समय में उतना बेहतर नहीं कर सके, जितना हमें करना चाहिए था।
पाठ्यक्रम में औपचारिक और अनौपचारिक शिक्षा का क्या महत्व है?
मेरा मानना है, भारत का समाज जिन चुनौतियों से जुड़ा है, उन चुनौतियों से पाठ्यक्रम को भी जोड़ना चाहिए, जबकि हमारे पाठ्यक्रम उसी पुरानी पद्धति में दबे हुए हैं। जैसे मैं एक उदाहरण देता हूं, गणित पढ़ाने का है। पुराने समय में भी ब्लैक बोर्ड, चॉक और टेक्स्ट बुक से पढ़ाया जाता था और आज भी। मुझे अभी तक कोई भी भारत में ऐसा विश्वविद्यालय नहीं मिला, जहां शिक्षक बच्चे से पूछें कि जो यह गणित पढ़ाया जाता है, वह कहां लागू होगा? जिससे समाज और मनुष्य प्रजाति का हित हो सके। हम यहां औपचारिक रूप से तो गणित की शिक्षा देते हैं, परंतु उसका समाज में क्या और कैसे उपयोग करना है, बच्चों को कुछ पता ही नहीं है। जैसे एक विषय गणित में फ्लुईड डायनामिक्स है। मुझे और मुझसे पहले भी यह खूब पढ़ाया गया। 70 वर्षों में उसे पढ़ाने की पद्धति में कोई अंतर नहीं आया। फ्लुईड डायनामिक्स के आधार पर ही हवाई जहाज के कई हिस्सों का निर्माण होता है। कोई भी फ्लुईड डायनामिक्स का मुझे छात्र नहीं मिला जो यह बता सके कि यह जो पढ़ा है, इसे इस तरह से उपयोग कर सकते हैं। उसको मालूम ही नहीं। उसको ब्लैक बोर्ड पर एक तरीके से समझाते, रटाते हुए परीक्षा पास करा देते हैं। मेरे कहने का अर्थ यह है कि ज्ञान, विज्ञान जब तक समाज के साथ नहीं जुड़ेगा, तब तक उसके पढ़ने का उपयोग नहीं किया जा सकता। गांधी जी कहते थे, शिक्षा के संदर्भ में जब तक हाथों का प्रयोग नहीं आएगा, तब तक वह ग्रहण नहीं होगा।
क्या शिक्षा भारतीय अर्थव्यवस्था से जुड़कर रोजगार सृजन कर सकती है?
बहुत सही सवाल है। मैंने पहले भी कहा है कि भारत में वर्तमान में ‘नॉलेज इकोनॉमी’ नहीं है। इसीलिए अर्थव्यवस्था डांवाडोल रहती है। हम उसको मजबूती से नहीं उठा पाते। इस बात को हम ठीक से समझ नहीं सके, जबकि आप भारत के इतिहास में झांकें तो आपको पता चलेगा कि हमारी अर्थव्यवस्था ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था थी। इसीलिए भारत सोने की चिड़िया कहलाता था। एंगस मेडिसन एक इतिहासकार हुए हैं, जिन्होंने विश्व के आर्थिक इतिहास को कई खंडों में लिखा है। अपनी पुस्तक ‘विश्व के आर्थिक इतिहास’ में वे आंकड़ों के आधार पर सिद्ध करते हैं कि 17वीं शताब्दी में भारत विश्व की अर्थव्यवस्था में सबसे अधिक भागीदारी रखता था। वह इसे आंकड़ों से सिद्ध करते हैं। इसका अर्थ यह है कि उस वक्त का ज्ञान समाज से जुड़ा हुआ था। हमारे यहां वुट्ज स्टील यूरोप जाता था। उसका इतना ज्यादा निर्यात था कि उससे भारी मात्रा में भारत में धन आता था। हमारे यहां वुट्ज स्टील की जो मेटलर्जी थी, वह उस समय में बहुत ही आधुनिक थी। इसको बनाने के लिए कक्षा की पढ़ाई से ज्यादा हाथों का प्रयोग था। मीमांसा की स्कूल ऑफ फिलॉसफी तो यही कहती है कि बिना कर्म के ज्ञान निरर्थक है। यह तो पुरानी व्यवस्था हुई। वर्तमान में एक उदाहरण देता हूं। अमेरिका के स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में 2011- 12 में एक अध्ययन हुआ, जिसके अनुसार देखा गया कि इस विश्वविद्यालय में जितने भी शोध अध्ययन हुए हैं, उनका समाज में क्या योगदान है? रिपोर्ट के अनुसार विश्वविद्यालय में हुए शोध एवं उसके परिणामस्वरूप 50 लाख से अधिक नौकरियां और वैश्विक स्तर पर तीन ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था का योगदान रहा।
आज के समय में शिक्षकों की गुणवत्ता पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं, इसे आप कैसे देखते हैं?
मेरा मानना है कि शिक्षा में टेक्नोलॉजी को लाना बहुत जरूरी है, क्योंकि तब आप गुरु बन जाते हैं। कुछ दिन पहले मैंने प्रयोग के तौर पर दिल्ली विश्वविद्यालय के 2 छात्रों को लिया। दोनों दिशाहीन थे। स्नातक के दौरान कुछ सीखा नहीं था। उनको मैंने बुलाया दोनों को एक-एक लैपटॉप उपलब्ध कराया। इंटरनेट से कनेक्ट कर दिया। गूगल में किस प्रकार से चीजें खोजी जाती हैं और माइक्रोसॉफ्ट एक्सल के बारे में मैंने थोड़ी जानकारी उन्हें दे दी। बाकी मैंने यूट्यूब और गूगल के आधार पर खोजकर सीखने को कहा। मैंने उनसे कहा कि कल आकर बताना कि जो मैंने थोड़ा बताया क्या वह हो सकता है कि नहीं। वे लड़के खोजते-खोजते एक्सल में इतने माहिर हो गए कि मुझसे कहीं आगे निकल गए। उन्होंने सब कुछ अपने से सीखा। हर वक्त जो हम अध्यापक ढूंढ़ रहे हैं कि कोई मिल जाए तो वह नहीं मिलेगा। हमें प्रौद्योगिकी को शिक्षा व्यवस्था में शामिल कर छात्र को उसकी रुचि के अनुसार आगे बढ़ने का मार्ग सुदृढ़ करना होगा।
शिक्षा में अध्यात्म को आप कैसे देखते हैं?
देखिए, मेरी अध्यात्म की परिभाषा ही कुछ अलग है। गांधी ने इसे बहुत अच्छी तरह से परिभाषित किया है। जिस चीज में तुम्हारी आस्था हो उस चीज को पकड़ लो। नास्तिक के लिए उसकी नास्तिकता ही उसका धर्म है। सचिन तेंदुलकर का धर्म क्रिकेट था। गांधी का धर्म सत्य की खोज। माइकल फराडे का धर्म विज्ञान था। रामानुजम का अध्यात्म गणित। उसी के आधार पर वे लोग आध्यात्मिक हो गए। इसके आगे न मैं अध्यात्म के बारे में सोचता हूं न मैं देखता हूं। जिस काम को करने में आपको सुकून मिले वही आपकी आध्यात्मिकता है।
नई शिक्षा नीति को लेकर आप कितने आश्वस्त हैं और इसे किस तरह देखते हैं?
सैद्धांतिक रूप से मैं किसी भी शिक्षा नीति के पक्ष में नहीं हूं। चाहे नई हो या पुरानी, क्योंकि इस तरह की शिक्षा नीति आपको एक सांचे में ढाल देती है। जिससे अगले कई सालों तक उसी दिशा में आपको चलना पड़ेगा। चाहे आपकी आवश्यकता बदल जाए, या समाज का स्तर बदल जाए। शिक्षा में ज्यादा विस्तार से सख्त नीति नहीं बननी चाहिए। मुझे नई शिक्षा नीति के बारे में उतनी गहराई से नहीं पता कि सरकार किस तरह और कितने विस्तार से इसे बना रही है। लेकिन जो पॉलिसी डाक्यूमेंट बना है, जिसके आधार पर वह शिक्षा को व्यवहारिक ज्ञान में ले आएंगे, उसमें कुछ अच्छी बातें हैं। कुछ इतनी अच्छी बातें नहीं हैं। उन्होंने कई चीजें जो हमने दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रयोग किए थे, उन सब को वहां रखा है। यह अच्छी बात है। चुनौती उसको ठीक से लागू करने में है। अगर हम उसको औपचारिक रूप से लागू कर देंगे तो वह औपचारिक ही रह जाएगा।
जामिया घटना को आप किस तरह देखते हैं?
इस पर मैं ज्यादा नहीं बोल सकता। अब तो और नहीं, क्योंकि पिछले दिनों कई वीडियो सार्वजनिक हुए हैं। उनमें कौन सत्य और कौन गलत, इसका पता जांच के बाद ही चलेगा। वहां के छात्रों का कुछ कहना है और पुलिस का कुछ और। इसलिए जांच आने दीजिए।
जेएनयू विवाद क्या छात्रों के लिए सही है?
वहां का विवाद फीस बढ़ोतरी को लेकर है। इसे दोनों पक्ष, छात्र और प्रशासन को बैठकर हल कर लेना चाहिए। वहां इतना विवाद बढ़ने का कोई कारण नहीं था।
देश के एक विख्यात गणितज्ञ का निधन गरीबी में हो जाता है। इसे आप कैसे देखते हैं?
वह घटना बहुत दुखद है। ऐसे मामलों पर सरकार को तत्काल विचार करना चाहिए। हमें ज्ञान का आदर करना ही होगा। उसे अंतिम समय तक संभालना होगा।
-कुमार गुंजन