आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह भारतेन्दु हरिश्चंद्र की आज पुण्यतिथि है। हिन्दी साहित्य में आधुनिक काल का प्रारम्भ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से माना जाता है। वे हिंदी में आधुनिकता के पहले रचनाकार थे। इनका मूल नाम ‘हरिश्चन्द्र’ था। ‘भारतेन्दु’ (भारत का चंद्रमा) उनकी उपाधि थी। उन्होंने रीतिकाल की विकृत सामन्ती संस्कृति की पोषक वृत्तियों को छोड़कर स्वस्थ परम्परा की भूमि अपनाई और नवीनता के बीज बोए।
बनारस में दो ही तो हरीशचंद्र हुए। एक राजा हरीशचंद्र और दूसरे भारतेंदु हरीशचंद्र। भारतेंदु जी की ज़िंदगी मात्र 34 साल, 3 महीने की रही। इतने कम समय में भी उन्होंने हिन्दी को जीने के लिए कई सदियां दे दीं। कुछ कमाल के नाटक लिखे। भारत दुर्दशा, नील देवी, अंधेर नगरी, विषस्य विषमौशधम, प्रेम जोगिनी। निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल उन्हीं का कहा हुआ है जिसका मतलब भाषा के विकास से ही विकास के सारे रास्ते खुल सकते हैं। मगर अब तो प्रगति, उन्नति और तरक्की सब विकास में समाहित हो चुके हैं।
आज जो आप हिन्दी कहानी कविता पढ़ते हैं, इसकी बुनियाद भारतेंदु हरिश्चंद ने रखी थी। पत्रकारिता के ज़रिए समाज को बदलने का सपना, बराबरी के लिए हक़ मांगती स्त्रियां, ये सब भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपने छोटे से जीवन में हमें दिया है। भारतीय नवजागरण के अग्रदूत के रूप में प्रसिद्ध भारतेन्दु जी ने देश की गरीबी, पराधीनता, शासकों के अमानवीय शोषण का चित्रण को ही अपने साहित्य का लक्ष्य बनाया। हिन्दी को राष्ट्र-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने की दिशा में उन्होंने अपनी प्रतिभा का उपयोग किया। उन्होंने ‘हरिश्चंद्र चन्द्रिका’,’कविवचनसुधा’ और ‘बाला बोधिनी’ पत्रिकाओं का संपादन भी किया।
भारतेंदु जी ने लगभग सभी रसों में कविता की है। शृंगार और शान्त रसों की प्रधानता है। शृंगार के दोनों पक्षों का भारतेंदु जी ने सुंदर वर्णन किया है। उनके काव्य में हास्य रस की भी उत्कृष्ट योजना मिलती है | भारतेन्दु की वैश्विक चेतना भी अत्यन्त प्रखर थी। उन्हें अच्छी तरह पता था कि विश्व के कौन से देश कैसे और कितनी उन्नति कर रहे हैं। इसलिए उन्होने सन् 1884 में बलिया के दादरी मेले में ‘भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है’ पर अत्यन्त सारगर्भित भाषण दिया था।
यह लेख उनकी अत्यन्त प्रगतिशील सोच का परिचायक भी है। इसमें उन्होने लोगों से कुरीतियों और अंधविश्वासों को त्यागकर अच्छी-से-अच्छी शिक्षा प्राप्त करने, उद्योग-धंधों को विकसित करने, सहयोग एवं एकता पर बल देने तथा सभी क्षेत्रों में आत्मनिर्भर होने का आह्वान किया था। ददरी जैसे धार्मिक और लोक मेले के साहित्यिक मंच से भारतेंदु का यह उद्बोधन अगर देखा जाए तो आधुनिक भारतीय सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक चिंतन का प्रस्थानबिंदु है। बहुमुखी प्रतिभा के धनी भारतेन्दु नाटक और काव्य के अलावा कुछ ग़ज़ल भी लिखा है। उनकी एक मशहूर ग़ज़ल यहां दे रहे है:
बैठे जो शाम से तेरे दर पे सहर हुई
अफ़्सोस ऐ क़मर कि न मुतलक़ ख़बर हुईअरमान-ए-वस्ल यूँ ही रहा सो गए नसीब
जब आँख खुल गई तो यकायक सहर हुईदिल आशिक़ों के छिद गए तिरछी निगाह से
मिज़्गाँ की नोक-ए-दुश्मन-ए-जानी जिगर हुईपछताता हूँ कि आँख अबस तुम से लड़ गई
बर्छी हमारे हक़ में तुम्हारी नज़र हुईछानी कहाँ न ख़ाक न पाया कहीं तुम्हें
मिट्टी मिरी ख़राब अबस दर-ब-दर हुईध्यान आ गया जो शाम को उस ज़ुल्फ़ का ‘रसा’
उलझन में सारी रात हमारी बसर हुई