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The Sunday Post Special

लिवर प्रत्यारोपण की एक साहसिक गाथा

लिवर प्रत्यारोपण के अनुभव पर आधारित इस पुस्तक में दर्ज अनुभव पिथौरागढ़ से दिल्ली के इर्द-गिर्द के हैं। इसका मुख्य पात्र लेखक स्वयं है जो लीवर सिरोसिस से पीड़ित है, लेकिन उसके आस-पास विभिन्न पृष्ठभूमि के ऐसे दर्जनों लोग हैं जो इस कहानी को आकार देते हैं। सीधे-सपाट शब्दों में लिखी यह कथा है एक व्यक्ति के जीने की जिजीविषा की, कष्टों को भोगने की, सामाजिक यथार्थ व बदहाल आर्थिक हालातों की। कथा में सिर्फ पीड़ा, तकलीफ नहीं है बल्कि सामाजिक, पारिवारिक दायित्वों के निर्वहन का एक संकल्प व प्रतिबद्धता भी निहित है। यह कथा है जीवन व मौत के बीच जीवन को बचाने के संघर्ष की। बचे हुए जीवन को गुणवत्ता के साथ जीते हुए सामाजिक दायित्वों के निर्वहन की। यह कथा है बचे हुए जीवन के हर क्षण के उपयोग की। लेखक इसमें एक-एक क्षण का हिसाब लगाता है। उसकी आर्थिक कीमत को आंकता है और फिर पूरी प्रतिबद्धता से हर दिन उसे जीता है।

यह कथा है एक ऐसे जीवट व्यक्ति की, जिसकी अन्वेषणा उस ऑपरेशन थियेटर में भी जारी रहती है जहां उसका एक संवेदनशील ऑपरेशन होने जा रहा है लेकिन वह वहां लगी मशीनों, चिकित्सकीय उपकरणों व इसकी प्रक्रिया के बारे में जान लेना चाहता है, इस आशय के साथ की अब यहां दोबारा आने का मौका शायद ही मिले। जटिल स्थिति में भी वह उस नई दिल्ली स्थित अपोलो अस्पताल के सिस्टम के हर एक छोटी-बड़ी बात का अवलोकन कर सीखना व समझना उस समय भी जारी रखता है जब मौत उसके सामने खड़ी है। यह सब तब हो रहा होता है जब डाॅक्टर शरीर में पानी व नमक का सेवन पूरी तरह प्रतिबंधित कर चुके होते हैं। ऐसे समय में भी लेखक अपने सामाजिक दायित्वों के समन्वय में लगे रहते हैं। वह बाल विज्ञान कांग्रस में प्रतिभाग करते हैं। भतीजे की शादी में शामिल होते हैं। जबकि शरीर इस बात की कतई इजाजत नहीं दे रहा होता है। जीवन की अनिश्चिता के बीच कोई व्यक्ति इतना सक्रिय भला कैसे रह सकता है? यह उसी मनोबल की कहानी है।

लिवर प्रत्यारोपण, मेरे अनुभव
डाॅ. अशोक कुमार पंत
प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य: 400 रुपए

यह किताब एक ‘लिवर सिरोसिस’ बीमारी से पीड़ित व्यक्ति का मार्मिक लेकिन हौसले से भरा दस्तावेज है। जब शुरुआती दौर में डाक्टर बीमारी को पहचान नहीं पाते। अल्सर बताकर गलत इलाज कर देते हैं। मेडिकल प्रोटोकाल का उल्लंघन होता है। लेखक के शराब न पीने के बाद भी जिन पन्द्रह डाक्टरों के संपर्क में आता है वह उसे शराब न पीने की नसीहत देते हैं। बगैर बीमारी की तह तक पहुंचें ‘अल्सर’ बताकर उसका इलाज करते हैं। इस गलत इलाज के चलते उनके शरीर में ‘लिवर सिरोसिस’ का आक्रमण हो जाता है। जिसमें लेखक को शारीरिक, आर्थिक व मानसिक संकटों का सामना करना पड़ता है लेकिन इन सब के बीच वह न सिर्फ जीवन जीने की जिजीविषा दिखाते हैं, बल्कि बीमारी के दौरान भी व बीमारी के बाद भी अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों का निर्वहन करते हैं। पोस्ट लिवर ट्रांसप्लांट के बाद 15  सालों  तक लगातार एक अनुशासित जीवन जीकर समाज के समक्ष एक नजीर भी पेश करते हैं। ‘लिवर प्रत्यारोपण, मेरे अनुभव’ डाॅ. पंत के दो दशक के संघर्षपूर्ण जीवन का एक ऐसा आख्यान है जिसे पढ़ते हुए आप इसमें डूबने-उतरने को बाध्य हो जाते हैं। कभी-कभी आंखें भी नम हो उठती हैं। यह किताब चिकित्सा विज्ञान की नई तकनीक व खोजों के साथ ही पर्वतीय क्षेत्र में बदहाल चिकित्सा व्यवस्था व चिकित्सकों के चिकित्सकीय ज्ञान पर भी सवाल खड़े करती है। एक गलत इलाज कैसे व्यक्ति के जीवन को विसंगतिपूर्ण देता है। उसे आर्थिक, मानसिक व सामाजिक स्तर पर इसकी कितनी भारी कीमत चुकानी पड़ती है। यह इसी की एक मार्मिक दास्तान है। जिस व्यक्ति ने कभी सिगरेट, तम्बाकू को हाथ न लगाया हो, उसे बार-बार शराब न पीने की चेतावनी दी जाती रही। जो मरीज स्वयं विज्ञान लोकप्रियकरण व विज्ञान संचार को समर्पित रहा हो, उसे कैसे झांड़-फूक, देवी-देवताओं के हवाले करने की कोशिश होती रही, हालांकि यह लेखक के दृढ़ निश्चय व वैज्ञानिक सोच के चलते संभव नहीं हो पाई। किस तरह से एक 18 साल का युवा अपने पिता को हंसी-खुशी अपने लिवर का एक हिस्सा दान कर देता है। लिवर प्रत्यारोपण के बाद के शारीरिक पीड़ा को सह लेता है। किस तरह लेखक का परिवार साए की तरह उनके साथ दिन-रात लगा रहता है। कैसे उनके कई अभिन्न मित्र संकट के समय मुंह मोड़ लेते हैं।
यह पूरी किताब जहां एक तरफ चिकित्सकीय व उपचारात्मक त्रुटियों को रेखांकित करती है तो वहीं आधुनिक तकनीक व अंगदान के सफल प्रत्यारोपण की कहानी व इसके बाद एक बेहतर जीवन जीने के बारे में बताती है। यह अनुभव यह बताने में सफल रहा है कि अगर जिगर का टुकड़ा यानी लिवर जब रूठता है तो वह क्या-क्या सितम ढाता है। इसी जिगर के टुकड़े को मनाने में कितनी असहनीय पीड़ा पीड़ित व्यक्ति को उठानी पड़ती है। किस तरह दिल्ली के अपोलो अस्पताल में लिवर ट्रांसप्लांट सर्जन डाॅ. सुभाष गुप्ता ने लेखक को नवजीवन देकर ईश्वर की भूमिका निभाई। कैसे डाॅ. दिनेश कुमार सिंघल गुरू की भूमिका में रहे। कैसे लेखक की पत्नी ‘सावित्री’ बन गई। कैसे उनके एक किशोरावस्था से युवावस्था में पहुंचे लड़के ने ‘श्रवण कुमार’ की भूमिका निभाई। इसे बेहद रोचक तरीके से इसे पिरोया है। लेखक के एक-एक अनुभव, एक-एक विचार इस किताब में दर्ज हैं। यह उनके एक बेहतर लेखक होने का भी प्रमाण है। डाॅ. पंत ने जिंदगी हर कदम एक नई जंग है, इसे पूरी शिद्दत के साथ महसूस किया है।

लेखक डाॅ. अशोक कुमार पंत

अगर आप इस किताब को पढ़ रहे हैं तो आप जान पाएंगे कि कैसे किसी के जीवन की कहानी आपके लिए प्रेेरक बन सकती है। अगर आप किसी बीमारी से जूझ रहे हैं। बीमारी के कारण आपका आत्मविश्वास कम हो रहा है। आप अवसाद की तरफ बढ़ रहे हैं। जीवन से निराश हैं। आपको लगता है कि आपकी जिंदगी की डोर कहीं टूट रही है तो यह किताब आपके लिए रामबाण साबित हो सकती है। सचमुच में यह किताब पढ़ने वाले को भावविभोर कर देती है। पढ़ते हुए व्यक्ति की कई तरह की भावनाएं हिलोरे मारती हैं। यह एक ऐसी किताब है जिसे हर हाल में आप अपने पास रखना पंसद करेंगे। बार-बार इसमें उल्लेखित संदर्भों को पढ़ना चाहेंगे। कहते हैं कि अनुभव मुफ्त में नहीं मिलता, इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। यहां भी मौत व जीवन के संघर्ष में लेखक की जीवटता से जीवन जीतता तो है लेकिन एक बड़ी कीमत चुकाकर। पुस्तक पढ़ते हुए दो संदेश स्पष्ट होते हैं, पहला यह कि अपने स्वास्थ्य के प्रति व्यक्ति को जागरूक रहना जरूरी है। दूसरा यह कि अपने पूरे जीवन को बेहतरी के साथ गुणवत्ता से जीना चाहिए। यहां लेखक ने इसे करके भी दिखाया है। यही वजह है कि उन्हें अपने सामाजिक दायित्वों के लिए विज्ञान पुरोधा सम्मान, लिवर चैम्पियन जैसे सम्मानों से सम्मानित किया जा चुका है। ‘अपनी बात’ में लेखक डाॅ. पंत कहते हैं कि चिकित्सक द्वारा दी गई हिदायत, वैयक्तिक स्वच्छता, खान-पान का संयम व प्रदूषण से बचाव लिवर प्रत्यारोपित को दीर्घ जीवन प्रदान करने का मंत्र देती है। यह पुस्तक सात अध्यायों जिसमें प्रारम्भिक लक्षण और उपचारात्मक त्रुटियां, सिरोसिस का आक्रमण, चिंता और चिंतन, ऑपरेशन और एम.ओ.टी.यू., चांद से जमीन पर, कुछ उपलब्धियां, पोस्ट लिवर ट्रांसप्लांट-मेरी जीवनचर्या में विभक्त है। इसमें डाॅ. दिनेश कुमार सिंघल, डाॅ. सुभाष गुप्ता, डाॅ. मानव बधावन, डाॅ. डी.के.पांडे, उनके बड़े पुत्र देवाशीष पंत, छोटे पुत्र डाॅ. शिवाशीष पंत (जिन्होंने लिवर डोनेट किया था।) लेखक की बड़ी दीदी कमला पंत के महत्वपूर्ण संदेश के साथ ही प्राक्कथन में दून अस्पताल के डा. राकेश बलूनी ने तो स्वयं लेखक ने अपनी बात में संक्षेप में इस पुस्तक की भूमिका को उकेरा है।

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