वर्ष 1991 और 1996 में अविभाजित उत्तर प्रदेश के चकराता विधानसभा क्षेत्र से विधायक चुने गए मुन्ना सिंह चैहान वर्तमान में देहरादून जनपद की विकास नगर सीट से विधायक हैं। राज्य गठन के बाद वे 2007, 2017 और 2022 में विकासनगर से विधायक चुने गए। भारतीय जनता पार्टी के प्रमुख नेताओं में शुमार चैहान ने 1985 में गढ़वाल विश्वविद्यालय से भौतिकी में स्नातकोत्तर की डिग्री प्राप्त की। उनकी शैक्षणिक योग्यता ने उन्हें राजनीति में एक विचारशील और दूरदर्शी नेता के रूप में स्थापित किया है। मुन्ना सिंह चैहान से हमारे विशेष संवाददाता कृष्ण कुमार की बातचीत
गैरसैंण सत्र में आपने ओबीसी रैपिड सर्वे को लेकर गम्भीर सवाल उठाए थे। साथ ही प्रदेश में ओबीसी को लेकर भी कुछ बातें कही थी। क्या राज्य में ओबीसी सर्वे सही नहीं हुआ है?
रैपिड सर्वे को छोड़ दीजिए, वह मुद्दा तो चला गया। वह तो तात्कालिक मामला था जो लोकल बाॅडीज के इलेक्शन के मामले में था। ओबीसी का मामला लार्जर कंटेंस का है। रैपिड सर्वे किसका? ओबीसी का तो ओबीसी कौन? ओबीसी तो वही होगा न जो उत्तराखण्ड का निवासी होगा। तो अब बुनियादी सवाल यह है कि उत्तराखण्ड में ओबीसी, एससी या एसटी कौन है? मैं रीपिटिडली इस बात को कह रहा हूं कि जाति निर्धारण स्टेट इस्पेसिफिक मुद्दा है। कास्ट स्टेट इस्पेसिफिक है इसलिए मैंने विधानसभा में उदाहरण देते हुए दिया, नाम से कोई फर्क नहीं पड़ता। जैसे उत्तराखण्ड का अंसारी, यादव ओबीसी है लेकिन बिजनौर का अंसारी और आजमगढ़ का यादव उत्तराखण्ड का ओबीसी नहीं हो सकता। ये उत्तर प्रदेश के ही ओबीसी होंगे। सिर्फ अंसारी या यादव लिख देने से वह उत्तराखण्ड का ओबीसी हो जाएगा यह नहीं हो सकता। मैंने सेलाकुई नगर पंचायत की वोटर लिस्ट की वन टू वन चेकिंग करवाई। एक छोटी-सी नगर पंचायत जिसमें रैपिड सर्वे में ओबीसी 6 हजार बताया गया उस वोटर लिस्ट में 1993 ऐसे निकले जो उत्तराखण्ड के हैं ही नहीं। आलमोस्ट 30 प्रतिशत का आंकडा है जो बाहरी राज्यों के जैसे उत्तर प्रदेश या किसी दूसरे राज्य का ओबीसी हंै, को भी रैपिड सर्वे में उत्तराखण्ड का ओबीसी बता दिया गया। जाति सर्टिफिकेट के मामले में कोट्र्स की भी जजमेंट बहुत क्लियर है। एसटी के मामले में भी क्लियर जजमेंट है कि एक प्रदेश की अनुसचित जति का दूसरे प्रदेश की अनुसूचित जाति से कोई मतलब नहीं है।
तो क्या ओबीसी को लेकर सरकार उतावली थी। आपने जो सवाल उठाए थे उन पर क्या होमवर्क नहीं किया गया था और एकदम से आबीसी का रैपिड सर्वे करवा उसे निकाय चुनाव में लागू करवा दिया गया?
नहीं ऐसा नहीं है। न तो उतावलापन था और न ही आनन-फानन में किया गया। मसला होता है समझ का और इश्यू की गम्भीरता का। मैं फिर से आपको स्पष्ट कर दूं कि एससी-एसटी के मामले में बकायदा लिखा हुआ है, कांस्टयूशन ब्रैकिट में शेड्यूल कास्ट ऑर्डर 1950, कांस्टयूशन ब्रैकिट में शेड्यूल ट्राइब ऑर्डर 1950। जहां पर जो परिवार 26 जनवरी 1950 को निवास करता था वहीं का वह एससी-एसटी माना जाएगा। अब कोई कहेगा कि साहब मैं तो यहीं पैदा हुआ हूं तो मुझे तो यहां का ही एससी-एसटी का सिर्टिफिकेट मिलना चाहिए। लेकिन इसमें भी साफ मना किया गया है। जहां जो परिवार 26 जनवरी 1950 में निवास करता था भले ही वह बाद में किसी अन्य राज्य में माइग्रेशन करके चला गया लेकिन उसका और उसके परिवार का एससी-एसटी सर्टिफिकेट उसी मूल स्टेट से ही जारी होगा। यह पूरी तरह से क्लियर किया हुआ है।
प्रदेश में 70 विधायक हैं लेकिन आपके अलावा किसी अन्य विधायक ने इस गम्भीर मामले में सदन में कुछ नहीं बोला। आपने ही क्यों इस मामले को उठाया?
मैंने इस सवाल को क्यों उठाया? मैं इस बात को जानता था कि चुनाव एक पक्ष है, लेकिन इसके अनेकों पक्ष हैं। निकाय चुनाव से पहले ही प्रदेश में प्राथमिक शिक्षकों की भर्ती शुरू हुई तो इसमें एक बड़ा सवाल सामने आ गया। भर्ती होने वाले कुछ अभ्यर्थियों ने बीएलएड तो किया। उत्तर प्रदेश के ओबीसी सर्टिफिकेट के आधार पर लेकिन भर्ती होने लगे उत्तराखण्ड के ओबीसी सर्टिफिकेट के आधार पर। इस मामले के सामने आने पर कुछ लोग हाईकोर्ट चले गए। हाईकोर्ट से क्या निर्णय आया यह तो मुझे पता नहीं। जब मैंने इस मामले को सदन में उठाया तो पता नहीं कइयों को यह लगा कि मैं मैदान-पहाड़ी की बात कर रहा हूं। जबकि इस मामले में मेरे पास सबसे ज्यादा शिकायतें हरिद्वारा जिले के ही अभ्यर्थियों की आई हैं कि चैहान जी हमारा हक मारा गया है। हम लेजिस्लेटर हैं। पार्टी हमारी चाहे जो भी हो। हम जब कानून के निर्माण की बात करते हंै तो कानून के निर्माण का व्यापक प्रभाव समाज पर होता है। कानून रोज तो बनता नहीं। उसका दीर्घकालीन प्रभाव पड़ता है तो कानून मेकर के तौर पर हमें सब कुछ देखना पड़ता है। हम विधायक हैं, हम लाॅ मेकर हैं। विधान निर्माण में हम रूचि नहीं लेंगे तो कौन लेगा? आज यह स्थिति हो गई है कि मैं इस बात को कई बार कहता भी हूं कि विधायक सभी काम करते हैं, बस विधान निर्माण के काम में ही इंटरेस्ट नहीं लेते। इसीलिए मैं एक-एक प्वाइंट को पकड़ कर उसका अध्ययन करके अपनी बात रखता हूूं, चाहे सदन हो या कहीं और। आखिर यह मेरा संवैधानिक काम है।
आपने कहा कि एक व्यक्ति के एक से अधिक जाति प्रमाण पत्र नहीं मान्य हो सकते। लेकिन ऋषिकेश नगर निगम के मेयर पर आरोप है कि उनके द्वारा समय-समय पर तीन-तीन जाति प्रमाण पत्रांे का उपयोग अपने हितों के लिए किया है। क्या यह संविधान के खिलाफ नहीं है और क्या इससे प्रदेश के मूल निवासियों के हकांे पर चोट नहीं पड़ रही है?
इसकी मुझे जानकारी नहीं है। चुनाव विशेष पर मैं कोई बात नहीं कर सकता। मैं न तो इसे स्वीकार कर सकता हूं और न इसे अस्वीकार कर सकता हूं क्योंकि मुझे इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है। लेकिन मैं फिर कह रहा हूं कि ऐसा ही एक प्रकरण मेरे क्षेत्र की नगर पालिका हरबर्टपुर के चुनाव में भी आया है। नगर पालिका अध्यक्ष के उम्मीदवार के पास छत्तीसगढ़ का ओबीसी सर्टिफिकेट भी था और उत्तराखण्ड का भी। यह मामला हाईकोर्ट में गया, हाईकोर्ट ने अनुमति दे दी फिर मामला सुप्रीम कोर्ट में गया और सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी। मैं फिर कह रहा हूं कि मुझे इसकी जानकारी नहीं है लेकिन यह भी स्पष्ट है कि अगर आप कानून की जानकारी नहीं रखेंगे तो लोगों को आपस में लड़वाने और झगड़ा पैदा करने का ही काम करेंगे। होता क्या है कि कानून की जानकारी न होने से लोग गैर जिम्मेदाराना तर्क-वितर्क करने लगते हैं, उससे वैमनस्य होता है। मैं सौ पर्सेंट कह रहा हूं कि अलग-अलग राज्यों से जाति प्रमाण पत्र बन ही नहीं सकते। केवल दिल्ली ही एक मात्र राज्य है जिसको भारत सरकार और कोर्ट ने भी माना है कि दिल्ली भारत सरकार का आॅल इंडिया क्राइट एरिया है इसलिए वहां का निवासी किसी भी राज्य का हो उसको जातिगत लाभ दिल्ली में मिल सकता है लेकिन जाति सर्टिफिकेट उसके मूल प्रदेश से ही जारी होगा। उसे दिल्ली से कोई जाति प्रमाण पत्र जारी नहीं हो सकता। लेकिन वह दिल्ली में उसका हित ले सकता है। जबकि शेष अन्य राज्यों में स्थिति दिल्ली जैसी नहीं है।
प्रदेश में डोमोग्राफिक चेंज एक बहुत ही गम्भीर विषय है। उत्तराखण्ड एक बाॅर्डर एरिया स्टेट है। इसलिए यह राष्ट्रीय सुरक्षा का सबसे बड़ा विषय बन जाता है। आप देखिए जब भी भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध हुए तो सबसे ज्यादा प्रभावित बाॅर्डर एरिया के ही लोग हुए हैं। अभी ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के दौरान भी बाॅर्डर एरिया के ही लोग प्रभावित हुए हैं तो आप इसे नकार नहीं सकते। उत्तराखण्ड एक बाॅर्डर एरिया स्टेट है और इसकी प्रोफाइल अगर चेंज होती है तो हम अपने प्रदेश की ओरिजनलिटी ही खो देंगे। भाजपा सरकार यह जानती है कि प्रदेश में हमारी ही सरकार है फिर भी सरकार, विधायक, मुख्यमंत्री और सांसद भी डोमोग्राफिक प्रोफाइल पर बात कर इसे चर्चाओं में लेकर आए हैं। जब चर्चा में आया तब ज्ञात हुआ कि यह मामला तो अतिसंवेदनशील है। भाजपा के आने के बाद ही इस मुद्दे पर चर्चा हुई और सच सामने आया। पहले तो इस पर कोई बात तक नहीं करना चाहता था
नमो शुद्र जाति के मामले में तकनीकी तौर पर आपका वक्तव्य सही माना जा सकता है फिर ऐसा क्या हुआ कि आपको माफी मांगनी पड़ी?
मैं काहे को माफी मांगूगा भाई। मैंने उसको क्लियरिफाई किया कि किसी को समझने में दिक्कत है। मेरा उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का नहीं है। उनके सर्टिफिकेट में बकायदा पूर्वी पाकिस्तान से आए हुए लिखा गया है। इसका उन्होंने एतराज किया कि हमें पाकिस्तानी कहा जाता है, इसको हटा दिया जाए। तब भारत सरकार ने उत्तराखण्ड सरकार को कहा कि नमो शुद्र जाति के जाति सर्टिफिकेट से पूर्वी पाकिस्तानी शब्द हटा दिया जाए। मेरा संदर्भ सिर्फ यह था कि नमो शुद्र जाति पश्चिम बंगाल में शेड्यूल 10 चैप्टर नम्बर 19 में अनुसचित जाति में लिस्टेड है। तो तर्क यह दिया गया कि नमो शुद्र को उत्तर प्रदेश की अनुसूचति जाति में सम्मिलित किया जाए। लेकिन तब उत्तर प्रदेश में इसे खारिज कर दिया गया था। यह बात समझनी चाहिए कि तब उत्तराखण्ड उत्तर प्रदेश का ही हिस्सा था लेकिन उस समय भी नमो शुद्र को प्रदेश की अनुसूचित जाति में लिस्टेड नहीं किया गया था।
तो फिर नमो शुद्र जाति का विषय राजनीतिक विवाद क्यों बन गया। सरकार के मंत्री सौरभ बहुगुणा ने आपके खिलाफ कार्यवाही करने के लिए पत्र तक लिखा है?
यह तो मैं कैसे कह सकता हूं? मैं तब भी कह रहा था कि मेरा उद्देश्य किसी का अनादर करना या किसी के बोनाफाइट पर प्रश्नचिह्न खड़ा करना नहीं है। मैं इसका कानूनी पक्ष ही बता रहा हूं। किसी ने पत्र लिखा, क्यों लिखा मैं इस कंट्रोवर्सी में नहीं पड़ना चाहता हूं।
विधानसभा में प्रदेश हितों को लेकर गम्भीर चर्चा या बात नहीं होती है?
नहीं ऐसा नहीं है। सदन हमारे प्रदेश के मुद्दों पर बात करने के लिए ही है। मैं आपको स्पष्ट तौर पर बता दूं कि जब विधानसभा सत्र होता है और उसमें विधायक दल की बैठक होती है तो बकायदा भारतीय जनता पार्टी की
लीडरशिप अपने विधायकों को कहती है कि आपको हाउस के अंदर बहुत सजग रहना है। जनहित के सवालों पर आपको बहुत स्पष्टता के साथ अपनी बात रखनी है। पार्टी न सिर्फ सभी को प्रमोट करती है, बल्कि यहां तक किया जाता है कि जो भी नए सदस्य सदन में चुनकर आए हैं उनको गाइड करने को भी कहा जाता है। जीवन में हर एक व्यक्ति कहीं न कहीं से कुछ न कुछ सीखता है। मेरी जो दो पैसे की हैसियत पार्लियमेंटरी की बनी है जो आप समझते हैं उसमें सबसे बड़ा योगदान केसरीनाथ त्रिपाठी जी का है। जब मैंने पहली बार सदन में डिबेट की तो स्पीकर केसरीनाथ त्रिपाठी जी ने मुझे अपने चैम्बर में बुलाया और कहा मुन्ना सिंह जी आपके डिबेट में बहुत कंटेंट हैं। आप अच्छे डिबेटर हो सकते हैं। ‘यू कैन ए गुड पालिर्यामेंटरियन’ लेकिन आपकी जो प्रजेंटेशन है उसमें अभी चिल्लाहट है। आपको थोड़ा अपने वाईस मोटोवेशन पर ध्यान देना पड़ेगा। देखिए, जरूरी यह है कि हमने जो सीखा जो अनुभव लिया उसे हम नई जनरेशन को पासऑन करें। हमेशा तो कोई विधानसभा में नहीं रहेगा। लेकिन हमारा योगदान सोसायटी के लिए क्या रहा? हमने अगली पीढ़ी को पासऑन क्या किया? कैसे हाउस चले? कैसी परम्पराएं हो, सदन का काम करने का तरीका और क्या स्टेंडर्ड हो? कैसा बेंचमार्क हम सेट करते हैं? हम घूमने के लिए हाउस में तो नहीं जा रहे हैं न। ठीक है सदन के अंदर हाथ खड़ा करने का भी है लेकिन गिनती करने के लिए ही तो नहीं है। आपके पास सब्सटेंस है, आपके पास कंटेट है तो बात कीजिए, किसी ने रोका तो नहीं है लेकिन इतना जरूर होना चाहिए कि इसमें बदनियती और सिर्फ हंगामा करने का उद्देश्य नहीं होना चाहिए। जैसे उदाहरण ले लीजिए गर्वनर का अभिभाषण हो या बजट की बात हो तो हम रटी-रटाई बात कहते हैं। पक्ष वाले कहते हैं बहुत ही बढ़िया है तो विपक्ष वाले कहते हैं बहुत ही घटिया है, सरकार कुछ नहीं कर रही है। इसलिए मैं सबसे कहता हूं कि चलो जो तुम कह रहे हो वही ठीक है लेकिन ये तो बताओ कि करना क्या चाहिए था? यह कोई नहीं बता पाता कि करना क्या चाहिए? सवाल सब खड़े करते हैं। सत्ता पक्ष का है तो वह कहता है कि सरकार बहुत अच्छा काम कर रही है तो उसे भी यह बताना चाहिए कि सरकार क्या-क्या अच्छा कर रही है और किस-किस के क्या-क्या परिणाम निकले। तब तो पाॅलिसी मेकिंग में आपका योगदान होगा। उसके लिए आपको स्टडी करनी पड़ेगी।
हाल ही में पहाड़ी बनाम मैदान मुद्दा बहुत तेजी से सामने आया। इसको लेकर कई विवाद भी सामने आए। आप इनको किस तरह से देखते हैं?
यह कोई विवाद नहीं है और न ही यह बड़ा विवाद है। देखिए, यह भी समझ की कमी है। यदि आप वाद करेंगे तो मैदान वाद, पहाड़ी वाद की बात करेंगे। मैं कभी भी वाद की बात नहीं करता हूं। मैं क्षेत्रीय सरोकारों की बात करता हूं। किसी के भी सरोकार एक नहीं हो सकते। पहाड़ों के सरोकार अलग हैं तो मैदानों अलग हैं। यह भी है कि कुछ सरोकार काॅमन भी हो सकते हैं लेकिन ज्यादातर सरोकार अलग-अलग ही हैं। पर्वतीय क्षेत्रों के सरोकार क्या हैं, वहां अत्याधिक श्रम साध्य हैं, वहां की खेती आदि कठिन परिस्थितियों वाली है। वहां रिटर्न वैसे नहीं मिलता जैसे मैदानी क्षेत्रों में मिलता है। आप मेहनत तो बहुत ज्यादा करते हैं लेकिन उसका प्रतिफल अनुपात में कहीं नहीं ठहरता। इसके लिए आपको वहां के हिसाब से स्टडीज करनी पड़ेगी। ऐजुकेशन, हेल्थ, इकोनाॅमी, एग्रीकल्चर, हाॅर्टीकल्चर की अलग से उनके सरोकारों के हिसाब से स्टडीज करनी पड़ेगी। इसलिए सरोकार की ही बात होनी चाहिए, बल्कि यूं कहें तो रिजनल एस्प्रेशन क्यों हों? आप बताइए कि कोई पौड़ी वाला, कोई चमोली वाला या कोई जौनसार वाला इस पर आपत्ति करेगा कि गन्ने की खेती के लिए काम नहीं होने चाहिए? गन्ने की खेती पहाड़ों में तो नहीं होती वह मैदान में ही होती है। अगर मैदानी सरोकारों के एस्प्रेशन पर काम होता है तो किसी को क्या आपत्ति है? इसी तरह से पहाड़ी सरोकारों में उद्यान सेब आदि के फलों पर काम किया जाता है तो क्या मैदानी लोग आपत्ति करेंगे? कोई आपत्ति नहीं करता। सबसे अलग-अलग सरोकार हैं। लेकिन कई बार पाॅलिटिकल वर्कर अपना उल्लू सीधा करने के लिए ऐसी बात करते हैं। इसमें मुद्दों की समझ की बड़ी कमी मैं देखता हूं। यह सत्य है कि आज पर्वतीय क्षेत्रों में सबसे ज्यादा समस्याएं हैं। अंग्रेजों ने भी पर्वतीय क्षेत्रों के गांवों को क्लासिफाइड, कैटिगराईज कर रखा था। अंग्रेज पर्वतीय क्षेत्रों को अर्ध बहिष्कृत क्षेत्र कहा करते थे क्योंकि वे राष्ट्र की मुख्यधारा से कटे रहते थे। उस पर आज उत्तराखण्ड में कोई बात नहीं करता जबकि इन क्षेत्रों में मेन स्ट्रीमिंग की जरूरत है। इसलिए रिजनल सरोकारों को समझाने की जरूरत है। हां, यह भी सही है कि मैदानी हो या पहाड़ी दोनों में खेती-बाड़ी सस्टेनेबल लिविंग का एक बड़ा आधार है। लिहाजा यह बात भी ठीक है कि जमीनों को यथा सम्भव बचाना चाहिए।
उत्तराखण्ड राज्य का भविष्य क्या है?
उत्तराखण्ड राज्य का भविष्य बहुत बढ़िया है, बहुत उज्जवल है। उत्तराखण्ड में सभी इंग्रीएंड मौजूद हैं जो इस राज्य को एक माॅडल स्टेट बना सकें। लेकिन मैं फिर कह रहा हूं कि उसको कोई वाद न लें सिर्फ रिजनल सरोकारों पर फोकस करना है, उसी पर बात करती है। आपको यहां कि प्रोफाइल को, डोमोग्राफिक को बदलने से रोकना है। यदि आपकी इस तरह से डोमोग्राफिक चेंज होती रही तो ‘यू विल लूज यूवर ओरिजीनेलिटी।’ डोमोग्राफिक चेंज में यह नहीं होगा कि आमुक-आमुक सरनेम या जाति होंगे, यह नहीं होगा। जिस तरह से मैंने ओबीसी सर्वे को लार्जर स्टेड पर कहा है उसी तरह से डोमोग्राफिक प्रोफाइल भी लार्जर स्टेड पर है। इसका दीर्घकालीन असर इस प्रदेश के प्रोफाइल पर अवश्य पड़ेगा
आपने डोमोग्राफिक चेंज की बात कही है। डेमोग्राफी चेंज पर आप सबसे ज्यादा मुखर रहे हैं। भाजपा भी डेमोग्राफी चेंज की बात तो करती है लेकिन विगत 8 वर्षों से लगातार सत्ता में है तो क्या इसके लिए दोषी भाजपा और उसकी सरकार नहीं है?
मैं फिर से कह रहा हूं कि प्रदेश में डोमोग्राफिक चेंज एक बहुत ही गम्भीर विषय है। उत्तराखण्ड एक बाॅर्डर एरिया स्टेट है। इसलिए यह राष्ट्रीय सुरक्षा का सबसे बड़ा विषय बन जाता है। आप देखिए जब भी भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध हुए तो सबसे ज्यादा प्रभावित बाॅर्डर एरिया के ही लोग हुए हैं। अभी ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के दौरान भी बाॅर्डर एरिया के ही लोग प्रभावित हुए हैं तो आप इसे नकार नहीं सकते। उत्तराखण्ड एक बाॅर्डर एरिया स्टेट है और इसकी प्रोफाइल अगर चेंज होती है तो हम अपने प्रदेश की ओरिजनलिटी ही खो देंगे। भाजपा सरकार यह जानती है कि प्रदेश में हमारी ही सरकार है फिर भी भाजपा की सरकार, विधायक, मुख्यमंत्री और सांसद भी डोमोग्राफिक प्रोफाइल पर बात कर इसे चर्चाओं में लेकर आए हैं। जब चर्चा में आया तब ज्ञात हुआ कि यह मामला तो अतिसंवेदनशील है। भाजपा के आने के बाद ही इस मुद्दे पर चर्चा हुई और सच सामने आया। पहले तो इस पर कोई बात तक नहीं करना चाहता था। हम पब्लिक डोमने में इस मुद्दे को लाए तो हैं न। हमारा सीधा और साफ मत है कि उत्तराखण्ड बाॅर्डर राज्य है इसकी डोमोग्राफिक प्रोफाइल में बदलाव नहीं होना चाहिए।
अवैध खनन एक गम्भीर मसला है। सरकार इस पर कार्यवाही करती रहती है। मेरा मानना है कि इस पर व्यवहारिकता को समझने की जरूरत है। एक तो यह खुली सम्पत्ति है। हर जगह तहसीलदार, एसडीएम पटवारी या पुलिसवाला खड़ा नहीं रह सकता। लेकिन एडमिनिस्ट्रेशन के तौर पर इसमें कठोर कार्यवाही होनी चाहिए। मेरे सामने जब भी ऐसे मामले आए तो मैंने स्थानीय प्रशासन से कार्यवाही करने को कहा और कार्यवाही हुई भी। कइयों पर भारी पेनाल्टी भी लगी। ऐसा नहीं है कि खनन की चोरी पर कार्यवाही नहीं हो रही है। मेरे सामने अगर अवैध खनन का मामला आएगा तो मैं इतनी तो गारंटी दे सकता हूं कि वह छूट नहीं पाएगा। उस पर तो कार्यवाही निश्चित है। जो लीगली करेगा उसको हर प्रकार से काम करने की इजाजत है लेकिन अगर अवैध खनन करेगा उसको कतई नहीं बक्शा जाएगा। अवैध खनन एक व्यक्ति का नहीं है यह गिरोहबंदी करके किया जा रहा है
आप जौनसार से आते हैं। जौनसार जनजातीय क्षेत्र है। इस क्षेत्र में बाहरी लोगो के जमीन खरीदने और बसने के कड़े नियम चले आ रहे हैं। कोई भी उत्तराखण्ड का मूल निवासी भी जौनसार में जमीन नहीं खरीद सकता लेकिन कुछ वर्षों में मुस्लिम वर्ग द्वारा जौनसार में जमीनें खरीदकर स्थाई निवासी तक बन चुके हैं। मतदाता पहचान पत्र, आधार कार्ड यहां तक कि उनका नाम मनरेगा में भी दर्ज किया जा रहा है। जनजातीय क्षेत्र को तो यूसीसी से भी अलग रखा गया है फिर कैसे जनजातीय क्षेत्रों में बाहरी लोगो की बसावट हो रही है?
इसको हमें टोटलिटी में सोचने की जरूरत है। जैसे परिवार रजिस्टरों के वेरिफिकेशन की जरूरत है। पंचायत लेवल पर परिवार रजिस्टर ही एक बड़ा दस्तावेज होता है जो पंचायत क्षेत्र में निवास करने वाले का पूरा पारिवारिक विवरण देता है। इसके दुरुस्तीकरण की बहुत ज्यादा आवश्यकता है। अभी कुछ समय पहले सहसपुर विधानसभा के कुशालपुर गांव में एक मामला आया। जिसमें शिकायतकर्ता भी एक मुसलमान लड़का था। आप देखिए न इस गम्भीर मामले में कैसे-कैसे लोग हिंदू-मुसलमान करने लगते हैं। एक स्थानीय मुस्लिम लड़के ने ही शिकायत की कि उसके गांव में दस ऐसे परिवार का खुलासा किया कि कुशालपुर के परिवार रजिस्टर में सहारनपुर के मुस्लिमों ने अपना नाम दर्ज करवाया है। इसमें कई बातें भी हैं। कई प्रधान अपने वोटों के चक्कर में ऐसे काम करवाते हैं, कई पंचायत स्तर पर अधिकारी भी जान-बूझकर या पैसा लेकर काम करवा देते हैं। गलत सर्टिफिकेशन करवाया जाता है। पंचायत स्तर से लेकर ब्लाॅक और जिला स्तर पर एसडीएम, जिलाधिकारी और ब्यूरोक्रेसी ऑगर्न की सबसे बड़ी जिम्मेदारी बनती है।
फिर आपका विरोध क्यों हो रहा है। आप पर आरोप लग रहे हैं कि आप हिंदू-मुसलमान करके सामाजिक समरसता को क्षति पंहुचा रहे हैं?
मेरे क्षेत्र का मुसलमान, ईसाई या अन्य कोई भी मत और मजहब का मानने वाला हो, सभी मेरा समर्थन करते हैं। बाहरी लोगों के परिवार रजिस्टर में नाम दर्ज होना सिर्फ डोमोग्राफिक चेंज की बात नहीं है। यह सरकारी योजनाओं की लूट का भी भागीदार बनता है। जिन बाहरी लोगों ने हमारे यहां परिवार रजिस्टर में अपना नाम दर्ज करवाया है उनके निश्चित ही अपने प्रदेश के पंचायत नगर निकायों के परिवार रजिस्टर में भी नाम दर्ज हैं। ये लोग दोहरा लाभ ले रहे हैं जिसका नुकसान हमारे प्रदेश के निवासियों को हो रहा है। स्वयं मेरे क्षेत्र के ही लोग कह रहे हैं कि इन बाहरी लोगों के कारण उनके हकों को छीना जा रहा है। आज सड़कों के किनारे, पुल के नीचे हो या बाजार में हर जगह बाहरी लोगों द्वारा कारोबार के नाम पर अतिक्रमण किया जा रहा है। मेरे क्षेत्र में 400 रेहड़ी-ठेलियां हैं तो उनमें 100 तो स्थानीय लोगों की हैं लेकिन 300 कोई सहानरपुर से, कोई मिर्जापुर से आकर बगैर नगर पालिका में रजिस्टर हुए ठेलियां लगा लेता है। इसलिए हमने सख्ती भी की और प्रशासन को कहा कि स्थानीय निवासी चाहे जो भी हो उनके अलावा हर बाहरी के खिलाफ कार्यवाही करं।
राज्य में अवैध खनन को लेकर सरकार, शासन-प्रशासन पर आरोप लगते रहे हैं। इससे प्रदेश के राजस्व को तो हानि हो ही रही है साथ ही क्या इससे सरकार की छवि को भी नुकसान पहुंच रहा है। आपने स्वयं अवैध खनन का मामला पकड़ा है?
अवैध खनन एक गम्भीर मसला है। सरकार इस पर कार्यवाही करती रहती है। मेरा मानना है कि इस पर व्यवहारिकता को समझने की जरूरत है। एक तो यह खुली सम्पत्ति है। हर जगह तहसीलदार, एसडीएम पटवारी या पुलिसवाला खड़ा नहीं रह सकता। लेकिन एडमिनिस्ट्रेशन के तौर पर इसमें कठोर कार्यवाही होनी चाहिए। मेरे सामने जब भी ऐसे मामले आए तो मैंने स्थानीय प्रशासन से कार्यवाही करने को कहा और कार्यवाही हुई भी। कइयों पर भारी पेनाल्टी भी लगी। ऐसा नहीं है कि खनन की चोरी पर कार्यवाही नहीं हो रही है। मेरे सामने अगर अवेैध खनन का मामला आएगा तो मैं इतनी तो गारंटी दे सकता हूं कि वह छूट नहीं पाएगा। उस पर तो कार्यवाही निश्चित है। जो लीगली करेगा उसको हर प्रकार से काम करने की इजाजत है लेकिन अगर अवैध खनन करेगा उसको कतई नहीं बक्शा जाएगा। अवैध खनन एक व्यक्ति का नहीं है यह गिरोहबंदी करके किया जा रहा है। इसलिए मैंने डीएम देहरादून को कहा है कि ऐसे लोगांे को चिह्नित करके उनको गुंडा एक्ट में बद कीजिए।
आप लम्बे समय से राजनीति में हैं, लेकिन आपको मंत्री पद नहीं मिला है। इसका क्या कारण है क्या इसकी पीड़ा होती है?
मैं बहुत ईमानदारी से इसका जवाब दूंगा। अगर मैं यह कहूं कि मैं मंत्री बनना नहीं चाहता था तो लोग कहेंगे अंगूर खट्टे हैं कोई बन नहीं रहा है तो ऐसी बात कर रहा है तो यह बहुत हल्की बात है। मैं ऐसी बातों पर नहीं जाता। मैं ऐसे लोगों में से नहीं हूं कि जो हर वक्त रोता रहता है कि हाय! मुझे मंत्री नहीं बनाया। सत्तर विधायक हैं लेकिन मंत्री तो ग्यारह ही बनेंगे। इसका मतलब यह तो नहीं है कि बाकी लोग कुछ नहीं करेंगे। क्या विधायक होना या सांसद होना बड़ी बात नहीं है। मैं समझता हूं कि हमें जो जिम्मेदारी मिली है वह बहुत बड़े दायरे की बात है उसे किसी एक पद पर समेटना सही नहीं है। मेरी यह धारणा है कि विधायक सिर्फ एक विधानसभा का ही नहीं होता। विधायक प्रदेश की विधानसभा का सदस्य है, वह निर्वाचित एक विधानसभा क्षेत्र से होता है लेकिन उसका प्रभाव व्यापक होता है। मैं अपनी बात कहूं तो मेरे डिबेट करने का तरीका मेरे चर्चा के कंटेंट पैन स्टेट राज्य स्तरीय होते हैं। मैं कभी भी अपने आपको एक विधानसभा से ही जुड़ा नहीं मानता हूं। विधायक पूरे प्रदेश का है उसका असर राज्य स्तरीय होना चाहिए। इसलिए मैंने कभी इस बात को नहीं कहा कि मुझे मंत्री क्यों नहीं बनाया गया? न कभी मुझे इस बात का मलाल या पीड़ा रही है। मुझ पर ईश्वर की बड़ी कृपा है, मुझे मुख्यमंत्री जी हों, या मंत्री हों या ब्यूक्रेसी ऑर्गन हो सभी मुझे गम्भीरता से सुनते हैं। मेरी बातों को मानते हैं यह मेरे लिए बड़ी बात है।