कुमाऊं मंडल विकास निगम में पिथौरागढ़ के प्रबंधक और कर्मचारी महासंघ के 30वीं बार निर्विरोध अध्यक्ष बने दिनेश गुरुरानी के प्रेम और लगन का ही नतीजा है कि पहाड़ पर बंजर पड़ी जमीनों पर हरियाली नजर आने लगी है। गुरुरानी का ‘एक पौधा धरती मां के नाम’ अभियान बेहद लोकप्रिय है। इस अभियान से हजारों लोग अब तक पौधारोपण कर चुके हैं। वे साढ़े दस हजार फीट से अधिक की ऊंचाई वाले गुंजी व उससे लगे क्षेत्रों में भोज पत्र, धूप व अन्य हिमालयी प्रजाति के पौधे लगाकर वहां जाने वाले पर्यटकों को भी पर्यावरण रक्षा की शपथ दिला रहे हैं। ऐसे राज्य आंदोलनकारी और पर्यावरणविद् दिनेश गुरूरानी से ‘दि संडे पोस्ट’ संवाददाता दिनेश पंत की बातचीत
निर्विरोध 30वीं बार कुमाऊं मंडल विकास निगम कर्मचारी महासंघ का अध्यक्ष बनना कैसे संभव हो पाया?
अध्यक्ष के तौर पर तीसवीं पारी का यह अवसर कर्मचारियों का मेरे पर बना विश्वास रहा है। मैंने कोशिश की है कि कर्मचारियों का विश्वास बनाए रखूं। वर्ष 1990 से लेकर आज तक निरन्तर कर्मचारी हितों की लड़ाई लड़ रहा हूं। वर्ष 1995 में हमने 20 कर्मचारियों को साथ लेकर कुमाऊं मंडल विकास निगम वर्कस यूनियन संगठन बनाया और इसे पंजीकृत कराया। पहली बार मैं इसका अध्यक्ष बना और तब से लगातार यह जिम्मेदारी निभा रहा हूं। पहले कुमाऊं मंडल विकास निगम में तीन संगठन थे। जो एक जैसे मुद्दों पर अलग-अलग लड़ाई लड़ रहे थे। बाद में हमने तीनों संगठनों को मिलाकर वर्ष 1998 में संयुक्त कर्मचारी महासंघ कुमाऊं मंडल विकास निगम का गठन किया। इसके अध्यक्ष की जिम्मेदारी भी कर्मचारियों ने मुझे सौंपी। बाद में संगठन में कई तरह की उठापठक होती रही लेकिन कर्मचारियों का विश्वास मेरे प्रति बना रहा। वर्ष 2011 में एक ऐतिहासिक चुनाव हुआ, जिसमें वैलेट पैपर के माध्यम से चुनाव हुए। मैं अध्यक्ष चुना गया। उसके बाद से मेरा कोई प्रतिद्धंदी नहीं आया। मैंने कई बार कर्मचारियों से अध्यक्ष पद से मुक्ति चाही लेकिन कर्मचारियों ने ऐसा होने नहीं दिया। मेरेे लिए इससे बड़ा तोहफा क्या हो सकता है।
तीन दशक से कर्मचारियों का विश्वास बनाए रखने के पीछे कोई न कोई वजह तो होगी?
मैंने लगातार अपने हितों को दरकिनार कर कर्मचारियों हितों की लड़ाई लड़ी। कर्मचारियों के हित में बहुत काम हुआ। यही कर्मचारियों का मेरे पर विश्वास का कारण रहा। संगठन को हमेशा गतिमान बनाए रखा। कर्मचारियों और संगठन दोनों को हमेशा रचनात्मक आंदोलनों के साथ जोड़ा। हमारे लगातार प्रयासों से कर्मचारियों का ऐतिहासिक वेतन बढ़ा है। जो कर्मचारी स्थाई नहीं हैं उनमें 2001 से 2014 तक के कर्मचारियों का 5 हजार व 2014 से 2018 के बीच भर्ती हुए कर्मचारियों का 4 हजार रुपए वेतन बढ़ा है। अभी 2018 से 2022 तक के संविदा कर्मचारियों के लिए भी सहमति बन रही है। शीघ्र ही उनका भी 3 हजार रुपए का वेतन बढ़ जाएगा। लगातार प्रयासों से कर्मचारियों के विभागीय प्रमोशन हुए। अभी हमारी लड़ाई यह चल रही है कि जब तक स्थाईकरण की व्यवस्था नहीं होती, तब तक समान कार्य के लिए समान वेतन मिले। निगम के कर्मचारियों की व्यक्तिगत समस्याओं का भी समाधान हो रहा है। जब मुक्तेश्वर, सातताल जैसे तीन पर्यटक आवास गृहों को पीपीपी मोड पर देने की बात हुई तो हमने इसका जमकर विरोध किया। हमारे भारी विरोध को देखते हुए सरकार को ये सारे टंेडर निरस्त करने पड़े।
बतौर कर्मचारी नेता आपने बहुत सारी कीमत चुकाई है, क्या कहेंगे?
इससे बड़ी कीमत चुकानी क्या हो सकती है, जब मैंने वर्ष 1996 में चाय विजयपुर बागान में घोटाले के खिलाफ जबर्दस्त आंदोलन किया तो उसका खामियाजा मुझे भुगतना पड़ा। 14 नवम्बर 1996 में मुझे बर्खास्त कर दिया गया। कर्मचारियों ने मेरे पक्ष में जबर्दस्त आंदोलन किया तब जाकर निगम को घुटने टेकने पड़े। निगम ने मुझे बाइज्जत बरी किया। तब मैं दैनिक वेतन में काम करता था। मेरी वरिष्ठता को यथावत रखा गया। मुझे पिथौरागढ़ से टनकपुर आवास गृह भेज दिया गया। वहां भी मेरा संघर्ष जारी रहा। इस पूरी यात्रा में कई कोर्ट कचहरी के मुकदमे मुझे झेलने पड़े। कई लोगों ने उस समय मेरे साथ धोखेबाजी की। मेरे संगठन ने मेरा साथ छोड़ दिया। एक बार आन्दोलन के दौरान मेरी बेटी का हाथ फैक्चर हो गया लेकिन मैंने उसके इलाज के बजाय आंदोलन को प्राथमिकता दी। मैंने बहुत प्रताड़ना झेली। जब मेरी और मेरे कुछ अन्य साथियों की सेवाएं वापस हुई तो संगठन का महत्व समझ में आया।
आपके नेतृत्व में चल रहा पौधारोपण कर आंदोलन काफी चर्चा में है। गांधीवादी तरीके से ऐसा आंदोलन करने के पीछे की वजह?
अब तक हम इस आंदोलन के तहत 48 हजार से अधिक पौधों का रोपण कर चुके हैं। जहां तक इस तरह के आंदोलन की बात है तो अनुभव ही आदमी को नया सोचने के लिए विवश करता है। जब हम बंद करते हैं। चक्का जाम करते हैं। गलत रास्ता अख्तियार करते हैं। तोड़-फोड़ करते हैं तो आंखिर में समाधान वार्ता के माध्यम से ही निकलता है। इसमें देर अवश्य लग सकती है लेकिन इससे किसी को नुकसान नहीं पहुंचता है। हम अपनी सुविधाओं व फायदे के लिए दूसरों की बद्दुआ क्यों लें। हमारा कर्मचारी जनता से जुड़ा है। पर्यटकों से जुड़ा है। वह अपने खुद के समय में कटौती करते हुए पौधारोपण कर रहा है। इसके माध्यम से अपनी मांगें रख रहा है। इससे सेवाएं भी प्रभावित नहीं होती हैं। यह एक अनूठा आंदोलन है जो आने वाले समय में एक नजीर पेश करेगा। इस आंदोलन पर तमाम पर्यटकों का कहना है कि ऐसा आन्दोलन हमने पहली बार देखा है। जहां अपनी मांगें भी रखी जा रही हैं और सेवाएं भी प्रदान की जा रही हैं।
एक राज्य आंदोलनकारी होने के नाते क्या आप राज्य की वर्तमान स्थितियों से संतुष्ट हैं?
हम संतुष्ट नहीं हैं। इस राज्य में बड़े कर्मचारी व अधिकारी को बहुत कुछ मिल गया। जिनको नहीं मिलना चाहिए था उन्हें काफी मिल गया। लेकिन उस छोटे कर्मचारी को क्या मिला। जो राज्य आंदोलन में थे ही नहीं वह राजनीति में आकर बड़े-बड़े पद पा गए। जो दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी हैं, बेराजगार हैं उसे क्या मिला? निचले स्तर के आदमी को कुछ नहीं मिला। अब केएमवीएन और जेएमवीएन को ही ले लीजिए पूर्ववर्ती उत्तर प्रदेश के समय यहां फैक्ट्रियां चलती थी, जो उत्तराखण्ड बनने के बाद बंद हो गई। राज्य की लड़ाई सबने लड़ी। नेतृत्वकर्ता से लेकर बाटम तक हर कोई इसमें सहयोगी था। राज्य की लड़ाई हमने इसलिए लड़ी थी कि छोटा राज्य बनेगा तो कर्मचारियों, बेरोजगारों की समस्याओं का निदान होगा। कई कल्पनाएं मन में थी। कुछ सपने थे। लेकिन सब पर पानी फिर गया। आन्दोलकारियों के चिन्हीकरण तक में धांधली कर दी गई। सचिवालय में कोई भी काम समय पर नहीं हो पाता फाइलें घूमती रहती हैं।
एक पौधा धरती के नाम व हिमालय बचाओ अभियान की सार्थकता कैसे देखते हैं?
मैं पौधों को भगवान मानता हूं। यह प्राणवायु देने का काम करते हैं। पौधों की वजह से लोग मुझे जानते हैं। शादी-ब्याह, बर्थडे, एनीवर्सरी में पौधे लगाने के लिए लोग मुझे बुलाते हैं। मैंने उच्च हिमालय क्षेत्रों में न सिर्फ पौधे लगाए, बल्कि उन्हें पोषित करके भी दिखाया है। पौधों को खाद, पानी और संरक्षण की जरूरत होती है। आज यही पौधे मुझे सम्मान दिला रहे हैं। बंजर भूमि हरी भरी हो रही है। मुख्यमंत्री से लेकर तमाम जनसंगठनों के लोगों ने मेरे काम को सराहा है। इस कार्य के लिए सम्मानित किया है। पर्यटक आवास गृह पिथौरागढ़ के आस-पास की बंजर भूमि हरी भरी हुई है जो प्राणवायु देने का काम कर रही हैं। इन अभियानों में अब तक एक लाख से अधिक पौधे रोपित व पोषित किए जा चुके हैं। यही हमारी एक बड़ी उपलब्धि है।
पूरा प्रदेश कंक्रीट के जंगल में तब्दील हो रहा है। मानकों को ताक में रखकर खनन हो रहा है। सड़कों के कटान में मानकों की अनदेखी की जा रही है। घर-घर पोकलैंड आ गए हैं। पेड़-पौधों का लगातार कटान हो रहा है। पहले हम कैलाश मानसरोवर यात्रा में जब धारचूला से पैदल निकलते थे तो रास्ते में कहीं भूस्खलन के दृश्य नहीं दिखते थे। लोगों ने घर बनाने के लिए नदी-नाले पाट दिए। पांच-छह मंजिले मकान बन गए हैं। पहले जहां बर्फ गिरती थी वहां की पारिस्थकीय ही बदल गई है। हमें आज पर्यावरण संरक्षण की जरूरत है। इसमें हर किसी की भागीदारी जरूरी है। तभी हम प्रकृति व जीवन दोनों को बचा सकते हैं
उच्च हिमालयी क्षेत्रों व नदी तटों में चलाए जा रहे स्वच्छता अभियानों को कैसे संचालित कर रहे हैं?
जहां गंदगी नहीं होगी, वहां बीमारी नहीं होगी। गंदगी मतलब बीमारी की जड़। प्रशिक्षण कार्यक्रमों में आने वाले प्रतिभागियों को स्वच्छता अभियानों से जोड़ता हूं। उन्हें हिमालय को साफ व स्वस्थ बनाने की शपथ दिलाता हूं। उन्हें नदी तटों पर चलाए जा रहे सफाई अभियानों का सहभागी बनाता हूं। उन्हें बताता हूं कि हिमालय से निकलने वाली पावन, पवित्र नदियों के तटों को गंदा मत कीजिए। अगर एक भी व्यक्ति इसका पालन करता है तो यही हमारी जीत है।
एक दीया शहीदों के नाम अभियान का उद्देश्य क्या रहा है?
पर्यटक आवास गृह पिथौरागढ़ के पास ही शहीद स्मारक स्थल है। यहां देश भर से पर्यटकों के दल आते रहते हैं। मैंने उन्हें एक दीया शहीदों के नाम कार्यक्रम से जोड़ा है। वह दीया जलाते हैं। शहीदों को नमन करते हैं। उनकी शहादत से प्रेरणा लेते हैं। यहीं पर मैंने एक शहीद वाटिका तैयार कराई है। जिसमें यहां आने वाला हर पर्यटक एक पौधा रोपता है। हमारा स्थानीय प्रशासन व सरकार से अनुरोध है कि इस शहीद वाटिका का भव्य रूप दिया जाए। यह एक तरह से शहीदों को सच्ची श्रदांजलि होगी।
उत्तराखण्ड निरंतर प्राकृतिक आपदाओं की जद में आ रहा है, इसे कैसे देखते हैं?
पूरा प्रदेश कंक्रीट के जंगल में तब्दील हो रहा है। मानकों को ताक में रखकर खनन हो रहा है। सड़कों के कटान में मानकों की अनदेखी की जा रही है। घर-घर पोकलैंड आ गए हैं। पेड़-पौधों का लगातार कटान हो रहा है। पहले हम कैलाश मानसरोवर यात्रा में जब धारचूला से पैदल निकलते थे तो रास्ते में कहीं भूस्खलन के दृश्य नहीं दिखते थे। लोगों ने घर बनाने के लिए नदी-नाले पाट दिए। पांच-छह मंजिले मकान बन गए हैं। पहले जहां बर्फ गिरती थी वहां की पारिस्थकीय ही बदल गई है। हमें आज पर्यावरण संरक्षण की जरूरत है। इसमें हर किसी की भागीदारी जरूरी है। तभी हम प्रकृति व जीवन दोनों को बचा सकते हैं।