राजस्थान की राजनीति में एक बार फिर आरक्षण की लपटें उठने लगी हैं, लेकिन इस बार सत्ता में बैठी सरकार के ही मंत्री और एक विधायक आमने-सामने हो गए हैं। इस लिस्ट में दिव्या मदेरणा, मुकेश भाकर से लेकर कई नाम जुड़ते जा रहे हैं। ऐसे में कहा जा रहा है कि चुनावी साल में आरक्षण के इस मुद्दे को सुलझाना मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के लिए बहुत बड़ी राजनीतिक चुनौती बन सकता है। यही नहीं कहा तो यहां तक जाने लगा है कि कहीं ऐसा तो नहीं इस बार भूतपूर्व सैनिकों को ओबीसी के 21 प्रतिशत कोटे में आरक्षण की अधिसूचना बड़ा मुद्दा न बन जाए। राजस्थान में हुए पिछले 5 विधानसभा चुनाव तो यही कहानी बयां करते हैं। पिछले 22-25 वर्षों में राजस्थान में गरीब सवर्णों को आरक्षण, जाटों को ओबीसी में शामिल कर आरक्षण देने, गुर्जरों को ओबीसी से बाहर विशेष श्रेणी में आरक्षण देने, आदिवासियों को विशेष आरक्षण सहित हाल ही माली-सैनी-कुशवाहा समाजों ने ओबीसी के भीतर विशेष कोटे में आरक्षण देने की मांग बुलंद की है। गौरतलब है कि आरक्षण की लंबी लड़ाई के चलते 70 लोगों की मौत हुई तो सैकड़ों लोग इस दौरान घायल भी हुए। अरबों की प्रॉपर्टी बर्बाद हो गई, फिर भी यह आग रह-रह कर सुलग ही जाती है। जब चुनाव नजदीक आते हैं, तो आरक्षण का भूत बोतल से बाहर आए बिना नहीं रहता। इसलिए राजनीतिक जानकार मान रहे हैं कि इस बार के चुनाव में भी आरक्षण का मुद्दा अहम रहने वाला है। इससे पहले जब वर्ष 2002 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने राजस्थान में एक सभा में जाटों को ओबीसी में आरक्षण देने का वायदा किया तो 2003 में भाजपा को पहली बार 200 में 120 सीटें मिली, अन्यथा राजस्थान में भाजपा को कभी 95 सीटें भी नहीं मिली थीं। राजस्थान में जाट समुदाय को परंपरागत रूप से कांग्रेस का वोट बैंक माना जाता था, लेकिन 2003 में जाट समुदाय ने खुलकर भाजपा का साथ दिया था।
फिर सुलगने लगी आरक्षण की आग
