भारतीय जनता पार्टी के हाथों 2017 के विधानसभा और 2019 के लोकसभा चुनावों में करारी शिकस्त के बाद उत्तर प्रदेश के दो बड़े राजनीतिक दलों का शीर्ष नेतृत्व पूरी तरह अस्त-पस्त हो कुंभकर्णी नींद सो गया था। पिछले 4 सालों में समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव और बहुजन समाज पार्टी की सर्वेसर्वा मायावती राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यानाथ की सरकार को किसी भी फ्रंट पर घेरने में नाकाम तो रही हीं, प्रयास करती भी नजर नहीं आईं। इन चार बरसों के दौरान विपक्ष के पास एक के बाद एक ऐसे अवसर आए जिनके सहारे योगी सरकार को सड़क से लेकर विधानसभा तक घेरा जा सकता था। लेकिन सोशल मीडिया में बयानबाजी करने के सिवा ये दोनों ही दलों के नेता कुछ ठोस एक्शन लेने में पूरी तरह विफल रहे। चाहे नागरिकता कानून में संशोधन का मुद्दा हो या फिर प्रदेश की बिगड़ती कानून व्यवस्था, विपक्ष की भूमिका में इन दोनों दलों से कहीं अधिक सक्रिय प्रियंका गांधी वाडरा के चलते कांग्रेस की रही है। सपा- बसपा की दुर्गति को हाथरस में दलित लड़की के बलात्कार कांड से समझा जा सकता है। जहां कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी और पार्टी महासचिव प्रियंका ने सड़क पर उतर कर योगी सरकार को डिफेन्सिव मोड़ में ला खड़ा किया था तो दूसरी तरफ सपा की साइकिल पूरी तरह पंचर रही और बसपा का हाथी बैठा रहा। अब लेकिन 2022 में होने वाले विधानसभा चुनावों को नजर में रखते हुए इन दोनों ही दलों का नेतृत्व कुछ सक्रिय होता नजर आने लगा है।
बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती ने पार्टी संगठन को चुस्त- दुरुस्त करने की कवायद शुरू कर डाली है। एक महीने पहले उनके द्वारा नियुक्त राज्य बसपा अध्यक्ष भीम राजभर ने पूर्वी उत्तर प्रदेश के महत्वपूर्ण जिलों वाराणसी, गाजीपुर, आजमगढ़ और बलिया का दौरा कर अति पिछड़ों को वापस बसपा की तरफ लाने की कवायद शुरू कर दी है। पार्टी सूत्रों का कहना है कि सबसे पहले बूथ स्तर तक पार्टी को मजबूत किया जा रहा है। इसके बाद सेक्टर लेवल पर संगठन को चुस्त-दुरुस्त करा जाएगा। बसपा हर विधानसभा सीट पर सेक्टर कमेटियों का पुनर्गठन करने जा रही है। एक सेक्टर कमेटी में 12 बूथ रखे गए हैं। हर बूथ से एक कार्यकर्ता सेक्टर कमेटी का सदस्य बनाया जाएगा। बसपा अध्यक्ष मायावती ने अप्रैल 2021 तक यह कवायद पूरी करने के निर्देश भीम राजभर को दिए हैं। इतना ही नहीं मायावती ने 2022 के विधानसभा चुनावों के लिए चुनाव प्रत्याशियों के चयन की प्रक्रिया भी शुरू कर दी है। पार्टी सूत्रों का कहना है कि आगामी 15 जनवरी को मायावती के जन्म दिन पर पूरे प्रदेश में कार्यक्रम आयोजित कर पार्टी फंड के लिए धन इक्ट्ठा करने के साथ ही पार्टी का मिशन 2022 विधिवत शुरू कर दिया जाएगा। दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी के भीतर भी 2022 को लेकर मंथन शुरू हो चुका है। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव किसानों के मुद्दे सहारे एक बार फिर से सक्रिय हो उठे हैं। इसका पहला संकेत अखिलेश यादव के उस बयान से मिलता है जिसमें उन्होंने छोटे दलों संग गठबंधन की बात कहते हुए बागी सपा नेता शिवपाल यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी लोहिया संग तालमेल का इशारा किया। शिवपाल को मनाने की नीयत से अखिलेश यादव ने 2022 में शिवपाल की परंपरागत जसवंत नगर सीट से सपा का प्रत्याशी न उतारने का ऐलान कर डाला है। इससे पहले सात सीटों पर हुए उपचुनावों में शिवपाल यादव ने अपने प्रत्याशी न उतारने के साथ ही सपा संग मिलकर 2022 के चुनाव लड़ने का बड़ा संकेत दे डाला था। 2018 में कैराना लोकसभा सीट पर सपा-बसपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ने और जीतने वाले राष्ट्रीय जनता दल ने भी 2022 के चुनाव सपा संग गठबंधन कर लड़ने का एलान कर दिया है। 2016 में भाजपा के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ने वाले सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी भी अब सपा संग गठबंधन के लिए तैयार बताई जा रही है। इस पार्टी के मुखिया ओम प्रकाश राजभर को 2019 के लोकसभा चुनाव बाद योगी आदित्यानाथ मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दिया गया था।
पिछले चार सालों से कुंभकर्णी नींद में चले गए अपने नेताओं की सक्रियता से पार्टी कार्यकर्ताओं में उत्साह का माहौल है। इन चार बरसों में मायावती और अखिलेश की निष्क्रियता के पीछे एक बड़ा कारण उनकी कथित बेनामी संपत्ति और दोनों के मुख्यमंत्रित्वकाल में हुए कथित घोटालों को बताया जाता रहा है। जानकारों का दावा है कि सपा-बसपा प्रमुखों पर इन चार बरसों में केंद्र सरकार की जांच एजेंसियों का आतंक छाया रहा था। उन्हें भय था कि योगी सरकार का ज्यादा विरोध कहीं उनके दरवाजे में सीबीआई-ईडी की आयद् का कारण न बन जाए। बहरहाल कारण कुछ भी रहा हो, अब विधानसभा चुनावों से एक बरस पहले इन नेताओं का सक्रिय होना दोनों ही दलों के समर्थकों और कार्यकर्ताओं की मायूसी दूर करने में सहायक सिद्ध हो रहा है।