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मुकाबला चाहे खेल के मैदान का हो या चुनाव के मैदान का, जो खिलाड़ी होता है वह पूरी ताकत लगाता है। लेकिन ऐसा लगता है कि कांग्रेस पार्टी इस सिद्धांत में विश्वास नहीं करती है। वह अपनी ताकत बचा कर रखने में विश्वास करती है। पता नहीं कांग्रेस नेताओं को लगता है कि बचा कर रखने से ताकत बढ़ेगी। चुनाव के मैदान में ताकत के अधिकतम इस्तेमाल से ताकत बढ़ती है। इस बात को कांग्रेस नेताओं को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को देख कर सीखना चाहिए। वे हर चुनाव में ऐसी मेहनत करते हैं, जैसे इस चुनाव पर उनकी किस्मत दांव पर लगी है। दर्जनों रैलियां, सभाएं, रोड-शो, चुनाव की रणनीति की बैठकें, नेताओं से बातचीत जैसे सारे काम वे प्रधानमंत्री रहते हुए करते हैं। इसके उलट कांग्रेस हर चुनाव आधे-अधूरे तरीके से लड़ती है। मिसाल के तौर पर अभी हिमाचल प्रदेश का चुनाव हुआ, सिर्फ प्रियंका गांधी वाड्रा की चार दिन रैलियां हुईं। ‘भारत जोड़ो यात्रा’ कर रहे राहुल गांधी यात्रा रोक कर गुजरात के प्रचार में जा रहे हैं तो क्या वे एक दिन हिमाचल नहीं जा सकते थे? सोनिया गांधी की सेहत ठीक नहीं है लेकिन वे ‘भारत जोड़ो यात्रा’ में शामिल होने कर्नाटक गई थीं। मगर वे एक भी सभा करने हिमाचल नहीं गईं और न उन्होंने हिमाचल के लोगों के नाम चिट्ठी लिखी या अपील जारी की। गुजरात में राहुल गांधी जाएंगे तो प्रियंका गांधी वाड्रा नहीं जाएंगी। ऐसी स्थिति में राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि कांग्रेस पार्टी किश्तों में प्रियंका का इस्तेमाल कर रही है। वे पार्टी की महासचिव हैं और उनको हर जगह चुनाव में मेहनत करनी चाहिए। देश का सत्तारूढ़ दल पूरी ताकत लगा कर चुनाव लड़ता है लेकिन मुख्य विपक्षी पार्टी हर चुनाव में अपनी कुछ ताकत बचा लेती है और इसका नतीजा है कि उसकी ताकत लगातार खत्म होती जा रही है।

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