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बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती गहरे सदमे में बताई जा रही हैं। उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव नतीजों के चलते उन्हें यह सदमा पहुंचा है। इस सदमे का कारण है उनका कोर वोट बैंक जो पहली बार उनसे बड़ी संख्या में छिटक भाजपा के पक्ष में जा खड़ा हुआ है। बसपा की असल ताकत रहे जाटव वोटरों ने इन चुनावों में मायावती के बजाय योगी पर भरोसा जता बहिनजी की जमीन हिलाने का काम कर डाला है। दरअसल, काशीराम से जाटव समाज का गहरा जुड़ाव अस्सी के दशक में बना था। इस समाज ने 1984 में बसपा के गठन के बाद से लगातार पार्टी का साथ दिया। लेकिन इस बार जो चुनावी डाटा सामने आया है उससे स्पष्ट होता है कि 22 फीसदी जाटव अब लाभार्थी वोटर में तब्दील हो बसपा से छिटक गया है। भाजपा ने इस समाज को लुभाने के लिए एक के बाद एक जाटव नेताओं को आगे बढ़ाने का काम किया। उत्तराखण्ड की राज्यपाल बेबीरानी मौर्या को चुनावों से ठीक पहले उत्तर प्रदेश की राजनीति में सक्रिय कर इस वोट बैंक को रिझाने के साथ-साथ आईपीएस अधिकारी असीम अरुण को वीआरएस दिला चुनाव मैदान में उतारा गया। असीम वरुण भी जाटव समाज से हैं। भाजपा के चुनावी पैतरों से बेखबर मायावती ब्राह्मण सम्मेलन कराने में जुटी रहीं। उन्हें लगा कि जाटव के साथ ब्राह्मण को जोड़कर वह 2007 के विधानसभा चुनाव में चला गणित दोबारा बना जीत हासिल कर लेंगी। लेकिन ब्राह्मण तो हाथ आया नहीं, जाटव जरूर भाजपा संग चला गया। अब बहिनजी अपनी मृतप्राय पार्टी में फेरबदल कर फिर से जाटव को महत्व देने का मन बना चुकी हैं। इसी के चलते उन्होंने लोकसभा में बसपा के नेता रितेश पाण्डेय को हटा गिरीश चंद्र को बना डाला है जो जाति से जाटव हैं। खबर जोरों पर है कि अब बहिनजी का फोकस जाटव और मुस्लिम गठजोड़ पर रहने वाला है। खबर यह भी जोरों पर है कि अब तक पार्टी में नंबर दो माने जाते रहे सतीश मिश्रा की कुर्सी पर भी खतरा मंडराने लगा है। ब्राह्मण वोट बैंक को साध पाने में विफल रहे मिश्रा की
राजनीति का अब अवसान की तरफ जाना तय है।

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