महाराष्ट्र से पहले इस तरह के प्रयोग 2013 में कर्नाटक और 2015 में बिहार में हुए थे। बिहार में महागठबंधन और कर्नाटक में जेडी (एस) के साथ मिलकर कांग्रेस ने भाजपा का साथ रास्ता रोका था। हालांकि 2019 के बाद विपक्षी दलों में संशय की स्थिति बनने लगी। विपक्ष इसके पीछे केंद्रीय जांच एजेंसियों के बेवजह इस्तेमाल का भी दोष लगाता है। लेकिन महाराष्ट्र की असफलता ने कांग्रेस को फिर सवालों के घेरे में खड़ा करने का काम किया है। गौरतलब है कि झारखंड में झामुमो-कांग्रेस गठबंधन को लेकर भी कयासबाजियों के दौर चल रहे हैं। असल में विपक्ष के पास मुद्दों की कमी भी साफ नजर आ रही है। पूर्व में जिन मुद्दों को लेकर विपक्षी दल चुनाव में उतरे थे वह उतने असरदार नहीं रहे। चाहे वह कमजोर अर्थव्यवस्था हो, बदहाल बेरोजगारी या फिर चीन का बढ़ता अतिक्रमण। सिर्फ इतना ही नहीं, कोरोना के समय हुई मुश्किलें, डिमोनेटाइजेशन और कृषि सुधार कानून को लेकर हुए प्रदर्शन का भी चुनाव में बिल्कुल असर देखने को नहीं मिला। हालांकि कुछ क्षेत्रीय दलों ने जरूर भाजपा का प्रतिरोध करने में सफलता पाई है, लेकिन कांग्रेस अभी तक इसका कोई तोड़ नहीं निकाल पाई है।
सवालों के घेरे में कांग्रेस
