कहते हैं कि जितना ज्यादा संघर्ष होगा, उतनी ही बड़ी मंजिल होगी। इसलिए बस एक कदम बढ़ाकर देखें। इस वक्तव्य पर खरी उतरती है हरियाणा की 17 वर्षीय अंजू वर्मा। एक तरफ जहां हरियाणा में हर क्षेत्र में लड़कियों को रोका जाता रहा है। उसी हरियाणा की एक बेटी बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्षरत है।
अंजू वर्मा हरियाणा के फतेहाबाद जिले की रहने वाली हैं। वह पिछले कई सालों से बच्चों के अधिकारों के लिए संघर्ष कर रही हैं। उनका केवल एक ही लक्ष्य है कि समाज और देश को बच्चों के लिए सुरक्षित बना पाए। उनका कहना है, “मैं ऐसा भारत चाहती हूं जो कि बच्चों के लिए पूरी तरह से सुरक्षित हो। जहां न तो बाल मजदूरी, बाल विवाह हो, न भ्रूण हत्या और न ही बच्चों के साथ किसी तरह का क्राइम।”
अंजू ने इस सराहनीय काम की शुरुआत मात्र 10 साल की उम्र से कर दी थी। अपने साथ हुई एक घटना के कारण ही उनके मन में बगावत ने जन्म लिया और फिर कुछ ऐसी परिस्थितियां आईं कि उन्होंने आगे बढ़कर खुद अपनी लड़ाई लड़ने का प्रण ले लिया। वह घटना बताती हैं, ‘मैं पांचवी कक्षा में थी और मेरी स्कूल की गर्मियों की छुट्टियां हुई थीं। छुट्टियों में मुझे मेरे पापा की बुआ के यहां जाने का मौका मिला। मैं वहां बहुत खुशी-खुशी गई थी लेकिन वहां जो मेरे साथ व्यवहार हुआ, उससे मुझे लगने लगा था कि भगवान ने मुझे लड़का क्यों नहीं बनाया।’
अंजू के रिश्तेदारों ने उन्हें बहुत ही गलत तरीके से रखा। वह मुश्किल से वहां 20 दिन रहीं, लेकिन उनके लिए एक-एक पल भारी था। उन्हें सुबह 4 बजे उठा दिया जाता ताकि वह घर के 15 सदस्यों के लिए चाय बना सके। उसके बाद उनसे झाड़ू, बर्तन, कपड़े, खाना आदि जैसे सारे काम कराए जाते। कभी अगर वह मना करती तो उन्हें लड़की होने का ताना दिया जाता, माँ ने कुछ नहीं सिखाया है, अगले घर जाकर नाम खराब करोगी।’ इस घटना का अंजू के मन पर काफी गहरा प्रभाव पड़ा। अब वह अपने आस-पास हो रही हर एक चीज को बहुत गहनता से समझने लगी।
‘दूसरी घटना थी मेरी एक सहेली की सिर्फ 11 साल की उम्र में शादी होना। मुझे आज तक लगता है कि मैं उसके लिए कुछ नहीं कर पाई। इस बारे में किसी से बात करो तो सब कहते कि यही रीत है, हम- तुम क्या कर लेंगे,’ उन्होंने आगे कहा। गांव से ही शुरू हुई एक और घटना ने अंजू को गहनता से सोचने पर विवश कर दिया।
अंजू ने अपने शिक्षक की मदद से बच्चों के अधिकारों के बारे में पढ़ा और समझा। उन्होंने अपनी सहेलियों के घर जाकर उनके माता-पिता से बात करनी शुरू की। अंजू ने बहुत ही सूझ-बूझ से बातों ही बातों में उनके सामने बच्चों के अधिकारों और कानून के प्रावधानों के बारे में बात की। इसके साथ ही वह चाहती थी कई लोग पढ़ाई का महत्व समझें साथ ही बिना किसी डर के बच्चां को स्कूल भेजें। इस काम को अंजाम देने के लिए उन्होंने गांव के सरपंच आदि से मिलकर बात की। उन्हें समझाया कि उनकी भी जिम्मेदारी है कि बच्चों को अच्छा बचपन मिल सके। अंजू के अदम्य साहस और निरंतर प्रयासों से उसकी सहेलियों के घरवालों ने अपनी गलती को माना। इसके बाद अंजू का आत्म-विश्वास काफी बढ़ता गया।
इस सराहनीय कार्य की चर्चा सुन कुछ दिनों बाद, उनके गांव में काम कर रहे एक समाज सेवी संगठन, सेव द चिल्ड्रेन ने उन्हें अपने एक प्रोग्राम के लिए उनका चयन कर लिया। यहां पर उन्हें बच्चों के अधिकारों के बारे में एक ट्रेनिंग दी गई। इस संगठन के साथ अंजू ने लगभग एक साल तक कार्य किया। इसके बाद उन्होंने अपने गांव का सर्वे किया। उन्होंने किसी न किसी कारण से स्कूल छोड़ चुके बच्चों को फिर से स्कूल जाने के लिए मनाया। स्कूल छोड़ चुके 25 बच्चे अब स्कूल जाने लगे हैं। उनके इस प्रयास के बाद उन्हें ‘अशोका यूथ वेंचर’ का हिस्सा बनने का अवसर मिला।