हस्तशिल्पी दिनेश लाल की कलाकृतियां खूब सराही जा रही हैं। वे अपनी कला से उत्तराखण्ड को नई पहचान दिलाने को प्रयासरत हैं। लेकिन उत्तराखण्ड राज्य उन जैसे हस्तशिल्पियों की कलाकृतियों को बाजार मुहैया नहीं करवा पा रहा है
उत्तराखण्ड की हस्तशिल्प कला बहुत ही समृद्धशाली और वैभवशाली रही है। यहां हस्तशिल्प के एक से बढ़कर एक हुनरमंद रहे हैं। लेकिन प्रोत्साहन न मिलने और आर्थिक तंगी की वजह से अधिकतर हुनरमंद कलाकारों की कला दम तोड़ देती है। दिनेश लाल एक ऐसे ही हुनरमंद कलाकार हैं। उनके हाथों की कलाकारी से बेजान लकड़ी भी बोल उठती है। वे निःस्वार्थ भाव से अपनी कला के जरिए पहाड़ के लोकजीवन और लोकसंकृति को नई पहचान दिलाने का कार्य कर रहे हैं।

दिनेश की हस्तशिल्प कला इतनी बेहतरीन है कि वो सूखी, बेजान लकड़ी में भी इतनी शानदार नक्काशी करते हैं कि कलाकूति बोल उठती है और जींवत हो उठती है। दिनेश ने अपनी हस्तशिल्प कला के जरिए दो दर्जन से ज्यादा कलाकूतियों को आकार दिया है। इनमें हुक्का, बैल, हल, परेडा/परय्या, लालटेन, चिमनी, कूष्ण भगवान का रथ, तलवार, धनुष, गदा, तीर, ओखली, गंज्यालु सहित कई अन्य कलाकूति सम्मिलित हैं। पहाड़ी द्घर, केदारनाथ मंदिर, और ढोल दमाऊं की कलाकूति लोगों को सबसे ज्यादा पसंद आई हैं। लोग इन मॉडलों के मुरीद हुए। कई लोगों ने इन्हें खरीदा भी।

हस्तशिल्प कला और कलाकूतियों पर लंबी गुफ्तगू में दिनेश कहते हैं कि मेरा उद्देश्य है कि अपनी हजारों साल पुरानी वैभवशाली सांस्कृतिक विरासत को नयी पहचान दे सकूं। कला के जरिए आने वाली पीढ़ी को अपनी लोकसंस्कूति के बारे में अवगत करा सकूं। मुझे ये कला अपने पिताजी से विरासत में मिली। बाकी खुद सीखा और अकेले ही लकड़ियों के डिजाइन तैयार करता हूं। बीए तक पढ़ाई करने के बाद जब नौकरी नहीं मिली तो हस्तशिल्प कला के जरिए ही रोजगार की संभावनाओं तलाशी। मुझे बेहद खुशी है कि लोगों को मेरा कार्य पसंद आ रहा है, परंतु मेरे बनाए उत्पादों को अपेक्षा के अनुरूप बाजार न मिलने से निराशा जरूर होती है। मैं विगत १० सालों से ये कार्य कर रहा हूं, पर इसके भरोसे ही परिवार का गुजर-बसर संभव नहीं है। बस जैसे-तैसे दिन कट रहे हैं। अखबार और टीवी में कई बार आ चुका हूं, लेकिन भूखे पेट भजन नहीं होता है। एक-एक कलाकूति को बनाने में तीन से ८ दिन लगते हैं। फिर भी कोशिश है कि अपनी कला के जरिए पहाड़ को अलग पहचान दिला सकूं।