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पहले मानकीकरण फिर सरलीकरण

उत्तराखण्ड में स्थानीय भाषा को लेकर एक बहस कई साल पहले से शुरू हो चुकी है। स्थानीय जरूरतों और विकास के लिए इसको प्रोत्साहन देने की टुकड़ों में बातें होती रही हैं। राज्य के कुमाऊं मंडल में बोली जाने वाली कुमाऊंनी में एकरूपता लाने को लेकर सौर घाटी पिथौरागढ़ में दूसरी बार दो दिवसीय कुमाऊं भाषा सम्मेलन आयोजित किया गया। कुमाऊंनी में निकलने वाली मासिक पत्रिका ‘आदलि कुशलि’ ने इसका आयोजन किया। जिसमें कुमाऊंनी भाषा के मानकीकरण पर बल दिया गया। भाषा प्रेमियों का मानना है कि मानकीकरण से ही भाषा के सरलीकरण का रास्ता तैयार होगा। इस सम्मेलन में भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की एक बार फिर आवाज उठी

 

दिवसीय द्वितीय कुमाऊंनी भाषा सम्मेलन यहां पिथौरागढ़ के जिला पंचायत सभागार में आयोजित हुआ। इस सम्मेलन में कुमाऊं के विभिन्न हिस्सों के साथ ही नेपाल से आए भाषा प्रेमियों ने भी भाग लिया। कुमाऊंनी में निकलने वाली मासिक पत्रिका ‘आदलि कुशलि’ कुमाऊंनी भाषा को लेकर हर साल सम्मेलन का आयोजन कर रही है। यह द्वितीय कुमाऊंनी भाषा सम्मेलन था। इस तरह के सम्मेलनों का आयोजन एक तरह से कुमाऊंनी भाषा को सम्मान दिलाने का प्रयास है। इस सम्मेलन में जो सबसे बड़ा मुद्दा उभर कर सामने आया, वह था कुमाऊंनी भाषा के मानकीकरण का। अभी कुमाऊंनी भाषा के बोलने व लिखने में एकरूपता का अभाव है। कुमाऊंनी भाषा के लेखन को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की बात हो या फिर उसे उत्तराखंड के स्कूली पाठ्यक्रमों में लागू करने की, इसे मान्यता दिलाने के लिए इसमें एकरूपता की जरूरत है। मानकीकरण के लिए यह भी जरूरी है कि इस भाषा का सरल, सरस एवं स्पष्ट होना भी जरूरी है। इसे पढ़ने, लिखने व बोलने में सरलता होनी चाहिए वर्ना इसका हाल भी संस्कृत का जैसा हो जाएगा जो अब सिर्फ कर्मकांडों की भाषा बनकर रह गई है।

किसी समय में चंद राजाओं की राजभाषा रह चुकी कुमाऊंनी को आज संरक्षण की जरूरत है। ऐसा नहीं है कि कुमाऊंनी में साहित्य सृजन नहीं हो रहा है। काफी मात्रा में साहित्य रचा जा रहा है। पूर्व में प्रो . शेर सिंह बिष्ट तो ‘कुमाऊं भाषा का उद्भव और विकास’ नामक पुस्तक लिख चुके हैं। यही नहीं वर्ष 1728 में रामभद्र त्रिपाठी चाणक्य नीति का संस्कृत से कुमाऊंनी में अनुवाद कर चुके हैं। माना जाता है कि कुमाऊंनी भाषा में साहित्य रचनाओं की शुरुआत 1800 ई . के बाद हुई। गुमानी पंत, शिवदत्त सती, गंगादत्त उप्रेती, कृष्ण पांडे, चिंतामणि जोशी, लीलाधर जोशी, ज्वालादत्त जोशी इस काल के मुख्य साहित्यकार माने जाते थे। लेकिन कुमाऊंनी का यह दुर्भाग्य रहा है कि इसे आज भी भाषा के बदले बोली के रूप में जाना जाता है। इसकी वजह इसका मानकीकरण न होना माना जाता है। कुमाऊंनी भाषा का मानकीकरण करना भी एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। यह भी सत्य है कि जब तक इसका मानकीकरण नहीं हो जाता, इसे भाषा के रूप में मान्यता मिलना काफी कठिन है। मांग भले ही इसे आठवीं अनुसूची में शामिल करने व पाठ्यक्रमों में शामिल करने की हो लेकिन यह बगैर मानकीकरण के संभव नहीं है। यहां पर यह भी उल्लेखनीय है कि हिन्दी की स्थिति भी पहले कुमाऊंनी की तरह थी। हिंदी के विकास में भी मानकीकरण ने अहम भूमिका निभाई है। पहले हिंदी प्राकृत, हिंदुस्तानी, खड़ी बोली, देसी, अवधी, ब्रज भाषा सहित कई रूपों में व्याप्त थी। मानकीकरण के बाद इसका विकास तेजी के साथ हुआ। अगर कुमाऊंनी को भाषा के रूप में प्रगति करनी है तो पहला काम इसका मानकीकरण करना होगा तब जाकर यह संचार योग्य बनेगी। मानकीकरण की प्रक्रिया के माध्यम से ही एक भाषा मानक बनता है। उत्तराखण्ड की अपनी कोई भाषा न होने की वजह उसका मानकीकरण न होना रहा है। अभी कुमाऊंनी का न सिर्फ मानकीकरण होना है, बल्कि इसे आधुनिक तकनीक से जोड़ना भी बाकी है। कुमाऊंनी भाषा का अस्तित्व तभी कायम रह पाएगा, जब इसका संरक्षण व दस्तावेजीकरण होगा। कुमाऊं का भाषाई कोष बनना भी अभी बाकी है। मानकीकरण हो या भाषाई कोष या फिर आधुनिक तकनीक के साथ कुमाऊंनी को जोड़ना, यह एक चुनौतीपूर्ण कार्य है लेकिन समय रहते कुमाऊंनी भाषा के अस्तित्व को बचाने के लिए यह बेहद जरूरी है। कुमाऊं भाषा में लेख लिखे जा रहे हैं। कविता, कहानियां, गीत, फिल्में भी बन रही हैं। सोशल मीडिया पर भी इसके पेज हैं लेकिन असली काम जो मानकीकरण का है, उसको लेकर इस भाषा के विद्वान आगे नहीं बढ़ा पा रहे हैं।

 

यह सर्वविदित है कि कुमाऊंनी कुमाऊं क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा है जिसे पहाड़ी भाषा की श्रेणी में रखा जाता है। यह देश की 325 मान्यता प्राप्त भाषाओं में से एक है। एक आंकड़े के मुताबिक यह 26 लाख से भी अधिक लोगों द्वारा बोली जाती है। यह एक अर्वचीन भाषा है। यह देवनागिरी लिपि में लिखी जाती है। यूं तो कुमाऊं क्षेत्र में 20 प्रकार की बोलियां बोली जाती हैं। जिनमें सोरयाली, अस्कोटि, जोहारी, मझकुमारिया, दानपुरिया, चुगरख्यैली, कमईया, गंगोला, खसपरजिया, पछाई, रौचभैसि, फल्दकोटि आदि हैं। लेकिन मुख्यतः कुमाऊं क्षेत्र में विभिन्न रूपांतरणों में यह बोली जाती है। जैसे- अल्मोड़ा व उत्तरी नैनीताल में मध्य कुमाऊंनी, पिथौरागढ़ में उत्तरपूर्वी कुमाऊंनी, दक्षिण पूर्वी नैनीताल में दक्षिण पूर्वी कुमाऊंनी एवं पश्चिमी अल्मोड़ा और नैनीताल में पश्चिमी कुमाऊंनी। पूर्वी कुमाऊं में चार बोली बोलियां बोली जाती हैं। लोहाघाट-चंपावत- देवीधुरा में कुमैया, पिथौरागढ़ में सोरयाली, अस्कोट में अस्कोटी, डीडीहाट में सिराली। पश्चिमी कुमाऊं में छह बोलियां हैं जिसमें अल्मोड़ा में खसपर्जिया, गंगोलीहाट में गंगोली, दानपुर में दनपुरिया, भिकियासैंण-सल्ट में पछाई, पुनवानौला-सालम-जागेश्वर, नैनीताल, भीमताल, रामनगर में रचभैंसी आदि बोली जाती हैं। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि इसमें 90 प्रतिशत शब्दावली समान है जबकि उच्चारण में भेद है।

सम्मेलन में उभरे मुख्य बिंदु

  • युवा पीढ़ियों को इस तरह के सम्मेलनों में प्रतिभाग करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा।
    स्कूली पाठ्यक्रमों में कुमाऊंनी भाषा को स्थान दिलाने के लिए अभियान चलाया जाएगा।
    कुमाऊंनी बोलने-लिखने का सरलीकरण किया जाएगा।
    कुमाऊंनी भाषा के मानकीकरण के प्रयास जारी रहेंगे।
    सार्वजनिक स्थानों पर तमाम जानकारियों को लोक बोली में लिखने के प्रयास किए जाएंगे।
    कुमाऊंनी बोली को आठवीं अनुसूची में शामिल कराने एवं भाषा के निरंतर विकास के लिए एक समिति गठित की जाएगी। इस समिति में उन लोगों को लिया जाएगा जो लंबे समय से कुमाऊंनी के लिए काम कर रहे हैं।
    कुमाऊंनी भाषा से संबंधित एक संकल्प पत्र मुख्यमंत्री को सौंपा जाएगा।

विद्धानों का कहना है कि कुमाऊंनी भाषा हिंदी से समृद्ध भाषा है। कुमाऊंनी के जानकार स्व. प्रो. शेर सिंह बिष्ट का मानना था कि 11 वीं सदी के ताम्रपत्रों में कुमाऊंनी भाषा के प्रमाण मिलते हैं। कुमाऊंनी भाषा की शुरुआत कविवर लोकरत्न गुमानी पंत ने की थी। 14 वीं शताब्दी के बाद चंद राजवंश की राजभाषा कुमाऊंनी थी। डाॅ .बिष्ट हमेशा इस बात पर जोर देते रहे कि लोकभाषा में ही पूरा लोक रहता है। लोक से ही रीति-रिवाज पहचान एवं खान-पान निहित है। वह कहते थे कि इस भाषा के मानकीकरण में दिक्कत नहीं आएगी क्योंकि मात्र 10 प्रतिशत के लिए काम करना है। लेकिन इसके बावजूद इस भाषा का मानकीकरण नहीं हो पाया, यह आज भी एक बड़ा सवाल है। इसके लिए कमेटी बननी है। कमेटी में हर जगह के भाषाविद् चाहिए। कमेटी के कार्य संचालन के लिए बजट चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि सरकारी स्तर पर दबाव बनाने से पहले खुद के स्तर पर काफी काम किया जाना जरूरी है। हर जगह अपनी तरह की बोली है तो उसी अनुरूप वहां पर लिखा जा रहा है। एक प्रमाणिक बोली नहीं होने से इसे सब अपनी भाषा नहीं कह पा रहे हैं लेकिन असली सवाल वहीं पर है कि कुमाऊंनी भाषा शनैः शनैः लुप्त होने के कगार पर है। पलायन, शहरीकरण, तकनीक, अपनी भाषा के प्रति शर्मिंदगी, मानकीकरण न होना, नई पीढ़ी की इसमें रुचि न होना इसके मुख्य कारण हैं। जबकि इसका एक समृद्ध मौखिक एवं लिखित साहित्य है। लोकगीतों, लोककथाओं, कृषि गीत, ऋतु गीत, संस्कार गीत, अनुभूति प्रधान गीत, नृत्य गीत, तर्क प्रधान गीत, परम्परागत गाथाएं, पौराणिक गाथाएं, धार्मिक गाथाओं एवं वीर गाथाओं में यह भाषा आज भी जिंदा है, यही इसे आगे भी बढ़ा रही है। आज भी परंपरागत लोकगाथाओं के अंतर्गत मालूशाही एवं रमौल, पौराणिक लोककथाओं के अंतर्गत जागर, धार्मिक लोकगाथाओं के अंतर्गत ग्वल्ल, गोल्ज्यू, यक्ष-नाग गीत, मसाण, ऐड़ी, सैम, नंदा देवी एवं वीरगाथाओं के अंतर्गत तीलू रौतेली, भीमा कठेत, सूरज कौल, कालू भंडारी, रतुवा फत्र्याल, जगदेव पंवार, अजवा के साथ ही राजा-रानी, लौरी, संत-महात्मा, पशु-पक्षी, हास्य व्यंग्य, भांटा-सांटा आदि धार्मिक, नैतिक एवं मनोरंजक लोककथाओं में यह भाषा आज भी जिंदा है और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक चली आ रही है। इसकी वजह यह है कि कुमाऊं का लोक साहित्य अत्यंत समृद्ध है। इसमें जन-जन को आकर्षित करने की शक्ति है। जरूरत है तो सिर्फ लोगों को अपनी भाषा के प्रति अलख जगाने की।

बात अपनी-अपनी

यह सम्मेलन काफी सार्थक रहा। इसमें उन बिंदुओं पर चर्चा हुई जिसकी वजह से लोग अपनी बोली, भाषा-संस्कृति से अलग हो रहे हैं। कुमाऊंनी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची की मान्यता प्राप्त भाषाओं में स्थान दिलाने के लिए सामूहिक प्रयास होंगे। आगे भी हमारा प्रयास रहेगा कि इस तरह के सम्मेलनों में युवा पीढ़ी को प्रतिभाग करने का अवसर दिया जाए।

डाॅ. सरस्वती कोहली, संपादक , ‘आदलि कुशलि’ पत्रिका

भाषा पर काम करना काफी कठिन श्रम साध्य विषय है। कुमाऊंनी के रचनाकारों को इसे आगे बढ़ाने का श्रेय जाता है। कुमाऊंनी भाषा व्यक्तिगत प्रयासों के चलते काफी मजबूत हो रही है लेकिन संस्थागत स्तर पर इसे और प्रयास किए जाने की जरूरत है। कुमाऊंनी, गढ़वाली, जौनसारी, समेत कई अन्य भाषाओं को मिलाकर उत्तराखण्डी भाषा बनी है। हम सबको मिलकर इसको भी आगे बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए।

काशी सिंह ऐरी, पूर्व विधायक व वरिष्ठ उक्रांद नेता

भाषा के मानकीकरण के लिए सभी को प्रयास करने की जरूरत है। जहां तक कुमाऊंनी भाषा की सार्थकता का सवाल है तो राहुल सांस्कृतायन और एटकिंसन ने भी कुमाऊंनी को भाषा माना है। कविता, खंडकाव्य, महाकाव्य, कहानी संग्रह जो विधाएं हिंदी में मौजूद हैं, वे कुमाऊंनी में भी मौजूद हैं। कुमाऊं में रहने या फिर बाहर रहने वालों को अपनी दुधबोली बोलने में कोई शर्म नहीं होनी चाहिए।

एड. जमन सिंह बिष्ट, कुमाऊं भाषा के जानकार

हमें अपने घर में परिवार के सभी सदस्यों, विशेषकर युवा पीढ़ी के साथ निरंतर कुमाऊंनी भाषा में संवाद करना पड़ेगा। कोई भी भाषा तभी सबसे समृद्ध होती है जब उसका अधिक से अधिक आम बोल चाल में प्रयोग होता है। बोल-चाल के अभाव में शब्द संपदा सिमटती जाती है।

डाॅ. पीताम्बर अवस्थी, साहित्यकार एवं समाजसेवी

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