उत्तराखण्ड कांग्रेस जब अंदरूनी मतभेदों, गुटबाजी और नेतृत्व के संकट से जूझ रही है, ऐसे समय में हल्द्वानी के युवा विधायक सुमित हृदयेश एक सधी हुई राजनीतिक भाषा, व्यवहार में शालीनता और संगठन को जोड़ने की क्षमता के साथ नए नेतृत्व की आशा बनकर उभर रहे हैं। स्वर्गीय इंदिरा हृदयेश की राजनीतिक विरासत को संजीदगी से आगे बढ़ाते हुए उन्होंने न केवल जनसरोकारों को केंद्र में रखा है, बल्कि ‘जय हिंद रैली’ जैसे आयोजनों के माध्यम से कांग्रेस को एकजुट करने की जमीन भी तैयार की है। यदि कांग्रेस नेतृत्व ने समय रहते इस ऊर्जा और परिपक्वता को पहचाना तो सुमित हृदयेश भविष्य में न केवल कुमाऊं, बल्कि पूरे उत्तराखण्ड में पार्टी की वापसी के स्तम्भ बन सकते हैं
उत्तराखण्ड में कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति में 2025 का साल अहम होने जा रहा है। 2017 के विधानसभा चुनावों में सत्ता गंवाने और 2022 में सत्ता की दहलीज में पहुंचते-पहुंचते भारतीय जनता पार्टी से मात खाने के बाद आने वाला 2027 का विधानसभा चुनाव कांग्रेस के लिए एक बड़ी चुनौती के रूप में सामने खड़ा है। आपस में लड़ रहे कांग्रेस के नेताओं को भी भान है कि 2027 का विधानसभा चुनाव उनके अस्तित्व से जुड़ा है और उस चुनाव में हार कांग्रेस को एक बड़े बिखराव की ओर ले जाएगी जिसे समेटना आसान नहीं होगा। भाजपा प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र भट्ट का यह कहना अकारण नहीं है कि ‘कांग्रेस में बचे दौड़ने वाले घोड़े जल्द ही भारतीय जनता पार्टी में दिखाई देंगे।’ सवाल यह है कि क्या कांग्रेस के नेता 2027 के लिए अपने मतभेदों को दरकिनार कर पार्टी की मजबूती के लिए कार्य करेंगे, या फिर व्यक्तिगत स्वार्थों के चलते उसे उसी स्थिति में ले जाएंगे जैसी 2017 और 2022 में देखी गई थी। कभी लगता है कांग्रेस सम्भल रही है, लेकिन तभी कुछ ऐसे घटनाक्रम सामने आ जाते हैं जो यह जताते हैं कि कांग्रेस के नेता अतीत से सबक सीखना ही नहीं चाहते।
किच्छा के विधायक तिलकराज बेहड़ और किसान मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष हरेंद्र सिंह लाड़ी के बीच सार्वजनिक बयानबाजी, हल्द्वानी की जय हिंद रैली के दौरान पूर्व विधायक रणजीत रावत द्वारा हरीश रावत के सोशल मीडिया सक्रियता और ‘काफल पार्टी’ जैसे आयोजनों का उपहास, ये सब कांग्रेस के अंतर्विरोधों को और उजागर करते हैं। हालांकि इस बीच कुछ नेता ऐसे भी हैं जो 2027 की तैयारियों को प्राथमिकता देते हुए पार्टी को एक मंच पर लाने का प्रयास कर रहे हैं। पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत उम्र के इस पड़ाव में ‘न्याय यात्रा’ के माध्यम से फिर से जनता के बीच पहुंचने लगे हैं। वहीं अगर कोई नेता इन आंतरिक कलहों से दूर रहकर कांग्रेस को जमीनी स्तर पर संगठित करने का प्रयास करता दिख रहा है, तो वह हैं हल्द्वानी के विधायक सुमित हृदयेश। स्वर्गीय इंदिरा हृदयेश की राजनीतिक विरासत को सच्चे अर्थों में ईमानदारी से आगे बढ़ाते हुए सुमित ने अपने अब तक के राजनीतिक सफर में शालीनता, संवाद और जनप्रतिनिधि की गम्भीरता दिखाई है। उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड की राजनीति में वित्त मंत्री, विपक्ष की नेता और संगठन शिल्पकार के रूप में इंदिरा हृदयेश की पहचान अनुकरणीय रही। कांग्रेस की वित्तीय दृष्टि और महिला नेतृत्व को संस्थागत स्वरूप देने में उनका योगदान अविस्मरणीय रहा है।
कुमाऊं का प्रवेश द्वार हल्द्वानी हाल ही में कांग्रेस के दृष्टिकोण से तीन अहम आयोजनों का साक्षी बना, हरीश रावत की पुस्तक ‘उत्तराखण्डियत’ का विमोचन, ‘जय हिंद रैली’ और स्व. इंदिरा हृदयेश की पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि सभा। तीनों आयोजनों में सुमित हृदयेश की भूमिका केंद्र में रही। इनमें सबसे प्रमुख ‘जय हिंद रैली’ रही जिसमें कांग्रेस ने सेना के पराक्रम को सम्मानित करते हुए संगठन की एकजुटता का भी संदेश दिया।
इस रैली में कांग्रेस के पूर्व सैनिक प्रकोष्ठ के राष्ट्रीय अध्यक्ष कर्नल (रिटायर्ड) रोहित चैधरी से लेकर हरीश रावत, यशपाल आर्य, प्रदेश अध्यक्ष करण माहरा जैसे तमाम वरिष्ठ नेता उपस्थित थे। उन्होंने केंद्र सरकार पर सेना के मनोबल से समझौता करने और अमेरिका के हस्तक्षेप को चुपचाप स्वीकार करने का आरोप लगाया। इस मौके पर सुमित हृदयेश ने भी स्पष्ट कहा कि भारत को ट्रम्प की गुलामी बर्दाश्त नहीं है और कांग्रेस हमेशा सेना के सम्मान के साथ खड़ी रही है, न कि उसके शौर्य का राजनीतिक इस्तेमाल करने में। इन आयोजनों से सुमित की संगठनात्मक क्षमता, संतुलन और नेतृत्व कौशल का एक नया चेहरा सामने आया। एक ऐसा चेहरा जो विवादों से दूर, संवाद के जरिए नेतृत्व की ओर अग्रसर है।
उत्तराखण्ड कांग्रेस ने 2022 में गणेश गोदियाल को अध्यक्ष बनाकर एक बदलाव का संकेत दिया था, लेकिन अपेक्षित परिणाम नहीं मिले। करण माहरा के अध्यक्ष बनने के बाद भी गुटबाजी खत्म नहीं हो सकी, बल्कि हरीश रावत विरोधी खेमा और खुलकर उभरा। निर्णय प्रक्रिया में युवा नेताओं की भागीदारी कम रही और अनुभव के नाम पर उनकी उपेक्षा की गई। इस माहौल में सुमित हृदयेश ने न तो किसी गुट का पक्ष लिया, न किसी के विरोध में खड़े हुए, बल्कि जन सरोकार और संगठनात्मक संवाद के माध्यम से पार्टी को जोड़े रखने का प्रयास किया। स्वर्गीय इंदिरा हृदयेश भले ही तिवारी गुट से जुड़ी मानी जाती थीं, लेकिन उन्होंने पार्टीहित को सदैव सर्वोपरि रखा। उनका राजनीतिक जीवन कांग्रेस के लिए एक मजबूत नींव जैसा था। 2022 के चुनाव में हर कांग्रेस कार्यकर्ता को यह एहसास था कि अगर इंदिरा जी जीवित होतीं तो चुनाव का परिणाम कुछ और होता।
सुमित हृदयेश ने इस विरासत को केवल भावनात्मक तौर पर नहीं, बल्कि व्यवहारिक और सांगठनिक कार्यों के जरिए सहेजा है। उन्होंने खुद को गुटबाजी से ऊपर रखते हुए, पार्टी को एकजुट करने की नीतिगत कोशिशें की हैं। यही परिपक्वता उन्हें भविष्य में कांग्रेस के सम्भावित युवा नेतृत्व का मजबूत दावेदार बनाती है। अब जबकि कांग्रेस का युवा वर्ग गुटबाजी और आंतरिक कलह से ऊब चुका है, सुमित हृदयेश जैसे नेता कांग्रेस के लिए नई ऊर्जा और उम्मीद का प्रतीक बनकर उभर रहे हैं। यदि उन्हें सही मंच और दायित्व मिले, तो निस्संदेह वे कांग्रेस को न केवल हल्द्वानी या कुमाऊं में, बल्कि पूरे उत्तराखण्ड में फिर से संगठित कर सकते हैं।