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WOMEN’S DAY 2020: सिनेमा ने स्त्री को अबला नहीं सबला बनाया

WOMEN'S DAY 2020: सिनेमा ने स्त्री को अबला नहीं सबला बनाया

स्त्री शब्द अपने आप में संपूर्ण है। स्त्री शब्द सुनते ही जहन में मां, बेटी, पत्नी, त्याग की मूरत, अनुरागी, मातृत्व, प्रेम और संपूर्ण जैसे गुणों की तस्वीर उभरती है, तो वहीं दूसरी तरफ लोभी, षड्यंत्रकारी, उग्र, क्रोधी और मनमौजी वाले रूप भी साफ-साफ देखने को मिल जाते हैं। चाहे जो भी हो, यह तो तय है कि स्त्री स्वावलंबी तथा आत्मनिर्भर होती है। स्त्री के व्यक्तित्व को उभारने में सिनेमा का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। भारतीय सिनेमा स्त्री के बदलते स्वरूप और उसकी सामाजिक -पारिवारिक भूमिका को बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत करता आया है।

भारतीय सिनेमा में नारी सिर्फ आकर्षण का विषय नहीं रही है, बल्कि हर क्षेत्र में मर्दों के बराबर खड़ी रहकर उनका हौसला भी बढ़ाती रही है और जरूरत पड़ने पर पार्वती से काली का भी रूप ली है। वर्ष 1932 ई में वी शांताराम की फिल्म ‘दुनिया न माने’ आई थी। यह फिल्म बेमेल विवाह पर बनी थी। इस फिल्म की नायिका निर्मला (शांता आप्टे) बेमेल विवाह को स्वीकारने से इंकार कर देती है। जिस साहस और धैर्य के साथ अपने बूढ़े पति को अपनाने से इंकार करती है, उस पीरियड में इस तरह की फिल्म को बनाना ही साहस की बात थी क्योंकि उस पीरियड में बेमेल विवाह का चलन था। इस फिल्म के माध्यम से स्त्री की स्वातन्त्रय, बेमेल विवाह का विरोध और रूढ़िगत मान्यताओं तथा संस्कारों का खंडन करते हुए एक सशक्त महिला के चरित्र को उभारने का सफल प्रयास किया गया है। वहीं 1940 में महबूब खान द्वारा निर्देशित फिल्म ‘औरत’ और ‘अंदाज’, (1949) भारतीय नारी की परंपरागत भूमिका के दायरे से बाहर निकलने वाली औरतों की कहानी है।

‘मदर इंडिया’ फिल्म (1957) में अभिनेत्री नरगिस द्वारा निभाया गया मां का बोल्ड किरदार शायद ही किसी फिल्म में दिखा हो। इस फिल्म में मां के रूप में स्त्री का ऐसा चरित्र दर्शकों के सामने आता है जो अपने पुत्र प्रेम को अपने कर्तव्य के आड़े नहीं आने देता। कुमार्ग पर चलने वाले पुत्र की स्वयं गोली मारकर हत्या करने का दृश्य अत्यंत भावपूर्ण है। मां को ममता की मूरत कहा जाता है। लेकिन इस फिल्म से बताया गया है कि पुत्र अगर गलत राह में चला जाए तो वही मां अपने बेटे को मारने से भी नहीं चूकेगी। यह फिल्म आज भी उतनी ही देखी और पसंद की जाती है, जितनी उस वक्त थी। ये फिल्म उन मांओं के लिए सीख थी और है जो अपने बेटे की हर जायज- नाजायज गलतियों पर पर्दा डालती हैं।

WOMEN'S DAY 2020: सिनेमा ने स्त्री को अबला नहीं सबला बनायाश्याम बेनेगल की फिल्म ‘अंकुर’ 1973 में आई थी। इस फिल्म की नायिका कौशल्या (शबाना आजमी) मातृत्व सुख से वंचित रहती है। कौशल्या मातृत्व सुख को अपना अधिकार मानती है। अपने पति से संतान प्राप्ति न होने पर दूसरे पुरुष से संबंध बनाने में किसी तरह के अपराधबोध या ग्लानि का अनुभव नहीं करती है। यह फिल्म उस समय बनी थी जब महिलाओं को पराये पुरुष को देखना भी पाप समझा जाता था। पति ही परमेश्वर होते थे। मर्दों में कमी होने के बावजूद औरतें बांझ जैसे शब्दों से नवाजी जाती थी। अंकुर फिल्म सामंती प्रवृत्ति, स्त्री शोषण, पुरुष वर्चस्व तथा धार्मिक पाखंड पर तीखा प्रहार करती है।

‘भूमिका’ फिल्म 1997 में आई थी। यह फिल्म भी श्याम बेनेगल ने बनाई। यह फिल्म पुरुष सत्ता और पुरुष के अहम पर बनी फिल्म थी। इस फिल्म में एक ऐसी स्त्री की मनोदशा को दिखाया गया जो स्वयं एक सफल अभिनेत्री तथा कलाकार है। साथ ही स्वाभिमानी तथा आत्मनिर्भर है। फिर भी घरेलू हिंसा, व्यभिचार तथा अपने पति और जीवन में आए अन्य पुरुषों के झूठे अहंकार को झेलना उसकी नियति बन जाती है। स्त्री जीवन के संघर्ष को और उसकी शारीरिक तथा मानसिक स्वतंत्रता की छटपटाहट को इस फिल्म के माध्यम से दिखाया गया है। श्याम बेनेगल की निशांत और मंडी फिल्म स्त्री केंद्रित थी।

1985 में ‘मिर्च मसाला’ फिल्म आई। यह फिल्म केतन मेहता द्वारा निर्देशित फिल्म थी। इस फिल्म में स्त्रियों के विद्रोह को मुखर स्वर प्रदान किया गया है। इसमें स्त्री स्व निर्णय लेने और अपने ऊपर हो रहे अत्याचार के विरोध में खड़ी होती हैं। पुरुषवादी अहं और दंभ को कुचल डालती है। यह फिल्म ग्रामीण स्त्रियों पर केंद्रित थी। ‘बैंडिट क्विन’, ‘खून भरी मांग’, ‘मृत्युदंड’, ‘दामिनी’, ‘एक हसीना थी’ और शक्ति जैसी कई ऐसी फिल्में हैं जिनमें नायिकाएं अपने लिए लड़ती हैं।

21वीं सदी के प्रथम दशक के हिंदी सिनेमा में भी स्त्रियों के बदलते स्वरूप को चित्रित किया गया है। फिल्म ‘पंक’ में जिस तरह से दिखाया गया है कि भले ही औरतें आजाद ख्याल की थीम को प्रस्तुत करती हो, लड़कों के साथ बैठ कर शराब- सिगरेट पीती हों, लेकिन जब सेक्स की बात आती है और लड़की अगर ‘न’ कहती है तो उसका मतलब ‘न’ होता है।

फिल्म ‘राजी’ में आलिया भट्ट जिस तरह से अपने देश की रक्षा के लिए जासूस बनकर पाकिस्तान जाती है और अपने देश के लिए अपने पति तक को मार देती है, इससे पता चलता है कि औरतें कितनी मजबूत होती हैं और किसी भी काम को अंजाम दे सकती हैं। इसी तरह से ‘चांदनी बार’, ‘डोर’, ‘ओमकार’, ‘कारपोरेट’, ‘लाइफ इन मेट्रो’, ‘फैशन’, ‘पेज थ्री’, ‘इंग्लिश विन्ग्लिश’ , ‘पार्च्ड’, ‘पीकू’, ‘मरदानी’, ‘जज्बा’, ‘चक दे इंडिया’, ‘निल बट्टे सन्नाटा’, ‘एन एच 10’, ‘नीरजा’ और ‘मैरी कॉम’ आदि तमाम फिल्में स्त्री के जीवन पर केंद्रित बहुत मजबूत फिल्म हैं।

WOMEN'S DAY 2020: सिनेमा ने स्त्री को अबला नहीं सबला बनायाहफ्ते दिन पहले एक फिल्म आई है ‘थप्पड़’। इस फिल्म की अभिनेत्री तापसी पन्नू हैं। यह कहानी है एक ऐसे समाज की जहां पति द्वारा पत्नी पर की गई हिंसा को लोग आम बात समझते हैं। वहीं इस फिल्म में अभिनेत्री को सिर्फ एक बार पति द्वारा मारा गया लेकिन उसने इसे हल्के में नहीं लिया। एक थप्पड़ की प्रतिक्रिया में वह कोर्ट पहुंच जाती है और तलाक के लिए अर्जी देती है। हर मां-बाप की तरह फिल्म में भी वे अपनी बेटी को समझाते हैं कि गुस्से में मार दिया तो कोई बात नहीं। पहले कभी नहीं मारा-पीटा था न। वहीं वकील भी यही सलाह देता है कि एक थप्पड़ की ही तो बात है। क्या हो गया इसमें। फिर भी अभिनेत्री किसी की नहीं सुनती। यह फिल्म समाज में गहरी छाप के छोड़ेगी। उन सभी महिलाओं को अपने लिए लड़ने की हिम्मत देगी।

आज की नारी अबला नहीं है। सिनेमा ने स्त्री के हर पक्ष को बखूबी पर्दे में उतारा है। समय के साथ स्त्री की स्थिति बदलती रही और उनकी समस्याएं भी। लेकिन अपने अधिकारों एवं कर्तव्यों के प्रति वह हमेशा सजग और सावधान रही। हर समस्या के विरोध में डटकर खड़ी रहती है। भारतीय सिनेमा में ऐसी कई फिल्में हैं, जिनके माध्यम से स्त्री जीवन के संघर्ष और उसकी विविध समस्याओं को दिखाने का सफल प्रयास किया गया है।

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