एक दौर था जब हिंदी सिनेमा में पुरुषों का वर्चस्व हुआ करता था। मूक फिल्मों से लेकर बोलती फिल्मों की शुरुआत में महिला केंद्रित भूमिकाएं भी पुरुषों द्वारा प्ले की जाती थीं। आम भारतीय समाज में सिनेमा को बुरी नजर से देखा जाता था। कुलीन घर की महिलाओं के लिए फिल्मों में काम करना तो दूर फिल्मों को देखने की इजाजत तक नहीं होती थी। फिल्म देखना तो महिला क्या, पुरुष के लिए भी वर्जित क्षेत्र था। ऐसे लड़के-लड़कियां जो फिल्में देखते थे उन्हें बिगड़ैल की श्रेणी में रख दिया जाता था। उस दौर में कुछ महिलाओं ने न सिर्फ फिल्म जगत में कदम रखा बल्कि अपने अभियान से जमकर शोहरत भी लूटी। फिल्मों में कदम रख इन्होंने उन सामाजिक वर्जनाओं को भी तोड़ा जिसमें सिनेमा को हेय दृष्टि से देखा जाता था। वह उन हजारों महिलाओं की प्रेरणास्रोत भी बनीं जिन्होंने आगे चलकर हिंदी सिनेमा में बतौर अभिनेत्री, निर्माता, निर्देशक, कोरियोग्राफी, संगीत में अपना करियर बनाया। ऐसी ही उन सात महिलाओं का हम यहां जिक्र कर रहे हैं जिन्हें हिंदी सिनेमा में उल्लेखनीय योगदान के लिए ‘दादा साहेब फाल्के’ पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। ये वे महिलाएं हैं जिन्होंने पुरुषों के क्षेत्र में प्रवेश कर न सिर्फ अपने अभिनय क्षमता से इतिहास रच डाला बल्कि सामाजिक वर्जनाओं को तोड़ने का भी काम किया।
देविका देवी : देविका देवी हिंदी सिनेमा में ‘फर्स्ट लेडी ऑफ इंडियन सिनेमा’ थी। कहते हैं कि मूवी माफिया कभी नहीं चाहता था कि वह कामयाबी हासिल करें। जब देविका देवी ने फिल्मों में कदम रखा तब फिल्मों में काम करने वाली महिलाओं के काम के दर्जे को वेश्यावृति के दर्जे के बराबर माना जाता था। लेकिन देविका ने समाज व इस तरह की रूढ़िवादी सोच को तोड़ने का काम किया। सिनेमा में अपने अभिनय से अपनी काबिलियत को साबित किया। उनकी दादी ठाकुर रवींद्रनाथ टैगोर की बहन थीं। वर्ष 1933 में देविका की पहली फिल्म आई ‘कर्मा’। इसमें देविका ने चार मिनट का लंबा किसिंग सीन देकर हिंदी सिनेमा में खलबली मचा दी। इसे लेकर काफी विवाद भी हुआ लेकिन देविका डटी रहीं। उन्होंने अपनी अदाकारी का लोहा मनवाया।
देविका व अशोक कुमार की जोड़ी देश-विदेश में काफी हिट रही। ‘कर्मा’, ‘जवानी की हवा’, ‘जन्मभूमि’, ‘ममता और मियां बीवी’, ‘जीवन नैया’, ‘अछूत कन्या’, ‘प्रेम कहानी’, ‘जीवन प्रभात’, ‘निर्मला’, ‘वचन’, ‘अंजान’ इनकी प्रमुख फिल्में थीं। हिंदी सिनेमा में उल्लेखनीय योगदान के लिए वर्ष 1969 में इन्हें ‘दादा साहेब फाल्के’ पुरस्कार प्रदान किया गया। यह पुरस्कार पाने वाली वह पहली अभिनेत्री थी। वर्ष 1958 में पद्यश्री, 1990 में सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार भी उनकी झोली में आए। फरवरी 2011 में संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने उनके जीवन की स्मृति पर एक डाक टिकट भी जारी किया।
सुलोचना (रूबी मेयर्स) : सुलोचना को वर्ष 1973 में ‘दादा साहेब फाल्के’ पुरस्कार मिला। वर्ष 1930 के दौर में यह शीर्ष अभिनेत्री थी। इनकी शुरुआत मूक फिल्मों से हुई फिर बोलती फिल्मों में भी उन्होंने अपने अभिनय प्रतिभा का लोहा मनवाया। सिनेमा क्वीन, टाइपिस्ट, गर्ल, माधुरी, अनारकली, हीर रांझा, सुलोचना, इंदिरा बीए, बाज, नील कमल, खट्टा-मीठा इनकी प्रमुख फिल्में थीं।
कानन देवी : कानन देवी बंगाल की पहली अभिनेत्री थीं जिन्हें ‘दादा साहेब फाल्के’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वह गायिका व फिल्म निर्माता भी थीं। उनका मूल नाम कानन बाला था। ‘मा’ं, ‘मुक्ति’, ‘जवाब’, ‘हॉस्पिटल’, ‘वनफूल’, ‘फैसला’, ‘आशा’, ‘राजलक्ष्मी’ इनकी प्रमुख फिल्में थीं। वर्ष 1949 में कानन देवी ने फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कदम रखा। ‘श्रीमती पिक्चर्स’ के बैनर तले कई सफल फिल्मों का निर्माण किया। उन्होंने तीन दशक से अधिक समय तक 60 से अधिक फिल्मों में काम किया। ‘आशा’, ‘मेजो दीदी’, ‘नव विघान’, ‘दर्प चूर्ण’, ‘अनन्या’, ‘वामुनेर’, ‘अभया ओ श्रीकांता’, ‘आधरे आलो’ इनकी प्रमुख फिल्में थीं। अपनी निर्मित फिल्मों, पार्श्वगायन व अभिनय के जरिए कानन देवी ने दर्शकों के बीच खास पहचान बनाई। यही नहीं जब कानन बाला 10 साल की थीं तो उनके पिता का देहांत हो गया। इतनी छोटी उम्र में परिवार की आर्थिक जिम्मेदारी उनके सिर पर आ गई। वर्ष 1976 में इन्हें ‘दादा साहेब फाल्के’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। बाद में इन्हें भारत सरकार ने ‘पदमश्री’ से भी सम्मानित किया।
दुर्गा खोटे : यह अभिनेत्री हिंदी सिनेमा में अपने उल्लेखनीय योगदान के लिए ‘दादा साहेब फाल्के’ पुरस्कार, ‘पद्मश्री’ से सम्मानित हो चुकी हैं। अभिनय के अलावा दुर्गा खोटे ने लंबे समय तक लघु फिल्मों, वृत्त चित्रों, विज्ञापनों और धारावाहिकों का भी निर्माण किया। यह हिंदी व मराठी की प्रसिद्ध अभिनेत्री रहीं। इन्होंने कई हिट फिल्में दी। चरित्र भूमिकाओं में भी इन्होंने दमदार अभियन किया। 200 फिल्मों के अलावा कई नाटकों में भी इन्होंने अभिनय किया। फिल्मों के साथ ही कई सामाजिक वर्जनाओं को तोड़ने में इन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यूं तो इनका जीवन बेहद सुखद नहीं रहा। 26 साल की उम्र में इनके पति का निधन हो गया। इनका घरेलू जीवन बेहद दुखद व कठिन रहा। पति की मृत्यु के बाद दो बच्चों की जिम्मेदारी इनके सिर पर आ गई। बच्चों की परवरिश की खातिर यह फिल्मों में आ गईं। यह वह समय था जब फिल्मों को अच्छी नजर से नहीं देखा जाता था। यह फिल्मों का मूक दौर था। ‘फरेबी जाल’ इनकी पहली फिल्म थी। दुर्गा खोटे की कामयाबी ने कई महिलाओं/ लड़कियों को फिल्मों की तरफ आने के लिए प्रेरित किया। इसके बाद फिल्मों से जुड़ी सामाजिक वर्जनाएं भी टूटी और सिनेमा के प्रति एक अच्छा माहौल बनना भी शुरू हुआ। वह कई पीढ़ियों की अभिनेत्रियों की प्रेरणा स्रोत बनी रहीं। हिंदी फिल्मों में मां की भूमिका को जीवंत करने के लिए भी उन्हें याद किया जाता है। उन्होंने मुगल-ए-आजम में जोधाबाई, भरत- मिलाप में केकैयी की भूमिका को अपने अभिनय क्षमता से जीवंत कर दिया। यही वजह है कि हिंदी सिनेमा में उल्लेखनीय योगदान के लिए दुर्गा खोटे को वर्ष 1983 में ‘दादा साहब फाल्के’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इन्हें 1958 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 1968 में ‘पद्मश्री’ एवं 1947 में सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री का फिल्म फेयर पुरस्कार भी प्राप्त हो चुका है। उन्होंने ‘मी दुर्गा खोटे’ नाम से अपनी आत्मकथा भी लिखी है।
लता मंगेश्कर : लता मंगेश्कर ने 36 भाषाओं में गाने गाये। हिंदी में उनके 1000 से अधिक गाने रिकॉर्ड हुए। उन्होंने अपने करियर की शुरुआत अभिनय से की थी। फिर वह मुंबई आईं। सिंगिग के क्षेत्र में काम शुरू किया और बेहद सफल रहीं। उन्होंने ‘स्वर कोकिला’ के रूप में अपनी पहचान बनाई। वर्ष 1959 में ‘मधुमति’, 1963 में ‘बीस साल बाद’, 1966 में ‘खानदान’ व 1970 में ‘जीने की राह’ फिल्म के लिए लता को फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वर्ष 1989 में ‘दादा साहेब फाल्के’ पुरस्कार, वर्ष 1993 में ‘लाइफ टाइम अचीवमेंट’ पुरस्कार, वर्ष 1996 में ‘राजीव गांधी राष्ट्रीय सद्भावना’ पुरस्कार से वह सम्मानित हुईं। वर्ष 1993 में फिल्म फेयर लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार, वर्ष 1999 में ‘पद्म विभूषण’, वर्ष 1969 में ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किया गया। वर्ष 1972, 1975, 1990 में उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार व 1958, 1962, 1965, 1969, 1993, 1994 यानी 6 बार फिल्म पुरस्कार मिला है। देश के
सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से भी वह सम्मानित हो चुकी हैं। ये पुरस्कार बताते हैं कि लता मंगेश्कर का भारतीय सिनेमा में कितना योगदान रहा है।
आशा भोंसले : आशा भोंसले जिनका पूरा नाम आशा
गणपतराव भोंसले था। वह लता मंगेश्कर की छोटी बहन हैं। उन्होंने फिल्मी व गैर फिल्मी करीब 16 हजार से अधिक गाने गाये। एक नहीं दो नहीं पूरे 14 भाषाओं में उन्होंने गाने रिकॉर्ड कराए। वर्ष 1948 में फिल्म ‘चुनरिया’ में उन्होंने सावन आया गाना गाया। इसके बाद वह आगे निकलती चली गईं। फिल्मी जगत में तो कई लोग उन्हें लता मंगेश्कर से भी अधिक प्रतिभावान मानते हैं। आशा ने शास्त्रीय संगीत जगत के साथ ही पाप संगीत में भी अपना जादू बिखेरा। आरडी वर्मन से उन्होंने दूसरी शादी की। उनकी पहली शादी त्रासदीपूर्ण रही थी लेकिन इसका प्रभाव उन्होंने अपने संगीत पर नहीं पड़ने दिया। वर्ष 1967 में ‘नया दौर’, 1966 में ‘तीसरी मंजिल’, 1981 में ‘उमराव जान’, 1995 में ‘रंगीला’ में गाये गाने इनके जीवन में मील के पत्थर साबित हुए। वर्ष 2000 में आशा को ‘दादा साहेब फाल्के’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
आशा पारेख : बीते 30 सितंबर 2022 को ‘दादा साहेब फाल्के’ पुरस्कार से सम्मानित हुईं आशा पारेख बहुमुखी प्रतिभा की धनी रही हैं। वह एक बेहतर शास्त्रीय नृत्यांगना भी हैं। बाल कलाकार से शुरू हुआ इनका फिल्मी सफर अभिनेत्री, निर्देशक, निर्माता के तौर पर आगे बढ़ता गया। इन्होंने 95 से अधिक फिल्मों में काम किया। वर्ष 1950 से 1973 तक उनका हिंदी सिनेमा में एकछत्र राज रहा। पहले 10 साल की उम्र में बतौर बाल कलाकार मां व बाप-बेटी फिल्म के जरिए अपनी अदाकारी दिखाई तो वहीं ‘कटी पतंग’, ‘मेरा गांव-मेरा देश’, ‘तीसरी मंजिल’, ‘लव इन टोक्यो’, ‘आया सावन झूम के’ सुपरहिट फिल्मों के जरिए अपनी कलाकारी दिखाई। ‘सर आंखों पर’ उनकी आखिरी फिल्म थी। वर्तमान में आशा पारेख ‘कारा भवन’ नाम से एक डांस एकेडमी चला रही हैं। साथ ही बीसीजे हॉस्पिटल एंड आशा पारेख रिसर्च सेंटर का मुंबई में संचालन भी कर रही हैं। उन्हें 1992 में ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया गया। वह 11 बार ‘लाइफ टाइम अचीवमेंट’ अवॉर्ड से भी सम्मानित हो चुकी हैं। वह केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड की पहली महिला अध्यक्ष भी रही हैं। सिनेमा में वह ‘द हिट गर्ल’ के नाम से मशहूर थीं। ‘दादा साहेब फाल्के’ पुरस्कार पाने वाली वह सातवीं महिला हैं।
ये सभी ऐसी महिलाएं रहीं जिन्होंने फिल्म जगत में अपने अभिनय से अमिट छाप तो छोड़ी ही वहीं ये सैकड़ों उन महिलाओं के लिए प्रेरणास्रोत बनीं जिन्होंने फिल्मी दुनिया में अपनी किस्मत अजमाई और कामयाब हुईं। इन्होंने सिनेमा की तरफ करियर बनाने वालों की राह आसान की। आज पुरुष वर्चस्व वाले फिल्मी जगत में हजारों महिलाएं अलग-अलग विद्या में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रही हैं। ये सातों महिलाएं ‘दादा साहेब फाल्के’ पुरस्कार से सम्मानित हैं। अभी तक 51 दादा साहेब फाल्के पुरस्कार प्रदान किए जा चुके हैं लेकिन महिलाओं के हिस्से सात ही आ पाए हैं जबकि फिल्मी दुनिया में एक से एक ऐसी अभिनेत्रियां, गायिकाएं, कोरियोग्राफर, निर्माता, निर्देशक हैं जिन्होंने हिंदी सिनेमा को समृति किया है लेकिन सरकारी कृपा उन पर उस रूप में नहीं बरसी है जैसी कि बरसनी चाहिए।