अमेजन प्राइम वीडियो की बहुचर्चित वेब सीरीज ‘पंचायत’ का चैथा सीजन 24 जून को जारी हुआ। ग्रामीण भारत की आत्मा को चित्रित करती बहुचर्चित वेब सीरीज ‘पंचायत-4’ की यह श्ृंखला पहले तीन भागों से दर्शकों के दिलों में एक खास जगह बना चुकी है। अब देखना है कि चैथे सीजन में भी वही गर्मजोशी, हास्य और भावनात्मक गहराई बनी रहेगी या नहीं क्योंकि पहले तीनों सीजन के मुकाबले सबसे कमजोर सीजन-4 है। इसमें आपको ऐसे सीन नहीं मिलेंगे जो याद रह जाएं
अमेजन प्राइम वीडियो की बहुचर्चित वेब सीरीज ‘पंचायत’ का चैथा सीजन 24 जून को जारी हुआ। ग्रामीण भारत की आत्मा को चित्रित करती यह श्ृंखला अपने तीन भागों से दर्शकों के दिलों में एक खास जगह बना चुकी है। लेकिन क्या चैथे सीजन में भी वही गर्मजोशी, वही हास्य और भावनात्मक गहराई बनी रही है? जवाब है- आधा हां, आधा नहीं। क्योंकि अब तक मिले रिव्यू से तो यही पता चलता है कि सीजन-4 पंचायत के पहले तीनों सीजन के मुकाबले सबसे कमजोर सीजन है। इस सीजन में आपको ऐसे सीन नहीं मिलेंगे जो याद रह जाएं। ऐसा कोई सीन नहीं है जिसे देखकर आप पेट पकड़कर हंसें। पंचायत के इस चैथे सीजन में अभिनय तो सबका अच्छा है लेकिन राइटिंग कमजोर है। जहां एक ओर कहानी के कुछ अंश पुराने किस्सों की स्मृति ताजा करते हैं, वहीं कई मोड़ों पर यह सीजन अपनी मुख्यधारा से हटता दिखाई देता है।
राजनीति की छाया में फुलेरा
सीजन चार की कहानी मुख्यतः पंचायत चुनावों के इर्द-गिर्द बुनी गई है। फुलेरा गांव अब पहले से ज्यादा राजनीतिक चेतना से जागृत है। गांव की वर्तमान प्रधान मंजू देवी और विपक्ष की क्रांति देवी के बीच गहमागहमी से भरा चुनावी संघर्ष इस सीजन की रीढ़ है। चुनाव की हलचलों, आरोप- प्रत्यारोपों और गांव में खिंचती राजनीतिक रेखाओं को बड़ी कुशलता से दिखाया गया है। एक ओर जहां सचिव जी ने कैट की परीक्षा उत्तीर्ण कर नई दिशा की ओर कदम बढ़ाया है, वहीं दूसरी तरफ प्रधान जी को चुनाव में मिली हार सीजन के अंत तक दर्शकों को भावुक कर जाती है। हालांकि कहानी में राजनीतिक गहराई है लेकिन इसकी गति कहीं-कहीं धीमी प्रतीत होती है। कई दर्शकों ने शिकायत की है कि इस बार श्ृंखला में वह पुराना ‘पंचायती खुमार’ नहीं दिखाई देता जो पहले चुटकीले संवादों और रोजमर्रा के व्यंग्य से परिपूर्ण होता था। कई दृश्य भावुकता से भरे हैं परंतु कहीं-कहीं उनमें खिंचाव और दोहराव की अनुभूति होती है।
कलाकारों का सहज अभिनय फिर बना आधार
‘पंचायत’ की सबसे बड़ी ताकत हमेशा उसके कलाकार रहे हैं और इस बार भी यह पक्ष मजबूती से खड़ा है। मुख्य भूमिका में अभिषेक त्रिपाठी (जितेंद्र कुमार) एक बार फिर उसी हिचक और हिम्मत के द्वंद्व में उलझे नजर आते हैं। वहीं पंचायत की मुखिया मंजू देवी (नीना गुप्ता) और उनके पति प्रधान जी (रघुबीर यादव) अपने संवादों से फिर दर्शकों का ध्यान खींचते हैं। वीणा देवी, विकास और प्रहलाद जैसे सहायक किरदार भी अपने संवादों और मौन अभिनय से दिल जीतते हैं।
भावनाओं की गहराई में आई कमी
‘पंचायत’ की पहचान रही है उसकी संवेदनशीलता-चाहे वो मां-बेटे का सम्बंध हो या गांव-सरकार के बीच की खाई। लेकिन इस बार, जहां राजनीतिक व्यंग्य को केंद्र में रखा गया, वहां भावनात्मक गहराई पिछड़ती दिखाई दी। सीजन का अंत भी कई दर्शकों को अधूरा और हल्का लगा। सोशल मीडिया पर प्रतिक्रियाओं में इसे ‘स्लो एंड वीक क्लोजिंग’ करार दिया गया है।
तकनीकी पक्ष और निर्देशन
निर्देशक दीपक कुमार मिश्रा ने इस सीजन में भी कैमरे के माध्यम से गांव के दृश्य, पगडंडियां, बिजली के खम्भे और चैपाल को जीवंत बनाया है। संगीत संयोजन साधारण है पर दृश्यों के अनुकूल रहता है। संवाद विशेषकर ग्रामीण बोली और व्यंग्यात्मक पंक्तियां पूर्ववत प्रभावशाली बनी रहती हैं।
दर्शकों की मिश्रित प्रतिक्रियाएं
सोशल मीडिया पर सीजन-4 को लेकर मिश्रित प्रतिक्रिया देखने को मिली हैं। जहां कुछ दर्शकों ने इसे ‘गम्भीर, परिपक्व और अर्थपूर्ण’ करार दिया, वहीं कुछ ने इसे ‘धीमा अनावश्यक रूप से लम्बा और पुराने पंचायती मजे से दूर’ बताया। चुनावी राजनीति का चित्रण यथार्थ के करीब है, पर इससे श्ृंखला की मौलिक मासूमियत प्रभावित होती दिखती है। ‘पंचायत सीजन-4’ एक बार फिर फुलेरा की गलियों में दर्शकों को टहला ले जाता है लेकिन इस बार वो ठहराव, जो पहले भागों में मन को छू जाता था कहीं-कहीं गुम नजर आता है।