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यथार्थवादी सिनेमा के पैमाने पर खरी उतरती

पिछले दिनों ओटीटी प्लेटफॉर्म नेटफ्लिक्स पर एक फिल्म रिलीज हुई थी जिसका नाम ‘भक्षक’ है। निर्देशक ने इस फिल्म के जरिए मुज्जफरपुर शेल्टर होम में बच्चियों के साथ हुए अत्याचार की कहानी दिखाने की कोशिश की है। फिल्म का निर्देशन पुलकित ने किया और इसको आईएमडी पर 7.2 की रेटिंग मिली है। इस सप्ताह हम ऐसी ही फिल्मों का जिक्र करेंगे जिनके जरिए समाज के ज्वलंत मुद्दे उठाए गए हैं

बॉलीवुड में बीते कुछ वर्षों से कई ऐसी फिल्में आई हैं जो समाज को आईना दिखाने वाली हुई हैं। इनमें से कुछ फिल्में सिस्टम में भ्रष्टाचार, राजनीतिक हस्तक्षेप, सामाजिक सुधार को लेकर बनी हैं तो कुछ फिल्मों ने सत्य घटनाओं पर आधारित समाज में फैली कुरीतियों को उजागर करने का काम किया है। अब चाहे 1983 में रिलीज हुई फिल्म ‘अर्धसत्य’ हो जिसने भारतीय पुलिस सिस्टम के सामाजिक राजनीतिक परिदृश्य और उसके मानसिक मूल्यों की व्याख्या की थी या 1986 में रिलीज हुई फिल्म ‘अंकुश’ जिसने युवाओं की बेरोजगारी के कारण हिंसा की तरफ बढ़ते कदमों को फिल्म के जरिए उठाया गया या फिर फिल्म ‘न्यूटन’ जिसमें मतदान के दौरान होने वाली हेराफेरी और वोटिंग जैसे मुद्दो को उठाया गया हो। उस समय समाज में हो रही घटनाओं को लेकर फिल्में बनती थीं। लेकिन आज का दौर में इस तरह की फिल्में देखने को नहीं मिलती हैं। थोड़ी-बहुत कोशिश वेबसीरीज के जरिए की जा रही है जैसे पिछले दिनों ओटीटी प्लेटफॉर्म नेटफ्लिक्स पर एक फिल्म रिलीज हुई थी जिसका नाम ‘भक्षक’ है। निर्देशक ने इस फिल्म के जरिये मुज्जफरपुर शेल्टर होम में बच्चियों के साथ हुए अत्याचार की कहानी दिखाने की कोशिश की है। फिल्म का निर्देशन पुलकित ने किया और इसको आईएमडी पर 7.2 की रेटिंग मिली है। इस सप्ताह हम ऐसी फिल्मों का जिक्र करेंगे जिनके जरिए समाज के ज्वलंत मुद्दे उठाये गए हैं।

 

‘भक्षक’ की कहानी
नेटफिक्स पर फरवरी 2024 में रिलीज हुई फिल्म ‘भक्षक’ को दर्शकों ने खूब सराहा है। इस फिल्म में मुख्य भूमिका में अभिनेत्री भूमि पेडनेकर और अभिनेता संजय मिश्र हैं। भूमि पेडनेकर (वैशाली सिंह) बिहार के मुजफ्फरपुर जिले की स्वतंत्र पत्रकार हैं जो एक छोटा-सा न्यूज चैनल ‘कोशिश’ चलाती हैं। संजय मिश्रा (भास्कर सिंह) जो कि वैशाली के न्यूज चैनल में कैमरामैन का रोल निभा रहे हैं। वैशाली को एक रात सूत्र के जरिए रिपोर्ट मिलती है कि मुजफ्फरपुर शेल्टर होम में रह रहीं बच्चियों के साथ दुष्कर्म किया जा रहा है। सूत्र वैशाली सिंह को यह भी बताता है कि जो भी बच्ची इस बलात्कार का विरोध करती है, उसका नामोनिशान ही मिटा दिया जाता है। इस रिपोर्ट से यह भी खुलासा होता है कि राज्य सरकार बीते तीन महीने से इस शेल्टर होम पर कोई कार्रवाई नहीं कर पाई है। क्योंकि शेल्टर होम का संचालन एक बड़े न्यूज चैनल का मालिक बंसी साह (आदित्य श्रीवास्तव) के हाथों में है। बंसी साहू के वर्तमान राजनीति में मजबूत संबंट्टा हैं। वैशाली सिंह इस शेल्टर होम में बच्चों के साथ हो रहे अत्याचार की सच्चाई को उजागर करने का प्रयास करती है। बंसी के कारनामों को बेनकाब कर वैशाली ने लड़कियों को न्याय दिलाने की ठानी है। शेल्टर होम की रिपोर्ट को वैशाली सिंह अपने न्यूज चैनल में दिखाती हैं तो उनको ट्टामकी मिलनी शुरू हो जाती है। परिवार भी वैशाली का साथ छोड़ देता है। कैमरामैन भास्कर ही उनके इकलौते साथी और सारथी हैं। लेकिन वैशाली अपने कर्तव्य से पीछे नहीं हटती हैं वो खोजते, तलाशते उस युवती के पास पहुंच जाती है जिसने कभी इस शेल्टर होम में खानसामा की नौकरी की थी। कहानी में एक ट्विस्ट एक महिला आईपीएस अफसर का है जो सूबे की सियासत की कठपुतली बन चुकी व्यवस्था की डोर से बंधी है। अब जो कुछ करना है, वह खुद वैशाली सिंह को ही करना है।

अर्धसत्य: भले ही पुलिस महकमे में व्याप्त भ्रष्टाचार लेकर कई फिल्में आ चुकी हैं लेकिन 1983 में आई फिल्म ‘अर्धसत्य’ आज भी प्रासंगिक है। पुलिस महकमे पर आज तक बनी फिल्मों में यह एक ऐसी फिल्म है जिसने सिस्टम पर बेहद बारीक समझ का परिचय दिया है। वैसे बॉलीवुड में पुलिस को लेकर कई फिल्में बनी हैं लेकिन अधिकांश फिल्मों में व्यक्ति विशेष और भीड़तंत्र की मानसिकता को दिखाया गया है। ‘सिंघम’, ‘दबंग’, ‘सिंबा’ आदि इसी तरह की भीड़तंत्र मानसिकता आधारित फिल्में हैं। इसके उलट अर्धसत्य’ भारतीय पुलिस सिस्टम के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य और उसके मानसिक मूल्यों की व्याख्या है। ‘अर्धसत्य’ का मुख्य किरदार अनंत वेलणकर (ओम पुरी) ने निभाया है। अनंत वेलणकर बनना तो प्रोफेसर चाहते थे लेकिन पिता (अमरीश पूरी) के दबाव के कारण पुलिस विभाग को ज्वाइन कर लेते हैं। अनंत वेलणकर ‘नेक और कडक’ अधिकारी होते हैं लेकिन सिस्टम में फैले भ्रष्टाचार, राजनीतिक हस्तक्षेप उसके आदर्शवाद को चोट पहुंचाते हैं। वह सिस्टम को अकेला सुधारने का प्रयास करता है। उसके साथी बार-बार यह आगाह करते हैं तुम अकेले सिस्टम को सुधारने का प्रयास मत करो चुपचाप अपनी नौकरी करो नहीं तो तुम भी माइक लोबो की तरह अकेले हो जाओगे। माइक लोबो (नसीरुद्दीन शाह) पुलिस विभाग का एक ईमानदार अफसर हुआ करता था। जिसने अकेले सिस्टम को सुधारने का प्रयास किया था पर सिस्टम के दबाव के चलते वे सड़क पर भीख मांगने पर मजबूर हैं। फिर भी अनंत वेलणकर अपने संघर्ष की लड़ाई लड़ते हैं और एक दिन सिस्टम के दबाव के चलते वह अपनी कस्टडी में एक व्यक्ति की हत्या कर देते हैं और दूसरा माइक लोबो बन जाते हैं। यह फिल्म एक भारतीय पुलिस कर्मचारी के संघर्षों, उसकी अच्छाइयों, उसकी कमियों पर एक दुर्लभ व्याख्या है।

मातृभूमि: 2003 में आई ‘मातृभूमि’ फिल्म ऐसे समाज की कल्पना थी जहां कन्या भ्रूण हत्या के बाद समाज का संतुलन बिगड़ गया। ऐसे में आदमियों को शादी और परिवार के लिए लड़कियां नहीं मिल रही थी जिससे बढ़ते अपराधों को इस फिल्म में दिखाए गया है। फिल्म की कहानी बिहार के एक गांव से शुरू होती है। उस गांव का एक जोड़ा जिसको बेटे की लालसा होती है लेकिन पत्नी की डिलीवरी के बाद निराश परिवार बच्ची के पैदा होते ही दूध की बाल्टी में डुबो देता है। ऐसे ही कई साल बाद यहां लड़कियों की कमी हो जाती है। गांव में बस वृद्ध महिलाएं बचती हैं। आक्रामक युवक शादी करना चाहते हैं। उन्हें किसी भी कीमत पर पत्नी चाहिए, इसके लिए वे मानव तस्करी तक के लिए तैयार हैं। मनीष झा के निर्देशन में बनी इस फिल्म में लड़कियों को भ्रूण में ही मार देने की वजह से पैदा हुई ये स्थिति रोंगटे खड़े करने वाली है।

न्यूटन: 2017 में प्रदर्शित फिल्म न्यूटन समाज में बहुत ही प्रासंगिक संदेश छोड़ती है। मतदान हमारे देश का ज्वलंत मुद्दा रहा है। लेकिन लोगों को वोटिंग मशीन से कैसे वोट करना है या किस पार्टी को वोट देना है पता नहीं होता है। फिल्म की कहानी छत्तीसगढ़ के दंडकारण्य के जंगल में ले जाएगी जहां वोटिंग मशीन एक खिलौना है जिसमें जो बटन अच्छा लगे उसे दबा दो जिसका विरोध न्यूटन (राजकुमार राव) करते हैं। उनकी कोशिश होती है कि वो लोगों को वोट का महत्व समझा सकें और उन्हें जागरूक बना सकें। लेकिन नक्सली इलाके में चुनाव करवाना इतना आसान नहीं है। इतना सब जानने के बावजूद राजकुमार राव उस इलाके में चुनाव ठीक से कराने की जिद ठान लेते हैं। वोटिंग जैसे मुद्दे पर बनाई इस फिल्म की फिल्म समीक्षकों ने काफी तारीफ की है।

अंकुश: ‘अंकुश’ फिल्म 1986 में आई एक एक्शन ड्रामा फिल्म है जिसका निर्देशन एन चंद्रा ने किया है। इस फिल्म में 1980 के दौर की कहानी को दिखाया गया है। जब बड़ी मिल्स के साथ छोटे उद्योग बंद हो चुके थे। पड़े लिखे लोग बेरोजगार हो चुके थे, लोकल एरिया में गुंडागर्दी की गुट बाजी होने लगी थी। इस गुंडा गर्दी में कैसे चार पड़े लिखे नौजवान बहककर अपने लक्ष्य से भटक जाते हैं और कानून अपने हाथ में ले लेते हैं। फिल्म आखिरी में एक संदेश भी देती है कि हमारी सोसायटी में एक ऐसा अंकुश लागाना चाहिए जो एक इंसान को दूसरे इंसान से प्यार करना सिखाए, हिंसा का जवाब हिंसा से नहीं दिया जा सकता है।

माय ब्रदर निखिल: 2005 में रिलीज हुई इस फिल्म के डायरेक्टर ओनिर ने फिल्म में होमोसेक्शुअलिटी और असुरक्षित यौन संबंधों से होने वाले रोग जैसे एड्स को बेहद खूबसूरती से दिखाया। यह फिल्म गोवा की पृष्ठ भूमि पर आधारित निखिल के जीवन को 1987 से 1994 तक विस्तृत करती हैं जब एड्स के प्रति लोगों की जागरुकता काफी कम थी। फिल्म में दिखाया गया है कि कैसे एक लड़के को एड्स पॉजिटिव पाए जाने पर घर से निकाल दिया जाता है। उसकी जिंदगी पूरी तरह बदल जाती है। लोगों की सोच में बदलाव लाने के लिए फिल्म में संजय सूरी, जूही चावला और पूरब कोहली के जरिए अच्छी कोशिश की गई।

‘भक्षक’ फिल्म का रिव्यू: निर्देशक ने इस फिल्म के जरिए छोटे शहरों के उन पत्रकारों के साहस को दिखाने की कोशिश की है जो समय की धूल के साथ कहीं खो जाते हैं। उनके गढ़े किरदारों में एक भोलापन जरूर है, लेकिन वो सत्ता और उसकी ताकत के सामने सच बोलने का साहस करते हैं। वह सिकुड़ती सोशल मीडिया दुनिया में बढ़ती उदासीनता पर भी बात करते हैं। फिल्म की खास बात यह है कि उन्होंने मुद्दे की संवेदनशीलता को समझते हुए इसे कमर्शियल बनाने वाले कोई तत्व जैसे शोर-शराबे वाले बैकग्राउंड स्कोर या फास्ट कट वाले सीन नहीं डाले हैं। इस कारण यह फिल्म थकाऊ और थोड़ी बोरिंग बन जाती है। कहानी कहने में भी जल्दबाजी की गई है, यहां तक कि डर का भाव भी ठीक से उभर नहीं पाता है। इंडस्ट्री में भूमि पेडनेकर उन भरोसेमंद कलाकारों में से एक हैं, जिन्होंने लगातार मजबूत महिला होने का किरदार निभाया है।

कुल मिलाकर ‘भक्षक’ न्याय के लिए एक ऐसी लड़ाई बनकर रह जाती है, जो बड़ी आसान सी लगती है। आप फिल्म देखते हुए फंसी हुई लड़कियों की दुर्दशा को तो महसूस करते हैं, लेकिन फिल्म आपकी भूख को न तो बढ़ा पाती है और न ही मिटा पाती है। ठीक ऐसे ही अन्य फिल्म के साथ हुआ है।

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