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ऑस्कर को आकर्षित करती ‘लनाना’

भूटान, पूरी दुनिया में इकलौता ऐसा देश है जहां की परंपराएं बिल्कुल अलग हैं। आधुनिक दुनिया से परे ये देश आज भी बौद्ध सभ्यताओं पर अपना जीवन-यापन करता है। भूटान देश की नेशनल इन्कम जीडीपी (ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट) द्वारा नहीं बल्कि जीएनएच (ग्रॉस नेशनल हैप्पीनेस) द्वारा मापी जाती है। भूटान के इस अनोखे कल्चर को प्रस्तुत करते हुए एक फिल्म का निर्माण किया गया है जिसका नाम है ‘लुनाना’ ‘ए याक इन द क्लासरूम’ जो हाल ही में ऑस्कर अवार्ड के लिए नॉमिनेट की गई है। इस फिल्म में भूटान के कल्चर की खूबसूरती को दिखाते हुए छोटे से गांव को रिप्रेजेंट किया गया है जो बेहद अलग और दिल को छू जाने वाली है।

फिल्म की खासियत
करीब 109 मिनट की इस फिल्म में एक यंग टीचर ‘उग्येन’ के जीवन के उस बदलाव की कहानी को बताया गया है जिसमें उसके जीवन को एक अलग रुख देकर जिंदगी को देखने का नजरिया ही बदल दिया है। उसे टीचिंग अधिकारियों द्वारा भूटान के एक छोटे से गांव ‘लुनाना’ में बच्चों को पढ़ाने के लिए भेजा जाता है। लुनाना गांव दुनिया की सबसे ऊंचाई वाले क्षेत्रों में से एक है। वहां का स्कूल लुनाना के सबसे ऊंचे क्षेत्र पर स्थित है। उग्येन टीचिंग आर्डर के बाद भूटान के लिए रवाना होता है तो उसे वहां पहुंचने में बहुत दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। वह आठ दिनों के लम्बे और कठिन रास्ते पर चलते हुए, ट्रेकिंग करते हुए, खराब सड़कों से गुज़रते हुए, बिना यातायात के साधनो के बाद लुनाना पहुंचता है।

उग्येन के लुनाना पहुंचने के बाद उसे बहुत सारी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। संसाधनों की अत्यंत कमी होने के कारण वहां जीवन यापन करना शुरू में उसके लिए बेहद मुश्किल होता है लेकिन वक्त के साथ-साथ वह वहां घुल-मिल जाता है। उसे एक स्कूल मिलता है जहां एक याक बंधा होता है। स्कूल में एक याक सुनने में बड़ा ही विचित्र लगता है लेकिन यही कहानी है इस फिल्म की जिसमें एक क्लासरूम में बच्चों के साथ एक याक भी मौजूद होता है।

फिल्म का विचार
फिल्म के लेखक व निर्माता ‘पावो चोयिग दोरजी’ कहते हैं कि, उन्होंने फिल्म को लिखते और बनाते वक्त इंटरनल खुशी को खुद भी महसूस किया है। ऐसे वक्त में जहां दुनिया ग्लोबलाइजेशन की ओर बढ़ रही है उसी दौर में एक ऐसा देश जो दुनिया की भागदौड़ से बिलकुल जुदा है। जहां के लोग आज भी सदियों पुरानी परंपरा पर अपना जीवन यापन करते हैं। डिजिटलाइजेशन और नए रिवाजों के बिना भी यह देश बेहद आकर्षित है। लेकिन वक्त के साथ-साथ यहां के लोग भूटान छोड़ने लगे हैं।
नई जिंदगी और सुविधाओं के रंगों की ओर खिंचते हुए हजारों लोग भूटान छोड़ नई दुनिया की ओर बढ़ रहे हैं। खुशियों की तलाश में खुशियों के जहान को छोड़ रहे हैं। मैं एक ऐसी कहानी बनाना चाहता था जहां की संस्कृति, परंपराओं, विचारधाराओं को सबकी नजरों के सामने लाकर उन्हें उन खुशियों से रूबरू कराया जाए जिसे वह छोड़ कर जाना चाहते हैं।

दोरजी जब इस फिल्म की स्टोरी लिख रहे थे तब एक 38 वर्षीय शिक्षक डेचेन शेरिंग से उनकी मुलाकात हुई, शेरिंग ने भूटानी हाइलैंड्स के स्कूलों के अपने अनुभवों को दोरजी संग साझा किया। शेरिंग ने ही दोरजी को अपनी कक्षा में एक याक होने की बात का जिक्र किया था। दोरजी कहते हैं उनके विचारों को सुनने के बाद वो उनमें इतना खो गए कि सोते-जागतें उनके मस्तिष्क में डेचेन के अनुभवों की तस्वीर खुद ब खुद बनने लगीं। वो अनुभव जैसे उनके हृदय में अपनी छाप बना रही थी बस वहीं से ‘लुनाना’ की शुरुआत हुई।

‘लुनाना’ की शुरुआत
फिल्म बनाने के शुरुआती दिनों में दोरजी के अनुभवों को हू ब हू एक फिल्म में उतारना असंभव सा लग रहा था। इस फिल्म को नेचुरल टच देने के लिए काफी समय लगा क्योंकि इसमें जिन किरदारों की जरूरत थी उन्हें वह पुराने फिल्मी चेहरों में नहीं दर्शाना कहते थे। जिसके लिए दोरजी ने भूटान से ही उन चेहरों को चुना जो पहले कभी स्क्रीन पर नहीं आये थे या जिन्होंने पहले कभी स्क्रीन नामक वस्तु के बारे में भी नहीं सुना था। ताकि फिल्म में मौलिकता को दर्शाया जा सके।
दोरजी का कहना है कि ‘इस फिल्म का निर्माण केवल लोगों के लिए नहीं किया गया है बल्कि इसके निर्माण का मुख्य कारण पूरी दुनिया को भूटानी परंपराओं की खूबसूरती को उजागर करना है। ताकि वहां रह रहे नागरिकों को यह समझाया जाये कि वह एक ऐसी जिन्दगी जी रहे हैं जो शायद वह आधुनिक दुनिया में रह कर नहीं जी सकते। यहां हम सब रोज अपनी आत्मा के सुख के लिए लड़ते हैं। वहीं एक देश ऐसा है जहां रहना ही बेहद सुकून भरा है। इस फिल्म का निर्माण दर्शकों को इस ‘मैजिकल वर्ल्ड’ के लिए दिल में जगह और स्नेह बनाने के लिए किया गया है।’ दोरजी का मानना है कि विश्व भर में जहां पूरी दुनिया ‘मैं और मेरा’ को लेकर चिंतित रहते हैं केवल अपने और अपने परिवार की सुविधाओं के बारे में सोचते हैं। इसी प्रवृत्ति को ध्यान में रखते हुए यह फिल्म दर्शकों में एक दूसरे के लिए प्रेम और सद्भावना को उजागर करने में सक्षम रही है।

दोरजी की यह फिल्म मानव को वापस बौद्ध धर्म की ओर ले जाती है। जिसमें व्यक्ति के जीवन का एकमात्र उद्देश्य खुशी पाना है। ऐसी खुशी जिसका आधार अंतरात्मा का सुकून है। जिस खुशी को दुनियावी जरूरतों को पूरा करके नहीं बल्कि आत्मा की जरूरतों को पूरा करने पर मिलती है। जीवन में खुशी आपकी आत्मा की संतुष्टि पर निर्भर करती है। ‘लुनाना’ फिल्म में पर्याप्त चीजों में अपने जीवन को सुखमय तरीके से गुजारना ही मुख्य उद्देश्य बनाया गया है। फिल्म में रोल कर रहे अभिनेताओं द्वारा उसे अच्छे से दर्शाया भी गया है।

फिल्म का लक्ष्य
यह फिल्म अपनापन, एकजुटता और एक ऐसे समुदाय की तलाश को दर्शाती है जो दुनिया की कोई आधुनिक तकनीक नहीं दे सकती है। यह फिल्म पूरी तरह भूटानी संस्कृति पर आधारित है। जिसमें एक व्यक्ति अपने जीवन की तलाश में आधुनिकीकरण से निकल कर ऐसी जगह पहुंचता है जहां सुविधाएं तो कुछ भी नहीं, लेकिन जीवन की असली महत्व की प्राप्ति उसे भूटान के एक छोटे से गांव लुनाना में होती है। एक ऐसा गांव जहां उसने प्रकृति को महसूस किया, उसे सुना, उसी को देखा जो उसके सामने अपनी पूरी कहानी कह रही थी। वह प्रकृति के इस रूप से पहली बार मिला था। उसने पहली बार खुद की आत्मा को प्रकृति से बात करते महसूस किया था। वही भावनाएं दोरजी ने इस फिल्म के जरिये सबको महसूस कराने की कोशिश की है और भली-भांति उसमें सक्षम भी हुए हैं।

भूटान के दौरे के दौरान वह एक फोटोग्राफर बने। वह जो महसूस कर रहे थे उसे फोटो के जरिये दुनिया तक पहुंचाना चाहते थे। उन्होंने फोटोज को एकत्रित किया जिसके बाद उनको उन तस्वीरों में लुनाना की एक फिल्म बनते हुए दिखने लगी और फिल्म का जिम्मा लेते हुए उन्होंने उसे फोटोज से बड़े परदे पर लाकर रख दिया। उनका प्रयास रंग लाया और यह फिल्म इतनी अच्छी प्रस्तुत हुई कि आज वह दुनिया में फिल्म के क्षेत्र में सर्वोपरि अवार्ड के लिए नॉमिनेट की गयी है।

फिल्म बनाने में दिक्कत
दोरजी कहते हैं कि ‘लुनाना’ फिल्म का निर्माण करना एक हिट फिल्म से भी अधिक कठिन था। क्योंकि लुनाना की शूटिंग एक ऐसी जगह पर होने जा रही थी जहां बिजली, नेटवर्क्स, और इंटरनेट जैसे साधन उपलब्ध नहीं थे। ऐसे में कैमरे का उपयोग करने और उसे चार्ज करने के लिए वहां सोलर सिस्टम लगाया गया जिससे बिजली बनाई गयी और काम शुरू किया गया। खाने की जरूरतों को पूरा करने के लिए मीलों दूर जाना पड़ता था। जलाने के लिए लकड़ियां मीलों दूर से ढोकर लानी पड़ती थी क्योंकि रात की ठंड सहन शक्ति से अधिक होती थी। दोरजी और उनकी टीम ने 75 दिन बिना शावर और बिस्तर के गुजारे जिससे उन्हें इस फिल्म को पूरा करने के लिए एक महत्वपूर्ण वजह मिली। अभिनय को वास्तविक टच देने के लिए दोरजी ने फिल्म की कासि्ंटग शुरू की जिसमें उन्होंने ऐसे किरदारों को चुना जो पहली बार अभिनय कर रहे थे या उनका जीवन उनके रोल से मेल खाता था।

टीचर उग्येन की भूमिका निभाने वाले ‘शेरब दोरजी’ संगीत करियर में आगे बढ़ना चाहते थे। घरेलु दिक्कतों के चलते वह ‘बार’ में गाना गाया करते थे। लुनाना की अभिनेत्री ‘पेम जम’ जिसने बेहद आकर्षित, मासूम स्कूली छात्रा का अभिनय किया है। पूरी फिल्म में लीड रोल करने वाली अभिनेत्री वास्तव में एक बिना मां, एक शराबी पिता और दादी के साथ एक छोटे से घर में रहती है। पेम जम लुनाना गांव से कभी बाहर नहीं रही। वह नहीं जानती कि सिनेमा में फिल्म देखना कैसा होता है। अब अगर यह फिल्म ऑस्कर अवार्ड जीतती है तो वह पहली बार लुनाना से बाहर निकल कर आधुनिक दुनिया में पैर रखेंगी।

क्या है ‘जीएनएच’
दक्षिण-पूर्व एशिया में भूटान बहुत छोटा-सा देश है लेकिन इसकी विशेषता इस कारण है कि यह खुशनुमा देश है। ‘ग्रॉसनेशनल हैप्पीनेस’ का मंत्र भी यही से दुनिया को मिला। ‘ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट’ यानी जीडीपी के पीछे दौड़ती दुनिया को भूटान ने याद दिलाया कि असल चीज तो खुशी है। दुनिया के दूसरे देशों में भौतिक वस्तुओं को ही खुशी का पैमाना माना जाता है। अगर किसी के पास आधुनिक टेक्नोलाजी वाला फोन नहीं है या उसकी हैसियत वह फोन खरीदने की नहीं है तो वह दुख महसूस करता है। भूटान में लोग भौतिकता के साथ-साथ अपनी आध्यात्मिक उपलब्धि का भी ख्याल करते हैं। वे इस बात की परवाह कम ही करते हैं कि उनके पास भौतिक संसाधन कितने हैं लेकिन इस बात के बारे में ज्यादा सोचते हैं कि वे कितने खुश हैं। पिछले कई वर्षों से भूटान की जीडीपी नियमित गति से आगे बढ़ रही है। बहुत ऊंची छलांग लगाने के बजाय उन्होंने तरक्की की गति को कायम रखा है। यहां लोग संसाधनों को ठीक से संभाल कर रखते हैं और इसलिए वे खुश रहते हैं। यहां के लोगों में संसाधनों का दोहन करने का लालच नहीं है। जितना हासिल है उसी में खुश रहना मंत्र है।

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