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‘बधाई हो’ के बाद ‘बधाई दो’

हर्षवर्धन कुलकर्णी द्वारा निर्देशित फिल्म ‘बधाई दो’ दर्शकों द्वारा काफी पसंद की जा रही है। इस फिल्म में बेहद सेंसिटिव मुद्दे की गहराई को दर्शाते हुए मॉडर्न जमाने की सोच को समझने का प्रयास किया गया है जिसका दर्शकों पर सीधा इम्पैक्ट भी देखा जा रहा है। वर्ष 2018 में आई फिल्म ‘बधाई हो’ के सीक्वेंस में ‘बधाई दो’ को बनाया गया है। ‘बधाई हो’ में जहां मिड ऐज प्रेगनेंसी को दर्शाया गया था वहीं ‘बधाई दो’ में ‘होमोसेक्सुअलिटी’ और उसके इर्द-गिर्द पाए जाने वाले स्टिग्मा को काफी गहराई से दर्शाने की कोशिश की गयी है। हमारे यहां बन रहे ‘मेन स्ट्रीम कंटेंट सिनेमा’ में पहले ऐसे कंटेंट का मजाक उड़ाया जाता है। बाद में उसकी गंभीरता को समझाया जाता है जो कि किसी भी विषय पर बात करने का टॉक्सिक तरीका है। जिसे इस फिल्म में भी देखा गया है।

‘बधाई दो’ की कहानी
‘बधाई दो’ की कहानी की शुरुआत होती है उत्तराखण्ड से। शार्दुल ठाकुर उत्तराखण्ड पुलिस में सब इंस्पेक्टर हैं जिनकी उम्र 32 साल दिखाई गई है। जिसमें इंडियन कल्चर में जिस तरह से उम्र को शादी से जोड़ा जाता है उसे दर्शाते हुए शार्दुल को शादी न होने के ताने और चुटकुलों का पात्र बनाया जाता है। वह अपनी फैमिली के द्वारा शादी को लेकर ताने सुन-सुनकर परेशान हो जाता है। वहीं दूसरी तरफ है सुमन सिंह जो फिजिकल एजुकेशन की एक स्कूल में टीचर है। इधर भी ऐसे ही हालात हैं। सुमन का परिवार शादी के लिए उसे सुबह-शाम ताने और बहाने करते हैं। सुमन काफी समय तक उसकी फैमली को अवॉइड करते-करते तंग आ चुकी है। इस फिल्म में शार्दुल और सुमन दोनों ही होमोसेक्सुअल हैं लेकिन यह बात इनके सिवा कोई नहीं जानता। दोनों ही अपनी इस स्पेशलिटी को लेकर पूरी लाइफ दुनिया और घरवालों से छुपाते आए हैं। रोजाना घरवालों की झिक-झिक और दुनिया के तानों से बचने के लिए यह दोनों आपस में शादी कर लेते हैं। जिसके बाद यह दोनों रूममेट की तरह रहना डिसाइड करते हैं और अपनी जिंदगी जीना शुरू करते हैं। दोनों इस सहमति के साथ शादी करते हैं कि वे अपने-अपने पार्टनर्स के साथ मिलकर रहेंगे लेकिन इंडियन फैमिली की डिमांड सिर्फ शादी तक ही सीमित नहीं रहती है। अब घर वालों को इनकी शादी के बाद इनका बच्चा भी चाहिए होता है जिसके बाद कहानी में रियल स्ट्रगल की शुरुआत होती है। अब फैमिली और इन दोनों के बीच असल घमासान शुरू होता है। जैसे ही बच्चे की बात आती है तब फैमिली वालों का पता चलता है कि यह दोनों ‘गे’ हैं और एक-दूसरे के साथ रूममेट की तरह रहते हैं। जैसा कि आपको सुनकर लग रहा होगा वैसा ही इस फिल्म में भी होता है। एक आम सी फैमिली में जैसे यह जानने के बाद बवंडर घर में आ गया हो, वैसा माहौल देखने को मिलता है जो कि इसके बाद सब को नॉन अक्सेप्टबल होता है।


एक बेहद दिल को छू जाने वाला सीन इस मुठभेड़ के दौरान सामने आता है जो इस मूवी की थीम भी है जिसमें शार्दुल बेहद भावुक तरीके से अपने मन की बात सुमन को समझा रहा होता है कि क्यों उसने सबसे ये चीज छुपाई। उसे बताने का डर नहीं था बल्कि उसको इस बात का डर था कि उसे कोई समझेगा नहीं। जिस तरह आज उसके साथ हो रहा है। इस मूवी में मिडिल क्लास फैमली की सिचुएशंस और फीलिंग्स को काफी खुले तरीके से दिखाया गया है। जिसमें एक मिडिल क्लास फैमली से होना और ऊपर से ‘गे’ होना कितना मुश्किल होता है। उसी तरफ आपका थोड़ा अलग होना और फिर उसे दुनिया और अपनी फैमली से छुपाना कितना ज्यादा मुश्किल होता है क्योंकि अगर हम उन्हें अपनी सिचुएशंस और फीलिंग्स को समझाते हैं, यह समझाने की कोशिश भी करते हैं तो हमारे दिल में सिर्फ एक ही डर होता है कि हमारी फैमली हमें समझेगी कि नहीं और यही इस फिल्म का मेन थीम है।

वैसे तो बॉलीवुड में होमोसेक्सुअलिटी को लेकर काफी फिल्में बनी हैं लेकिन इस फिल्म में मेन सेंटर एक मिडिल क्लास फैमली को बनाया गया है जो इसका दूसरी फिल्मों से अलग होना दर्शाता है। इस पूरी फिल्म में एक छोटे से शहर में रहने वाली मिडिल क्लास फैमली को अपने जीवन के उन पहलुओं और फिलिंग्स को समझाना है जो वह बचपन से दुनिया और फैमिली से छुपाते आए हैं लेकिन प्यार से ‘क्रांति या विवाद’ से नहीं। वैसे तो हमारी सोसायटी और हम अपने मेंटोलिटी काफी ज्यादा डेवेलप कर चुके है लेकिन फिर भी होमोसेक्सुअल लोगों को नॉर्मल नहीं समझा जाता है उन्हें आज भी अलग तरीके से देखा जाता है और उनके साथ अलग बर्ताव भी किया जाता है।

इस फिल्म में शार्दुल को एक पुलिस वाला दिखाया गया है। वैसे तो पूरी दुनिया को पुलिस वालों से डर लगता है लेकिन यह इकलौता ऐसा पुलिस वाला है जो खुद पुलिस से डरता है क्योंकि वह एक होमोसेक्सुअल ‘गे’ है। शार्दुल के शब्दों में कहें तो जैसे ‘रोबोकॉप होता है वैसे ही मैं होमोकोप हूं’ इंडिया में बनने वाली मूवीज में किसी भी मसले का ‘बर्ड आई व्यू’ दिखा दिया जाता है यानी कि वह चीज दूर से या ऊपर से किस तरह दिखाई देती है लेकिन ‘बधाई दो’ में होमोसेक्सुअलिटी के उन मसलों पर बात करती है जो उन्हें अपने रेगुलर लाइफ में फेस करने पड़ते हैं जैसे कि उनका अकेलापन, अपनी सेक्सुअलिटी के बारे में किसी से बात न कर पाना, अपनी फैमली का सपोर्ट ना होना तमाम तरह की छोटी मगर मोटी बातों को काफी हद तक खुलकर कर दिखाया गया है। लैवेंडर मैरिज कॉन्सेप्ट का एक फायदा यह भी है कि आप महिला और पुरुष दोनों का प्रोस्पेक्टिव अच्छे से दिखा सकते हैं क्योंकि दोनों का स्ट्रगल अलग-अलग होता है। हालांकि ‘बधाई दो’ उस बारे में ज्यादा बात नहीं करती है लेकिन जरूरी चीजों को अवाइड भी नहीं किया गया है।

‘बधाई दो’ में शार्दुल ठाकुर का रोल किया है राजकुमार राव ने जो सोसायटी में लड़कर रहने के बजाय उनसे छुपकर और बचकर रहना चाहता है और वहीं वह एक पुलिस वाला भी है जिसे दुनिया के सामने मजबूत और सख्त दिखना है। राजकुमार राव ने बड़े ही ग्रेसफुल तरीके से यह रोल किया है खासकर वह सीन जिसमें उन्हें वेनरेबल दिखना जरूरी है। वही भूमि पेडनेकर ने सुमन सिंह का रोल किया है सुमन एक इंडिपेंडेंट और मॉडर्न वुमन है, उसकी पर्सनालिटी में दिखता हैं कि वह कभी अपनी सेक्सुअलिटी को लेकर शर्मिंदा या एपोलिगेटिक नहीं रही है। टेक्निकली उनका यह रोल उनकी पर्सनालिटी को सूट करते हुए काफी जचता हुआ दिखाई दिया है।

चम् दरंग ने इस फिल्म में रिमझिम का रोल किया है जो भूमि की पार्टनर है। यह रिमझिम की पहली फिल्म है। उनका इस फिल्म में होना ही एक पॉजिटिव­­­­­चेंज है क्योंकि नॉर्थ इंडियन एक्ट्रेस को हमारी फिल्मों में कम दर्शाया जाता है जो रोल उन्हें दिए जाते हैं वह बिल्कुल फीके रोल होते हैं। ऐसे में दरंग एक मेन स्ट्रीम हिंदी फिल्म में लीड रोल में नजर आई हैं। गुलशन देवैया इस फिल्म में एक छोटे से किरदार में दिखाई दिए हैं जो फिल्म का सबसे प्यारा सरप्राइज फैक्टर है। इसके अलावा शीबा चड्ढा जैसे कैरेक्टर भी इस फिल्म का हिस्सा है। शिबा चड्डा को शार्दुल की मां के रोल में दिखाया गया है। ‘बधाई दो’ एक सेंसिबल फिल्म है एक जरूरी विषय पर पूरी गंभीरता से बात करती है। यह फिल्म अपने कोज को लेकर इतनी कमिटेड है कि आखिरी सीन तक होमोसेक्सुअलिटी को नोरमलाइज करने में लगी रहती है। जिस तरह हर फिल्म का एक स्ट्रक्चर होता है उसे कितने समय में और किस तरह दर्शाना है। ‘बधाई दो’ भी पूरी तरह से सामाजिक और पारिवारिक स्वीकार्यता की जद्दोजहद मे लगी रहती है। ऐसा नहीं है कि यह फिल्म गे या लेस्बियन होने को लेकर हमारा नजरिया एक दम से बदल देगी। साथ ही यह फिल्म
‘सेक्सुअलिटी’ को लेकर एक नई बहस भी छेड़ती है।

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