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फिल्मी विवादों का बदलता परिदृश्य

सिनेमा सिर्फ मनोरंजन का जरिया ही नहीं समाज में पनप रही कुरीतियों, समस्याओं और कुसंस्कृतियों को उजागर करने का सबसे बड़ा प्लेटफार्म भी है। सिनेमा जहां समाज में बदलाव लाने का काम करती है वहीं अपने साथ विवादों को भी जन्म देती है। सिनेमा और विवाद का रिश्ता एक तरह से चोली-दामन की तरह है। कला को जहां भगवान की देन माना जाता है वहीं विवाद के बगैर कला की कल्पना मुश्किल है। कई ऐसी ऐतिहासिक फिल्म है जिस पर सेंसर बोर्ड ने बेरहमी से कैंची चलाई, तो कभी सरकार ने सिनेमा घरों में टंगने पर रोक लगा दी।

कभी-कभी यह भी देखा जाता रहा है कि एक विशेष फिल्म को लेकर आमजनों का गुस्सा सातवें आसमान पर रहा। लोगों का सड़कों पर उतर जाना, पोस्टर फाड़ना, सिनेमा घरों में तोड़फोड़ और आगजनी करना सामान्य रहा है। कभी डायलॉग को लेकर तो कभी कथित अश्लील सीन या गानों के लिए। कई बार यह भी देखा गया कि लोग ऐतिहासिक घटनाओं को अपने मन मुताबिक न होने पर सरकार को भी आड़े हाथों लिया।

सन् 1996 में एक फिल्म आई थी ‘फायर’। ये फिल्म दो आम महिलाओं के अंतरंग संबंधों पर आधारित थी जिसे लोगों ने लेस्बियन्स नाम दिया गया। हालांकि मुख्य कहानी इससे अलग था। मुख्य किरदार में शबाना आजमी और नंदिता दास थीं जो एक ही घर में बिहाई जाती हैं। मगर दोनों के पति घोर कर्मकांडों में व्यस्त रहते हैं, बाबाओं के कहे बगैर कुछ नहीं करते।

यहां तक की उनके धार्मिक विचारों के चलते उनका वैवाहिक जीवन प्रभावित होने लगता है। जिसका नतीजा ये होता है कि दोनों की पत्नियां आपस में समलिंगकामिनी होने लगती है। जब फिल्म आई तो शिव सेना और बजरंग दल जैसे धर्म की राजनीति करने वालों ने जमकर बवाल किया। यहां तक कि फिल्म की निर्देशक दीपा मेहता, अभिनेत्री शबाना और नंदिता दास को जान से मारने की धमकी तक दी गई। आगे चलकर इसे यह कहकर रोक दिया गया कि यह भारतीय संस्कृति के विरुद्ध चित्रण है।

फिल्मी विवादों का बदलता परिदृश्य

साल 1996 में ही एक और फिल्म आई थी ‘कामसुत्रः अ टेल ऑफ लव’ निर्देशक थीं मीरा नायर। फिल्म अपने बोल्ड सीन्स और कहानी को लेकर अच्छी-खासी विवादों में रही। बोल्ड और सेक्सुअल कंटेंट होने के चलते सेंसर बोर्ड ने इस पर भी बैन लगा दिया। नतीजतन फिल्म भारत में रिलीज नहीं हो पाई। 16वीं शताब्दी के कालखंड पर बनी इस फिल्म के जरिए समाज के कई बिंदुओं को रेखांकित किया गया था। विवादों के चलते फिल्म जहां बैन हो गई वहीं यू-ट्यूब पर इस फिल्म ने सारे रिकार्ड तोड़ दिए। आज भी यू-ट्यूब पर अब तक का तीसरा सबसे अधिक देखा जाने वाला ट्रेलर है।

इन दोनों फिल्मों के आने के दो साल पहले आई थी-बैंडिट क्वीन। चंबल की बागी फूलन देवी के जीवन पर आधारित इस फिल्म का निर्देशन किया था ‘मिस्टर इंडिया’ फेम शेखर कपूर ने। फूलन की भूमिका अभिनेत्री सीमा बिस्वास ने निभाई थी। सेंसर ने इस पर भी कैंची मारी यह कहकर कि फिल्म में वल्गर और इनडिसेंट कंटेंट है। फिल्म पर अब्यूजिंग लैंग्वेज में होने का आरोप भी लगा। कई लोगों ने आरोप लगाया कि फिल्म में शेखर कपूर ने डकैतों का महिमामंडन किया है।

फिल्मी विवादों का बदलता परिदृश्य

‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’ 2016 में आई ब्लैक कॉमेडी फिल्म थी। निर्देशन किया था अलंकृता श्रीवास्तव ने। प्रकाश झा प्रोड्क्शन में बनी इस फिल्म पर सेंसर बोर्ड ने नाम से लेकर, दृश्यों और संवाद तक पर आपत्ति जताई। सेंसर बोर्ड ने कहा कि ऑडियो में पोर्नोग्राफी शामिल है जो समाज के एक खास तबके के प्रति अधिक संवेदनशील है।

‘उड़ता पंजाब’ में पंजाब में नशे की समस्या को लेकर बनाई गई थी जिसके मुख्य किरदार शाहीद कपूर, आलिया भट्ट, करीना कपूर थे। फिल्म को लेकर बोर्ड और फिल्म निर्माताओं के बीच बड़ा विवाद हुआ। बोर्ड ने फिल्म में कुल 89 कट करने का आदेश दिया। जब मामला कोर्ट में गई तो हाईकोर्ट ने एक कट के साथ रिलीज करने की अनुमति दे दी। अनुराग कश्यप की फिल्म ‘ब्लैक फ्राइडे’ मुम्बई बम ब्लास्ट पर आधारित थी।

यह फिल्म जिस किताब पर आधारित थी उसके लेखक थे एस. हुसैन जैदी। जैदी अंडर पर लेखने वालों में जाना- माना नाम है। अनुराग के निर्देशन की पहली फिल्म थी ये। डाक्यूमेंट्री फार्मेट में शुट इस फिल्म को देकर यह लगता है कि मुंबई में हुआ 13 बम ब्लास्ट हमारे सामने की घटित हो रहा है। फिल्म चूंकि बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद का मनोविज्ञान को फिल्माया था इसलिए विवादों में घिर गई।

फिल्म रिलीज नहीं हो पाई। पर न्यू मीडिया का दौर आते-आते ऑनलाइन देखी जाने वाली फिल्म बन गई। अनुराग का विवादों से अच्छा-खासा नाता रहा है जिसका उदाहरण ‘गुलाल’, ‘देव डी’, ‘गैग्स ऑफ वासेपुर’, ‘बॉम्बे वॉलवेट’ जैसी फिल्में हैं। ‘वाटर’ 2005 में आई थी। इसके पटकथा लेखक थे-अनुराग कश्यप। निर्देशन किया था दीपा मेहता ने।

भारत में विधवाओं की स्थिति और उन्हें किन-किन हालातों से गुजरना पड़ता है पर आधारित थी। जो समाज दिन में जिन विधवाओं की परछाई भी बर्दाश्त नहीं करता वही रात के अंधेरे में विधवाओं को अपने कोठी पर बुलाता है। सेंसर बोर्ड को ये सब्जेक्ट नहीं जमा। धार्मिक संगठनों ने भी आपत्ति जताई। लोग सड़क पर उतर आए। फिर सेंसर ने फिल्म पर बैन लगा दिया।

फिल्मी विवादों का बदलता परिदृश्य

परजानिया (2005) यह फिल्म गुजरात दंगों पर बेस्ड थी। फिल्म की कहानी में अजहर नाम का लड़का 2002 दंगे के समय गायब हो जाता है। कहानी इसी के इर्द-गिर्द घुमती है। गुजरात दंगे जैसे सेंसेटिव सब्जेक्ट के कारण ये फिल्म गुजरात में बैन हो गई थी। काशीनाथ सिंह की उपन्यास ‘काशी का अस्सी’ पर आधारित थी-मोहल्ला अस्सी। फिल्म पर धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाने का आरोप लगा फिल्म पर सात साल का बैन रखा गया। दिल्ली के तीस हजारी कोर्ट में याचिका डाली गई तब जाकर फिल्म रिलीज हो सकी।

ऐतिहासिक फिल्मों का भी अपना इतिहास है। भारत में ऐतिहासिक घटनाओं पर बहुत कम ही फिल्में बनती हैं। और अगर बन भी गईं तो उस पर विवाद होना तय माना जाता है। 1941 में सोहराब मोदी ने एक फिल्म बनाई थी जिसका नाम था-सिकंदर। फिल्म देखने वालों ने आरोप लगाया कि उसमें तथ्यों के साथ छेड़छाड़ की गई है। फिर महान फिल्म ‘मुगल-ए-आजम’ का दौर आया। इस फिल्म को लेकर कहा गया कि जो किरदार इतिहास में है नहीं उनका चित्रण किया गया है।

अनारकली के किरदार को इतिहास के पन्नों में नहीं पाया जाता है। किसी ने एक नाटक लिखा जिस पर फिल्म आधारित थी। ये वैसे ही विवाद थे जैसा हाल ही में ‘पद्मावत’ के साथ हुआ। पद्मावती और पद्मावत मलिक मोहमद जायसी की काल्पनिक कृति थी। इसे लोगों ने सच मान कर खूब हंगामा काटा। जो कहानी इतिहास में कभी घटित नहीं हुई उसे लेकर सिनेमा हॉल से लेकर सड़कों तक आग लगाया गया। इसके पहले ‘अशोका’,‘मंगल पांडे द राइजिंग’, ‘जोधा-अकबर’, ‘बाजीराव मस्तानी’ वगैरह का विवाद याद ही होगा।

फिल्मों का विवाद का तरीका अब पूरी तरह से बदल गया है। जहां पहले भड़काऊ सीन, धार्मिक भावनाओं को आहत करने, ऐतिहासिक तथ्यों, अश्लीलता आदि को लेकर विवाद होता था वहीं आज कौन सरकार के साथ है कौन नहीं इस पर बवाल चल रहा है। सिनेमाई समाज आज दो हिस्सों में बंट गया है। एक वह जो सरकार के हर सही-गलत में साथ देता है, उनके साथ दीखता है, समर्थन करता है।

दूसरा वो है जो सरकार के कार्यों की आलोचना करता है। जनता के साथ खड़ा होता है। जो जनता के साथ है वह आज ‘एंटी-नेशनल गैंग’ है। ताजा उदाहरण ‘छपाक’ है। फिल्म एसीड विक्टिम लक्ष्मी अग्रवाल के जीवन पर आधारित है, जिसने तमाम मुश्किलों के बावजूद उम्मीदों को पंख दी। ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर भी हंगामा हो रहा है। वजह बस ये है कि दीपिका पादुकोण जेएनयू जैसे संस्था में गईं जो सरकार को फूटी आंख नहीं सुहाता। इसको लेकर कई दिनों से सोशल मीडिया पर कैंपेन चलाया जा रहा है। ‘पद्मावत’ के समय दीपिका का नाक काटने की धमकी दी गई थी और अब उन्हें देशद्रोही करार दे दिया गया है। देखा जाए तो आज कला राजनीतिज्ञों के हाथों की कठपुतली बन कर रह गया है।

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