‘मुगैम्बो खुश हुआ’, ‘कितने आदमी थे’, ‘क…क…क…किरण…’ ये डायलॉग ऐसे हैं जिनसे फिल्में सुपरहिट हुईं। दर्शकों की जुबान पर ये डायलॉग हमेशा होते हैं। ये डायलॉग फिल्म के नायकों ने नहीं, बल्कि खलनायकों ने कहे हैं। नायक के नाम पर फिल्में देखने वाला एक वर्ग ऐसा हुआ करता था। अब वे नायक नहीं बल्कि खलनायक को प्राथमिकता देने लगे हैं। यही वजह है कि फिल्म निर्माता अपनी फिल्मों में ऐसी कहानियां गढ़ रहे हैं जो नायक को नहीं खलनायक को मुख्य भूमिका में दिखाए। फिल्म समीक्षक मुर्तजा अली खान से जब सिनेमा के इस बदलते स्वरूप पर चर्चा की गई तो ऐसा सच सामने आया जिसमें कहा जा सकता है कि हर खलनायक के पीछे एक नायक होता है
हाल ही में अमेरिकी मिशिगन विश्वविद्यालय द्वारा एक अध्ययन किया गया। इस सर्वे में युवाओं से बात की गई तो अधिकतर ने बताया कि उन्हें फिल्मों में खलनायक की भूमिका निभाने वाले किरदार पसंद हैं न कि नायक। इसके कारण बताते हुए युवाओं का कहना है कि ‘हमने जितनी भी फिल्में देखीं या कहानियां पढ़ीं, उनमें खलनायक को एक बुरे व्यक्ति के रूप में दिखाया गया, लेकिन जब हमें यह मालूम हुआ कि उसके खलनायक या शैतान बनने के पीछे उसका अतीत है। खलनायक असल में हमेशा से खलनायक नहीं था। कुछ परिस्थितियों वश उसे खलनायक बनना पड़ा। खलनायक बनने से पूर्व वह एक सरल और नेक इंसान था। हालांकि कुछ विद्यार्थियों ने बताया कि ऐसा नहीं है यह केवल टीवी पर या किताबों तक ही सीमित है। यदि किसी के साथ भी लगातार बुरा बर्ताव किया जाए तो उसके लिए लड़ना या खलनायक बनना गलत नहीं हो सकता है। इससे मिलते-जुलते विचार भारत के युवाओं के भी सामने आते हैं। खासकर उस समय जब कोई विलेन के लीड रोल वाली फिल्म सिनेमाघरों में आती है और सुपरहिट हो जाती है, ऐसी एक नहीं दर्जनों फिल्में हैं जिनके लाखों दर्शक ऐसे रोल पसंद कर रहे हैं इसकी तस्दीक चर्चित फिल्म समीक्षक मुर्तजा अली खान भी करते हैं।
‘दि संडे पोस्ट’ ने फिल्म समीक्षक मुर्तजा अली खान से इस बाबत बात की। उनका कहना है कि बॉलीवुड हो या हॉलीवुड दोनों ने बदलते समय के साथ फिल्मों की कहानियों में भी नए प्रयोग किए हैं। उन्हीं में से एक है खलनायक को प्रभावशाली ढंग से पर्दे पर लाना। जिसकी वजह से लोग खलनायकों की ओर अधिक आकर्षित हो रहे हैं। यदि हम इसको लेकर रिसर्च करें तो पता चलता है कि हॉलीवुड हो या बॉलीवुड हर जगह फिल्म बनाने की एक ही धारणा है कि बुराई पर हमेशा अच्छाई की जीत होती हैं। फिल्म के आखिर में हीरो विलेन को मार देगा या विलेन फिल्म के अंत में मर जाएगा। सिनेमा जगत में शुरू से ही अच्छाई की बुराई पर जीत दिखाई जाती रही है। अभी तक भी इस सिद्धांत को ध्यान में रखकर ही फिल्में बनाई जाती रही हैं। बॉलीवुड की तरह ही यही सिद्धांत हॉलीवुड की फिल्मों में भी इस्तेमाल किए जाते थे, जैसे कि आप एल्बर्ट स्कॉट की फिल्म ‘डायपर मर्डर’ को देखे, तो उसमें भी जो बुरे लोग होते हैं वे फिल्म के अंत में पकड़े जाते हैं। हालांकि इस फिल्म के अंत तक ऐसा लगता है कि बुरे लोग बच जाएंगे या वे पकड़े नहीं जाएंगे लेकिन वह अंत में पकड़े जाते हैं। इतना ही नहीं आप चंद्र बरोट की ओरिजिनल ‘डॉन’ फिल्म देखेंगे तो उसमे आपको पता चलेगा कि असली ‘डॉन’ की मौत तो फिल्म में पहले ही हो जाती है। लेकिन एक बहरूपिया उसके तमाम अपराधों का पता लगाता है और उसके द्वारा किए गए सभी अपराधों को उजागर करता है।
मुर्तजा कहते हैं कि 19वीं शताब्दी से पहले तक हीरो को अच्छे व्यक्ति और विलन को बुरे के रूप में दिखाया जाता था और अंत में हीरो विलेन को मार देता था। बुराई का अंत हो इसी सिद्धांत पर ही फिल्में बनती रही हैं। 18 से 19वीं सदी तक फिल्मों का दायरा इसी तरह का रहा लेकिन 19वीं शताब्दी के बाद धीरे-धीरे फिल्मों की कहानियों में बदलाव आने शुरू हो गए। ‘डॉन’ मूवी दोबारा बनाई गई जिसमें ‘डॉन’ का किरदार शाहरुख खान ने निभाया जिसमें खलनायक बुरा होने के बावजूद भी फिल्म के अंत में बच जाता है, अच्छे व्यक्ति को कोमा में दिखाया जाता है और वह मर जाता है। तो यहां से फिल्मों में बदलाव आने शरू हुए जिसमें हमने देखा कि वह निर्माता जो नैतिकता जैसी धारणा में फंसे रहते थे वह भी अपनी धारणा को बदलने लगे, बदलाव की इस राह में अब हीरो और विलेन नहीं बल्कि एंटी-हीरो फिल्मों में दिखने लगे। बाजीगर, ‘डॉन’ जैसी फिल्मों में आप शहरुख खान को न तो विलेन बोलेंगे और न ही हीरो इस तरह के किरदार में ‘टू शेड्स ऑफ पर्सनालिटी’ होते हैं जिन्हें एंटी-हीरो कहा जाता है।
एंटी-हीरो की एंट्री
एंटी-हीरो का जन्म वैसे तो काफी समय पहले ही हो गया था। लेकिन इसकी शुरुआत हॉलीवुड से हुई जिसके थोड़े समय बाद इसे बॉलीवुड ने भी अपना लिया। बॉलीवुड में शाहरुख खान द्वारा की गई फिल्मों के साथ एंटी-हीरो फॉर्मूला की शुरुआत हुई। दर्शकों को भी एंटी-हीरो का किरदार पसंद आने लगा। हालांकि यह एंटी-हीरो, हीरो वाली सारी विशेषताएं नहीं रखते थे लेकिन इनकी तुलना विलेन से भी नहीं की जा सकती थी। ये मोगेम्बो, शाकाल और गब्बर जैसे बुरे किरदार वाले व्यक्ति नहीं होते, न ही राज कपूर और देवानंद जैसे हीरो होते हैं। इसी बदलाव के साथ 20वीं सदी आते-आते इसमें और भी बड़े बदलाव आने लगे। जनता भी इन बदलावों को काफी पसंद करने लगी। इस नए बदलाव के कारण लोगों को नए किरदार और उसकी खूबियां पसंद आने लगी और अधिकतर फिल्में इसी फॉर्मूले पर बनाई जाने लगीं।
विलेन का महिमामंडन
वर्ष 2004 में आई ‘धूम’ फिल्म में विलेन खुद ही मर जाता है लेकिन इसके बाद वर्ष 2006 में आई फिल्म ‘धूम-2’ में इसमें फिल्म का पूरा फोकस विलेन की चालाकी, उसकी बुद्धिमता, स्मार्टनेस, उसकी फिटनेस के इर्द-गिर्द दिखाया गया और अंत में विलेन भाग जाता है। उसके इस किए गए अपराध को पर्दे पर इस तरह दिखाया गया है कि एक हीरो की छवि उसके सामने बेहद कम दिखाई गई। नैतिक मूल्यों के नाम पर विलेन द्वारा चुराए गए पैसों को बर्बाद कर दिया जाता है, या उसके द्वारा चुराया गया पैसा वापस कर दिया जाता है। यह न्याय के बिल्कुल खिलाफ है वास्तविकता में यदि हम किसी चोर को पकड़े और वह चोरी का सारा सामान वापस कर दे तो क्या उसे चोर नहीं समझा जाएगा? क्या उसे एक हीरो मान लिया जायेगा क्योंकि उसने चोरी किया हुआ सामान लौटा दिया? तो इस तरह से नैतिकता और वास्तविकता को काफी घुमाकर उसे सही सिद्ध किया जा रहा है जिसका असर फिल्म देखने वालो पर पड़ता है।
मुर्तजा अली खान बताते हैं कि ‘समय के साथ फिल्म निर्माताओं ने फिल्मों के कॉन्सेप्ट को पूरी तरह से बदल कर रख दिया है। बॉलीवुड ही नहीं हॉलीवुड भी विलेन का महिमामंडन करता रहा है। जैसे कि 2011 में शाहरुख खान की मूवी ‘रा-वन’ आई जिसमें विलेन को हीरो के बराबर ही नहीं, बल्कि हीरो से अधिक ग्लोरिफाई किया। जैसे कि शाहरुख खान (हीरो) द्वारा ही विलेन को प्रमोट किया जाता है वह कहते हैं ‘विलेन्स आर कूल’, ‘दे आर स्ट्रांगर’, ‘दे आर मोर पावरफुल’, ‘दे हेव स्प्रिचुअल पावर्स, दे आर विक्केट बट दी हीरोज आर बोरिंग’ तो इस तरह से विलेन को प्रमोट किया गया, और वर्चुअली भी विलेन की पर्सनालिटी को अधिक आकर्षित दिखाया गया।
‘बैट मैन’ मूवी में भी विलेन ‘जोकर’ को इस तरह दिखाया गया कि हीरो को छोड़कर दर्शक विलेन को अधिक पसंद करने लगे। ‘सुपरमैन’ और ‘वॉन्डरवुमेन’ मूवी में भी विलेन को जनता से अधिक प्यार मिला है। हॉलीवुड की सुपर-डूपर हिट मूवी ‘अवेंजर्स’ में भी बहुत लोगों के द्वारा ‘थानोस’ को बेहद पसंद किया गया है। ऐसा इसलिए भी हो रहा है क्योंकि हीरो और विलेन के बीच में कोई असामनता नहीं रह गई है। पहले फिल्मों में यह धारणा होती थी कि यदि बुराई है तो उसका विनाश होना अनिवार्य है, लेकिन अब यह धारणा पूरी तरह से बदल दी गई है।
अधिक आकर्षित होते हैं विलेन
वर्तमान में फिल्म निर्माता विलेन अधिक बलशाली, बुलंद आवाज और आकर्षक शरीर वाले व्यक्ति को बनाते हैं। वहीं हीरो को सामाजिक बंधनों में बांध दिया जाता है और विलेन उन बंधनों की कोई चिंता न करते हुए अपने मकसद को पूरा करते हैं, तो बिना बंधनों के, बिना किसी रूकावट के जीवन जीने को आज की युवा पीढ़ी फ्रीडम मानती है। जिस तरह वह समाज के बंधनों से खुद को अलग करना चाहते हैं। उसी पथ पर चल रहे विलेन उन्हें इसी कारण बेहद पसंद भी आते हैं। वहीं सबका अच्छा सोचकर चलने वाले हीरो और अपना नुकसान मानकर भागने वाले हीरो को वे पसंद नहीं करते हैं।
वास्तविकता से दूरी
पहले के समय में फिल्में वास्तविकता के अनुसार बनाई जाती थीं, लेकिन जैसे-जैसे समाज आगे बढ़ा लोग और बेहतर एवं कुछ ऐसी चीजों का अनुभव कराने जो वास्तविकता से काफी परे हैं, उन पर फिल्में बनने लगी। काल्पनिक कहानियों पर आधारित फिल्में नई पीढ़ी को काफी आकर्षित करती हैं। वह उन्हीं काल्पनिक दृश्यों को वास्तविकता मानकर कल्पना करने लगते हैं, लेकिन अगर कोई वास्तविक घटना पर आधारित फिल्म है जैसे कि ‘छपाक’ मूवी को देखा जाए तो उसमें नई पीढ़ी हो या पुरानी सभी की यही राय होगी कि उन्हें जेल भेज दिया जाए। ऐसे ही फिल्म की कहानी जितनी सच्चाई पर आधारित होगी उतनी ही उसमें नैतिकता होगी लेकिन जितना उसे वास्तविकता से दूर रखा जाएगा उतना ही वह नैतिकता से दूर होती जाएगी। वहीं जितना आप काल्पनिक फिल्में बनाएंगे उतना लोग कल्पनाओं की तरफ आकर्षित होंगे। आज की पीढ़ी वास्तविकता से ज्यादा काल्पनिक फिल्मों को अधिक पसंद करती है यही कारण है कि युवा पीढ़ी विलेन को भी अधिक पसंद करती है।
आजकल की फिल्मों में आपको वास्तविकता बहुत कम देखने को मिलती है। ‘पठान’ फिल्म की बात करें तो इसमें जॉन अब्राहम एक विलेन का किरदार निभा रहे हैं। पूरी फिल्म में जॉन विलेन के रूप में ही दिखाए गए हैं लेकिन जैसे ही उनकी स्टोरी दर्शकों के सामने आती है। उनका किरदार बेहद अच्छा नजर आने लगता है तो यह तमाम तकनीकें स्क्रिप्ट राइटर की हैं। जो आजकल हर फिल्म में देखने को मिल सकती हैं। निर्माता इन फिल्मों में विलेन के किरदार को इतना परिभाषित कर देते हैं कि दर्शक उसके बुरे किरदार को भी सही ठहराने लगते हैं। इसके चलते ही आज विलेन की छवि बुरे व्यक्ति के रूप में नहीं की जाती है। इसी तरह आवेशर्स फिल्म में ‘थानोस’ की भूमिका को इस तरह प्रस्तुत किया गया है कि किस तरह उस पर पूरी दुनिया का दवाब है। जिसके कारण वह आधी दुनिया को तबाह कर देता है ताकि पृथ्वी को बचाया जा सका।
ऐसा नहीं है कि आज के हीरो में और विलेन के रोल में काफी बदलाव किए गए हैं। बस पहले विलेन ताकत के भूखे होते थे, वह मासूम लोगों का खून बहाकर अपना खौफ पैदा करते थे। उनका मकसद सबसे ऊपर होना था उसके लिए वह सब कुछ करते थे लेकिन अब विलेन किरदार का रूप बदल गया है। फिल्म की शुरुआत में विलेन को बुरे व्यक्ति के रूप में दिखाया जाता है लेकिन फिल्म खत्म होने तक उसके इस
किरदार को इस तरह से दिखाया जाता है कि उसका बुरा करना और बुरा होना सही लगने लगता है। तो आज के समय में फिल्म की स्क्रिप्ट के लेखक ने अपने सिद्धांत बदल दिए हैं। वह बुराई को भी एक प्रेरणा के साथ दिखाना पसंद करते हैं ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग फिल्म की कहानी से खुद को जोड़ पाए और उसे पसंद करें और वे अपने इस काम में बखूबी कामयाब भी हो रहे हैं।