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जुझारूपन और सृजन का उत्सव ‘आजमगढ़ अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल’

शारदा टॉकीज की हर दीवार पर आकर्षण से परिपूर्ण कलाकृति की गई थी, जहां के वातावरण में ही थियेटर, कला और सिनेमा सांस ले रही हो, वहां आना तो बनता ही है। शारदा टॉकीज में आयोजित हुए तीसरे आजमगढ़ फिल्म महोत्सव को देखकर कोई इस बात की कल्पना नहीं कर सकता कि जिस सिनेमा हॉल में लगातार पिछले 16 वर्षों से रंग उत्सव ‘आरंगम’ की अद्भुत झटा बिखर रही है वह कभी वीरान हुआ करता था।

 

इतना ही नहीं यहां एक साथ तीन राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय आयोजन चाहे वह फिल्म फेस्टिवल हो या आजमगढ़ का पहला साहित्य उत्सव हो या नाट्य रंग उत्सव, सभी कार्यक्रम पूरी तल्लीनता से और सृजनात्मक उद्देश्य के साथ सफलतापूर्वक आयोजित किया गया। कैफी आजमी, अयोध्या प्रसाद उपाध्याय ‘हरिऔध’,  राहुल सांकृत्यायन, चन्द्रबली, अल्लामा जैसे शख्सियतों ने आजमगढ़ को जिस सांस्कृतिक एवं कलात्मक थाती से समृद्ध किया है उसी कड़ी को सूत्रधार टीम ने अभिषेक पंडित और ममता पण्डित के नेतृत्व में युद्धस्तर पर अपना सब कुछ समर्पित कर और सम्पन्न किया है।

विचित्र किन्तु यथार्थ कला उत्सव

26 फरवरी से 28 फरवरी 2021 तक चले तीसरे आजमगढ़ अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल के बारे में यही कहा जा सकता है कि जिन्हें अच्छे सिनेमा से प्रेम है और जो कला, साहित्य एवं जुझारू मन के विलक्षण संगम के साक्षी बनना चाहते हैं उन्हें आजमगढ़ में प्रत्येक वर्ष होने वाले इस विचित्र किन्तु यथार्थ कला उत्सव में जरूर जाना चाहिए। विचित्र इसलिए क्योंकि बिना किसी बड़े कॉरपोरेट हाउस की मदद से आजमगढ़ शहर में वहीं के लोगों द्वारा सिर्फ और सिर्फ अपनी कर्मठता के दम पर होने वाला यह एक अद्भुत आयोजन है। तीन दिन चले इस फिल्मोत्सव में कई अच्छी और बेहतरीन फिल्मों और बेहतरीन फिल्मों की स्क्रीनिंग हुई।

निर्देशक बाबा आजमी द्वारा आजमगढ़ के कलाकारों को लेकर दानिश इकबाल, आदित्य द्विवेदी और नसरुद्दीन शाह अभिनीत फिल्म ‘मी रकसम’ से इस तीसरे आजमगढ़ अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव 2021 का शुभारंभ किया गया। फुल लेंथ सिनेमा की श्रेणी में दो फिल्में विदेशी भी रहीं जिसमें ‘फागुनी हवाएं’ बांग्लादेश से और ‘थिंकिंग ऑफ हिम’ अर्जेंटीना से थीं।

इन फिल्मों पर फिल्म समीक्षक मोहम्मद मुर्तजा अली, वरिष्ठ पत्रकार चंद्रभूषण और डीयू के प्रोफेसर और फिल्म एवं कला समीक्षक डॉ एम.के.  पांडेय ने संवाद किया और साथ ही दर्शकों के सवालों का जवाब भी दिया। फेस्टिवल में शार्ट फिल्म ‘ब्लैक एंड वाइट’ आदि फिल्मों का भी प्रदर्शन हुआ।

मशहूर निर्देशक,लेखक अविनाश दास की बहुप्रशंसित फिल्म ‘अनारकली ऑफ आरा’ भी  दिखाई गई

 

इस फेस्टिवल का तीसरा सत्र कुंदन शाह निर्देशित और निलय उपाध्याय लिखित फिल्म ‘थ्री सिस्टर्स’ के नाम रहा। ‘थ्री सिस्टर्स’ के बारे में लेखक निलय उपाध्याय से शोभा अक्षर की बातचीत हुई और दर्शकों ने इससे संबंधित प्रश्न पूछे। अंतिम सत्र में मशहूर निर्देशक,लेखक अविनाश दास की बहुप्रशंसित फिल्म ‘अनारकली ऑफ आरा’ दिखाई गई।

 

इस फिल्म को अनेक पुरस्कार मिल चुके हैं। फेस्टिवल में इस फिल्म के लेखक निर्देशक अविनाश दास मौजूद थे। अविनाश दास के साथ मोहम्मद मुर्तजा, प्रकाश केरे ने बातचीत की और दर्शकों से भी संवाद किया। इस फिल्म फेस्टिवल में देश भर के अनेक हिस्सों से लगभग 50 छात्र डेलीगेट्स भी आए हुए थे, जिन्होंने सिनेमा, थियेटर, कला और पत्रकारिता के क्षेत्र से जुड़े विशेषज्ञों के साथ मास्टर क्लास और वर्कशॉप ली।

प्रख्यात फिल्म स्क्रिप्ट लेखक इम्तियाज हुसैन भी फेस्टिवल में तीनों दिन मौजूद रहे। शहर के गणमान्य साहित्यकारए कलाप्रेमियों की उत्साहजनक भागीदारी देखने को मिल रही थी।

 

अभिषेक पंडित ने बताया कि बेहद कम समय में इस फेस्टिवल ने राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सिनेमा प्रेमियों के मन में एक विशिष्ट छाप बना ली है।

 

अभिषेक पंडित, जुनून और कर्मशीलता की मिसाल कायम कर रहे हैं

 

प्रख्यात स्क्रीनप्ले एवं डायलॉग लेखक इम्तियाज हुसैन, सूत्रधार टीम के जज्बे की तारीफ करते हुए कहते हैं कि, आजमगढ़ शहर में एक इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल को ऑर्गनाइज करना बडा ही हिम्मत का काम है। सूत्रधार और उस से जुड़े कलाकारों की जितनी भी तारीफ की जाए वो कम होगी। फेस्टीवल में कुछ अच्छी फिल्में देखी खास कर एक फिल्म ‘थिंकिंग ऑफ हिम’ जो कि रबीन्द्रनाथ टैगोर के एक समय के जीवन पर आधारित है। मेरा विश्वास है कुछ सालों में इस फेस्टीवल के चर्चे हर जगह होंगे। हर जगह से मेरी मुराद है हिंदुस्तान और हिंदुस्तान के बाहर भी।

 

16 वर्षों से आजमगढ़ में रंगोत्सव का आयोजन कर निश्चित तौर पर अभिषेक पंडित, जुनून और कर्मशीलता की मिसाल कायम कर रहे हैं। अपने इस सफर के बारे में वो कहते भी हैं कि, ‘एक समय था जब आजमगढि़यों को दिल्ली-मुम्बई तो छोडि़ए लखनऊ तक मे किराये पर मकान नही मिलता था। आज हम देश-विदेश  तक में खबर बन रहे हैं सिर्फ अपनी सृजनात्मक कर्म के बूते।

सिने पत्रकार एवं फिल्म समीक्षक मुर्तजा अली जो आजमगढ़ फिल्म फेस्टिवल में तीनों दिन मौजूद भी रहे और सहभागी भी उनका कहना है कि, फिल्म समीक्षक होने के नाते मुझे अलग-अलग प्रकार से फिल्म फेस्टिवल्स अटेन्ड करने का सौभाग्य प्राप्त होता रहता है। चाहे फिर वह भारत के उत्तर में हो या फिर दक्षिण में पूर्व में हो या पश्चिम में। पर उन सभी फिल्म फेस्टिवल्स से बिल्कुल भिन्न अनुभव रहा मेरा आजमगढ़ फिल्म फेस्टिवल अटेन्ड करने का।

यह मैंने शायद पहली बार देखा कि एक फिल्म फेस्टिक्सल , एक खंडर जैसे सिनेमा हॉल जो कि सालों से बंद है उसे फिर से जीवित कर सिनेमा के प्रेम को प्रसारित कर रहा है और शहर के आम लोग इस फेस्टिवल को अलग-अलग तरह से सपोर्ट करते हैं। इस प्रकार यह फेस्टिवल एक कम्युनिटी फेस्टिवल की तरह आयोजित किया जाता है और कॉर्पाेरेट कन्ट्रोल से बचा रहता है।

 

आजमगढ़  इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल , एक सांस्कृतिक मुहिम

 

फिल्म फेस्टिवल को एक सांस्कृतिक मुहिम के तौर पर देखा जाना चाहिए। शहर के कुछ कलाकारों और संस्कृति कर्मियों ने अपने शहर के बना दिए गए स्टीरियोटाइप के खिलाफ एक सांस्कृतिक मुहिम चला रखी है और कमाल की बात है कि यह सफल ही नहीं है बल्कि इसकी धमक विदेशों तक है। फेस्टिवल में आईं फिल्में इसका उदाहरण हैं।

 

 

यह रेत में दूब उगाने की कोशिश है। इसके लिए अभिषेक पंडित, ममता पंडित और सूत्रधार बधाई की पात्र हैं कि उन्होंने विपरीत स्थितियों में इस तरह के आयोजन कर राहुल सांकृत्यायन और कैफी आजमी की जमीन को नए सिरे से व्याख्यायित कर रहे हैं। इसे केवल फिल्म फेस्टिवल के तौर पर देखना इसकी महत्ता को कम करना है।”

आजमगढ़ अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल के अध्यक्ष एवं प्रसिद्ध सिने पत्रकार अजित राय ने इस फेस्टिवल को लेकर बेहद ही खास बात कही। स्वास्थ्य कारणों से वे फिल्म फेस्टिवल में आ नहीं सके थे लेकिन उन्होंने एक वीडियो जारी कर सभी का अभिवादन किया और कहा कि, ‘अच्छे  सिनेमा से इश्क करने वाले नौजवान दोस्तों को मेरा सलाम। मैं अभिषेक पंडित, ममता पण्डित और उनकी टीम के तमाम सदस्यों को बधाई देता हूं कि उन्होंने तीसरे साल भी इस फिल्म समारोह को सम्भव कर दिखाया है।

 

सिनेमा समाज को नहीं बदलता वह लोगों को बदलता है

 

हम जानते हैं कि हमारी दुनिया अभी कोरोना वायरस के संकट से मुत्तफ़ नहीं हुई है। लेकिन इसके बावजूद सूत्रधार की टीम की यह बहादुरी है कि उन्होंने इस समय यह फिल्म फेस्टिवल आयोजित कर दिखाया। जितना उनसे बन पड़ेगा और अच्छा बन पड़ा है। उन्होंने जिस तरह से आपदा में अवसर तलाश कीए एक शारदा टॉकीज को जिस तरह से उन्होंने थिएटर में बदला और जैसे उनके कलाकारों ने उस जगह को सजाया है वह काबिले तारीफ है। मैं उन तमाम लोगों का आभारी हूं जिन्होंने अपनी फिल्में इस फेस्टिवल के लिए दीं।

 

दोस्तों मैं हमेशा कहता रहा हूं कि सिनेमा समाज को नहीं बदलता वह लोगों को बदलता है और लोग समाज को बदलते हैं। एक झारखड की बहुत अद्भुत फिल्म है ‘थंडर स्प्रिंग’ जिसे श्रीराम डाल्टन हमारे लिए लाए। यह फिल्म इसलिए भी आपको देखनी चाहिए कि बिना बड़े कॉरपोरेट के सपोर्ट के और पैसे के भी क्राउड फंडिंग सेए जनता। के सहयोग से कैसे अच्छा सिनेमा बनाया जा सकता है।

शायद देश में इस तरह की कम जगह है जहां ऐसी चीजें हो रही है। मुझे याद आता है कि मैंने केवल एक जगह देखा है कर्नाटक में जहां के बी सुबन्ना ने इस तरह का स्पेस क्रिएट किया है। छत्तीसगढ़ से योगेंद्र चौबे भी हमारे लिए अपनी एक फिल्म लाये ‘गांजे की कली’ जो अमृता प्रीतम की एक रचना पर आधारित है। बहुत सारी शार्ट फिल्में भी इसने आयीं। मैं सबका हार्दिक आभारी हूं। सिनेमा चलता रहे, अच्छा सिनेमा बनता रहे और उससे भी जरूरी है कि अच्छा सिनेमा अच्छे दर्शकों तक पहुंचता रहे।

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