हाल ही में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा 68वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार की घोषणा की गई है। भारत सरकार राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार समारोह को दो अलग-अलग श्रेणियों में प्रदान करती है, जिनमें एक है फीचर और दूसरी है गैर-फीचर श्रेणी। इसके तहत हर साल सर्वश्रेष्ठ फिल्म, सर्वश्रेष्ठ निर्देशक, सर्वश्रेष्ठ पटकथा, सर्वश्रेष्ठ पटकथा- लेखक, सर्वश्रेष्ठ बाल फिल्म सहित कई अन्य श्रेणियों में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार दिया जाता है। इस बार सर्वश्रेष्ठ बाल पुरस्कार और सर्वश्रेष्ठ बाल कलाकार दोनों ही श्रेणियों में मराठी फीचर फिल्म ‘सुमी’ को राष्ट्रीय पुरस्कार मिलने से फिल्म की काफी चर्चा हो रही है। पेश है मराठी फिल्म ‘सुमी’ के राइटर संजीव के. झा से हुई ‘दि संडे पोस्ट’ की खास बातचीत के मुख्य अंशः
मराठी फीचर फिल्म ‘सुमी’ को राष्ट्रीय पुरस्कार मिलने से फिल्म की काफी चर्चा हो रही है। इस चर्चा की पहली वजह यह है कि यह फिल्म पारिवारिक मूल्यों के साथ- साथ ‘गर्ल चाइल्ड एजुकेशन’ के थीम पर आधारित है।
बालिका शिक्षा से जुड़े महत्वपूर्ण केंद्रीय योजनाओं को देखें तो केंद्र से लेकर राज्य सरकारों ने भी इस तरफ ध्यान देने की पूरी कोशिश की है। ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ से लेकर ‘सुकन्या समृद्धि योजना’, ‘बालिका समृद्धि योजना’, ‘सीबीएसई उड़ान स्कीम’, माध्यमिक शिक्षा के लिए लड़कियों के लिए प्रोत्साहन सहित लड़कियों को साइकिल देने वाली योजना, देश और राज्य की सरकारों को भी कहीं न कहीं इस बात का अहसास कराती है कि ‘बेटी पढ़ाओ-बेटी बचाओ’ कितना अहम है। हालांकि अगर हम आंकड़ों की बात करें तो वास्तविकता यही है कि आज भी प्राथमिक विद्यालय से निकलकर उच्च-विद्यालय तक पहुंचते- पहुंचते 50 फीसदी लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई छूट जाती है।
संजीव के झा की लिखी मराठी फिल्म ‘सुमी’ इन्हीं विषयों पर आधारित है। लेकिन किसी पाठ्य-पुस्तक की तरह नहीं बल्कि माजिद माजिदी या जफर पनाही के फिल्मों की तरह। ‘सुमी’ के लेखक संजीव के झा बिहार के मोतिहारी के रहने वाले हैं और इससे पहले भी कई फीचर फिल्में लिख चुके हैं, जिन्हें देश- दुनिया में काफी सराहा जा चुका है।
आपकी लिखी फिल्म ‘सुमी’ को दो-दो श्रेणियों में राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है और भारतीय राष्ट्रीय पुरस्कार एक तरीके से बहुत बड़ी पहचान होती है तो इसे आप किस रूप में देखते हैं?
यह वैसा ही जैसे भारतीय सिनेमा की बन रही नींव में एक ईंट हमने भी रख दिया है शायद। राष्ट्रीय पुरस्कार किसी सपने का सच होने जैसा है। जीवन में पहली बार ऐसा लगा कि जैसे किसी ने काम को सच में सराहा है, हिम्मत दे दी है और इस सराहना या संबल का कोई सानी नहीं। हमारे देश में यही एक पुरस्कार है, जिसकी गरिमा आज भी बरकरार है। लेकिन इस पुरस्कार ने खुशी के साथ-साथ जिम्मेदारियां भी बढ़ा दी हैं। मैं सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय और भारतीय राष्ट्रीय पुरस्कार समिति के सभी ज्यूरी मेंबर्स का आभारी हूं कि उन्होंने हमारे आर्ट और क्राफ्ट को समझा और सराहा।
चिल्ड्रेन फिल्म कई जाने-माने लेखकों-निर्देशकों ने लिखी और निर्देशित की है और उन्हें इन श्रेणियों में पुरस्कार मिले हैं, चाहे वह विशाल भारद्वाज हों या कि संतोष सिवन, नागेश कूकनूर, तपन सिन्हा, सत्यजीत रे?
हां, ख्वाजा अहमद अब्बास को भी मिली थी। ‘ईद मुबारक’ फिल्म के लिए और फिर जानू बरुआ को उनकी असमी फिल्म ‘तोरा’ के लिए कुरोसावा की ‘ड्रीम्स’ का एक नैरेटिव भी बाल फिल्म जैसा ही है। चार्ली-चैप्लिन की ‘द किड’ मेरी पसंदीदा फिल्म है। बचपन में कौन नहीं जाना चाहता है? हर लेखक- साहित्यकार-कवि या स्क्रिप्ट-राइटर, फिल्ममेकर सबकी ख्वाहिश होती है बचपन के दिनों में लौटने की।
यह फिल्म किस बारे में है? और इस आइडिया और कहानी पर कैसे काम शुरू किया आपने?
यह एक बहुत ही पर्सनल फिल्म है। इसे लगभग मेरे अपने बचपन की ही कहानी कह सकते हैं। शायद यह पहली स्क्रिप्ट थी जो मैंने लिखी थी मुंबई में, लेकिन कई वजहों से बन नहीं पा रही थी। यह फिल्म कई बार शुरू होकर बंद हुई।
उदय प्रकाश ने भी आपको बधाई देते हुए कहा है कि ‘अगर सही समय पर बन गई होती तो ‘सुमी’ ही आपकी पहली फिल्म होती?
हां, लेकिन यह होता है। न जानें कितनी फिल्मों के साथ यह हुआ है। मुझे लगता है कि कहानी को कहने की मेरी जिद ने शायद इसे बनवा दिया। मैं कहानियां बस लिखने के लिए नहीं लिखता। मुझमें कुछ सुनाने, कुछ शेयर करने की तड़प होती है। बेचैनी होती है। फिर मैं अपनी उन कहानियों को बड़ी तन्मयता से, शिद्दत से, पैशन के साथ बोलना चाहता हूं लेकिन फिल्म सिर्फ लिख लेने से नहीं बनती। साहित्य में आप लिखते भी हैं अकेले और पाठक अकेले में ही पढ़ता भी है। सिनेमा में और भी बहुत सारे पहलू हैं, मापदंड हैं उन सब पर खरा उतरना ही होता है। ‘सुमी’ मैंने किसी स्टूडियो या प्रोडक्शन कंपनी को बेचने के लिए नहीं लिखी। यह कहानी मुझे सुनानी ही थी आज नहीं तो कल।
बिहार के मोतिहारी में जहां मेरा गांव है, वहां से करीब चार- पांच किलोमीटर आगे चलकर हाईस्कूल है- ढाका हाईस्कूल। तो वह जो एरिया है हमारा वहीं पास ही में एक गांव है। बरहरवा लखन सेन। वर्ष 1917 में जब गांधी यहां आए तो यहीं से उन्होंने बुनियादी विद्यालय की शुरुआत की और आश्रम एजुकेशन का कांसेप्ट शुरू हुआ।
वर्ष 2002 में मैं देखता था कि लड़कियों को साइकिल चलाकर पढ़ने जाना पड़ रहा है क्योंकि स्कूल दूर है, लेकिन वह संख्या बहुत कम थी, अगर हम 20 लड़के साइकिल पर हैं, तो सिर्फ एक लड़की होती थी और यह बड़े साहस की बात थी तो वह ‘स्कूल चलें हम’ वाला बचपन जेहन में रह गया था। हम 20 लड़कों के झुंड में एक नीले रंग की साइकिल चलाती लड़की रह गई थी तो पहला विजुअल तो यही है। इसके बाद फिर बचपन के वे सारे अनुभव जो जाने-अनजाने कहानी का हिस्सा बने।
आपकी बाकी दोनों फिल्में ‘जबरिया जोड़ी’ और ‘बारोट हाउस’ हिंदी में हैं, आप लिखते भी हिंदी में हैं फिर यह मराठी में क्यों? मराठी भाषा आप जानते हैं?
मराठी सीख रहा हूं अभी। फिल्म करते-करते काफी जुड़ गया इस भाषा से। लेकिन देखिए, फिल्म की एक अपनी ही भाषा होती है और वह दृश्यों की भाषा है। आप महाराष्ट्र के पंडरपुर की जगह मुजफ्फरपुर या गोरखपुर लिख दें कोई फर्क नहीं पड़ता। कहानी में जो पारिवारिक मूल्य है, वह लड़की की जिद और आगे बढ़ने-पढ़ने की ललक है, वह इसे पूरे देश की कहानी बना देती है। फिल्म को पुरस्कार भी क्षेत्रीय श्रेणी में नहीं, पूरे पेन-इंडिया श्रेणी में है। मराठी में बनाने से फिल्म की सुंदरता पर कोई असर नहीं पड़ रहा था। यही कहानी आप ईरान में भी जाकर बना सकते हैं। और फिर ‘सुमी’ के निर्देशक अमोल वसंत गोले भी खुद मराठी हैं, उन्होंने कई मराठी फिल्मों पर काम किया है, तो कल्चर और भाषा दोनों पर उनकी बहुत अच्छी पकड़ है। फिर हमने संवादों के लिए अलग डायलॉग राइटर लिया, कासि्ंटग यहीं से की तो सबने मिलकर मेरी कहानी को साकार किया है।
कहानी पर थोड़ा और बताएंगे कि कहानी में आखिर क्या है?
सच पूछिए तो कुछ भी जादुई नहीं है। एक सीधी-सच्ची ह्यूमन स्टोरी है। कहानी में सुमति नाम की एक लड़की है। जो
किरदार आकांक्षा पिंगले ने किया है। सुमति थोड़ी जिद्दी है और जिद पाल लिया गांव से निकलकर आगे पढ़ाई करने का। बस यहीं से उसका संघर्ष शुरू हो जाता है। जीवन में भी ऐसा ही होता है न कि जब आप कोई लक्ष्य चुन लेते हैं, परेशनियां और मुसीबतें तभी आनी शुरू होती हैं। और फिर काफी चीजें तय होती हैं कि आप किस समाज का हिस्सा हैं, समाज के किस तबके से आते हैं, जेंडर, रेस, कलर, जाति, मजहब हर आधार पर संघर्ष है। ये पूरे विश्व में है। अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड की मौत आप भूले नहीं होंगे, जिनकी मौत से पूरा अमेरिका जल उठा था। तो समाज बहुत चीजें तय करता है, पाबंदियां लगाता है और व्यक्ति उन पाबंदियों को तोड़ता है। ‘सुमी’ की दुनिया यही सब है और यहीं से वह आगे बढ़ती है। उसे पढ़ाई करने के लिए एक साइकिल चाहिए और साइकिल है जो उसे मिल नहीं रही तो साइकिल पाने की जद्दोजहद में पूरे भारतीय समाज का अक्स दिख जाता है जो बड़ी हर्ट-टचिंग स्टोरी है।
आपकी शुरुआती पढ़ाई-लिखाई और पारिवारिक पृष्ठभूमि क्या है?
मैं मोतिहारी, बिहार का रहने वाला हूं। शुरुआती पढ़ाई तो वहीं हुई, जैसा कि मैंने बताया। ग्रेजुएशन करने में दिल्ली आ गया और यहां जामिया से हिंदी साहित्य में स्नातक की पढ़ाई पूरी की। यहां भी गोल्ड मेडल है, टॉपर रहा। फिर इच्छा हुई कि फिल्म पढ़ना है तो फिल्म स्कूल जाया जाए तो एफटीआइआइ पुणे की तैयारी की लेकिन दो-दो बार इंटरव्यू तक पहुंच कर बाहर हो गया। तब पंकज राग वहां निदेशक हुआ करते थे। शायद मैं उनके सवालों के जवाब नहीं दे पाया होऊंगा। वैसे भी हर सवाल के जवाब दार्शनिकों के पास होते हैं, लेखक और कलाकार तो अनुत्तरित ही होता है। वह चीजों को बच्चों की निगाह से देखता है तो जो भी थोड़ा बहुत सिनेमा देख-पढ़ पाया वह दिल्ली और जामिया मिल्लिया की बदौलत ही पढ़ पाया। हां, साहित्य से रिश्ता पुराना था। मेरे नाना रमेशचंद्र झा स्वतंत्रता सेनानी थे, वर्ष 1942 के भारत छोड़ो आंदोनल में चंपारन से काफी सक्रिय रहे। हमारे घर में तब सब के सब क्रांतिकारी ही थे। घर को अंग्रेजों ने कई बार लूटा। कन्हैया लाल मिश्र ‘प्रभाकर’ जी ने कहीं लिखा है न कि- ‘रमेशचंद्र झा के परिवार का इतिहास आजादी की लड़ाई में बर्बाद होकर अट्टहास करने का इतिहास है।’ नाना बाद में राजनेता होने के बजाय लेखक हो गए। उनकी चीजें मुझे बहुत पसंद हैं। साहित्य की मेरी शुरुआती पाठशाला वहीं हैं तो थोड़ा साहित्य वहां से मिला, थोड़ा सिनेमा जामिया से और थोड़ी जिद पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट से। लेखक बनने के लिए थोड़ी संवेदनशीलता चाहिए और थोड़ी हया, बस, मंगलेश डबराल जी ने लिखा था न-‘प्रेम में बचकानापन बचा रहे- कवियों में बची रहे थोड़ी लज्जा।’
आगे और क्या कुछ लिख रहे हैं? किस विषय पर काम कर रहे हैं?
आगे एक-दो वेब-सीरीज हैं। सब सच्ची घटनाओं पर आधारित या उनसे प्रेरित हैं। एक बायोपिक भी लिखकर पूरा किया हूं। इसमें काफी कुछ क्रिकेट से जुड़े एक विवाद और कोर्ट-केस के बारे में है। लेकिन ये सब ओटीटी वाली कहानियां हैं, अलग तरीके से लिखी जाने वाली और अलग तरह के लोगों द्वारा बनाई जाने वाली। साहित्य में दिलचस्पी रही है शुरू से ही और चाहता भी था की कोई शॉर्ट स्टोरी या नवल अडप्ट करूं, तो उस पर काम शुरू किया हूं। यह पहली फिल्म होगी जिसका निर्देशन मैं कर रहा हूं।