77वें कान्स फिल्म फेस्टिवल में फिल्म ‘संतोष’ ने सबका ध्यान खींचा और ब्रिटेन ने ऑस्कर 2025 के लिए बेस्ट इंटरनेशनल फीचर फिल्म के लिए नामित किया। इसी फिल्म की अभिनेत्री शाहाना गोस्वामी को बेस्ट अभिनेत्री का एशियन फिल्म अवाॅर्ड भी मिल चुका है। दुनियाभर में वाहवाही लूटने वाली इस फिल्म को भारत में सेंसर सर्टिफिकेट नहीं मिलने की वजह से रिलीज नहीं किया जा सकेगा। क्योंकि बोर्ड को फिल्म में पुलिस के नकारात्मक चित्रण से आपत्ति है। इससे पहले भी कई ऐसी फिल्में आई जो संवेदनशील, सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों, विवादास्पद चित्रण या सत्ता के खिलाफ तीखी टिप्पणी के कारण विवादों में रही जिन्हें सेंसर बोर्ड ने प्रमाणपत्र देने से इनकार कर दिया

‘संतोष’ की कहानी
फिल्म ‘संतोष’ की कहानी एक सस्पेंस थ्रिलर के रूप में शुरू होती है, लेकिन यह जल्द ही सामाजिक टिप्पणी में बदल जाती है। यह फिल्म उत्तर भारत की पृष्ठभूमि पर आधारित है फिल्म की कहानी एक विधवा महिला पुलिस अधिकारी के इर्द-गिर्द घूमती है,जो संतोष नाम की एक विधवा महिला का किरदार निभाती हैं। संतोष अपने मृत पति की जगह पुलिस कांस्टेबल की नौकरी लेती हैं लेकिन उसे पुलिस बल में व्याप्त भ्रष्टाचार और हिंसा का सामना करना पड़ता है। एक दलित लड़की की हत्या की जांच के दौरान वह न केवल अपराध को सुलझाने की कोशिश करती है, बल्कि सिस्टम की क्रूरता और अपने भीतर की नैतिकता से भी जूझती है। फिल्म का निर्देशन की तारीफ करनी होगी उसने दर्शकों को फिल्म के समाप्त होने तक जोड़े रखा है। फिल्म के दृश्य लखनऊ और आसपास के इलाकों में शूट किए गए हैं जिससे फिल्म में एक वास्तविक रूप दिखाई देता है। फिल्म में ग्रामीण भारत का चित्रण और पुलिस स्टेशन की सेटिंग कहानी के माहौल को और गहरा करते हैं। फिल्म बिना किसी लाग-लपेट के भारत में व्याप्त सामाजिक बुराइयों को सामने लाती है। ऐसा लगता है कि यह फिल्म काल्पनिक होने के बावजूद वास्तविक घटनाओं से प्रेरित लगती है, जो इसे प्रभावशाली बनाती है।
सामाजिक मुद्दों, सेंसरशिप के बीच फंसी संतोष
फिल्म में गम्भीर सामाजिक मुद्दों जैसे पुलिस की बर्बरता, जातिगत भेदभाव, महिलाओं के प्रति हिंसा, और इस्लामोफोबिया को उजागर किया गया है। फिल्म में पुलिस और समाज के नकारात्मक चित्रण के कारण इसे भारत में सेंसर बोर्ड ने रिलीज की मंजूरी नहीं दी, जिसकी वजह से इस फिल्म को लेकर विवाद उत्पन्न हुआ है। बोर्ड को चिंता है कि यह महिलाओं के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण और पुलिस बल में हिंसा को बढ़ावा देती है, जिससे समाज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है इसलिए बोर्ड ऑफ फिल्मश् ने फिल्म के कई दृश्यों पर आपत्ति जताई और उनमें कटौती करने को कहा गया है, जिसे निर्देशक संध्या सूरी ने अस्वीकार कर दिया। उनका कहना है कि ये कट फिल्म के मूल संदेश को नष्ट कर देंगे। फिल्म में फिर देखने के लायक कुछ बचेगा ही नहीं। उन्होंने कहा कि फिल्म में जो मुद्दे उठाए गए हैं, वे भारतीय सिनेमा में पहले भी दिखाए गए हैं। उनके अनुसार, यह फिल्म सनसनीखेज नहीं है, बल्कि यह देश के सामाजिक ताने-बाने का दूसरा पक्ष प्रस्तुत करती है। संध्या का मानना है कि फिल्म में हिंसा का महिमामंडन नहीं किया गया है और यह समाज की समस्याओं को उजागर करती है।
विवाद का एक पहलू यह भी है कि फिल्म भारत की नकारात्मक छवि पेश करती है, जिससे सत्ताधारी पक्ष और सेंसर बोर्ड इसके खिलाफ हैं। दूसरी ओर समर्थकों का कहना है कि यह फिल्म सामाजिक सच्चाई को उजागर करती है और इसे दबाना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला है। इस तरह, ‘संतोष’ सामाजिक मुद्दों, सेंसरशिप और सांस्कृतिक संवेदनशीलता के बीच टकराव का प्रतीक बन गई है।
आंधी (1975)

किस्सा कुर्सी का (1977)

किस्सा कुर्सी का’ भारतीय सिने इतिहास की सबसे विवादास्पद फिल्म मानी जाती है। इंदिरा गांधी सरकार को हिलाने से लेकर इमरजेंसी के बाद हुए चुनावों में यह फिल्म बड़ा मुद्दा बनी। यह फिल्म आपातकाल (1975-77) के दौरान इंदिरा गांधी सरकार पर एक व्यंग्य थी। इसमें तत्कालीन स्थिति और सत्ता के दुरुपयोग को दिखाया गया था। कहा जाता है कि फिल्म में संजय गांधी और इंदिरा गांधी से मिलते-जुलते किरदार थे। उस समय इमरजेंसी का दौर था। हर फिल्म को पहले सरकार देखती थी और बाद में रिलीज करती थी। इसे देखने के बाद सरकार को लगा कि ये फिल्म संजय गांधी के ऑटो मेन्युफैक्चरिंग प्रोजेक्ट का मखौल उड़ाती और सरकार की नीतियों को बदनाम करती है। फिल्म के कुछ हिस्से हटाने के साथ सेंसर बोर्ड ने 51 आपत्तियां लगाते हुए जवाब मांगा। निर्देशक ने तर्क दिए लेकिन वे नकार दिए गए। आपातकाल के दौरान फिल्म को प्रतिबंधित कर दिया गया, और इसके प्रिंट्स तक को नष्ट कर दिया गया। बाद में जनता पार्टी की सरकार बनने पर डायरेक्टर ने 1977 में दोबारा फिल्म बनाकर इसको रिलीज किया गया।
ब्लैक फ्राइडे (2004)

निर्देशक अनुराग कश्यप की फिल्म ‘ब्लैक फ्राइडे’ 1993 के मुम्बई बम धमाकों पर आधारित थी और उस समय चल रहे कोर्ट केस के कारण संवेदनशील मानी गई। फिल्म में पुलिस की जांच और अंडरवल्र्ड के तार दिखाए गए थे। जिसकी वजह से सेंसर बोर्ड ने इसे शुरू में प्रमाणपत्र देने से मना कर दिया क्योंकि मामला कोर्ट में था। बाॅम्बे हाई कोर्ट ने भी रिलीज पर रोक लगा दी थी। बाद में 2007 में इसे रिलीज की अनुमति मिली।
फिराक (2008)

यह फिल्म 2002 के गुजरात दंगों पर आधारित थी और सच्ची घटनाओं से प्रेरित थी। इसमें दंगों के बाद की मानवीय त्रासदी को दिखाया गया, जिसे कुछ संगठनों ने पक्षपातपूर्ण माना। सेंसर बोर्ड ने इसे शुरू में बैन कर दिया, लेकिन लम्बी कानूनी लड़ाई और कुछ बदलावों के बाद 2009 में रिलीज की अनुमति दी गई।
इंशा अल्लाह फुटबाॅल (2010)

‘इंशा अल्लाह फुटबाॅल’ यह एक डाॅक्यूमेंट्री फिल्म थी जो एक कश्मीरी फुटबाॅलर और उसके आतंकवादी पिता की कहानी पर आधारित थी। कश्मीर के संवेदनशील मुद्दे को उठाने के कारण यह विवाद में आई। जिसकी वजह से सेंसर बोर्ड ने इसे रिलीज की अनुमति नहीं दी, क्योंकि इसे राष्ट्रीय सुरक्षा और साम्प्रदायिक सौहार्द के लिए खतरा माना गया।