वर्ष 1936 में अंबेडकर अपने राजनीतिक दल ‘इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी’ का गठन किया और 1937 में हुए चुनावों में उनके दल ने केंद्रीय सभा के लिए 13 सुरक्षित और 4 सामान्य सीटों से चुनाव लड़ 11 सुरक्षित और 3 सामान्य सीटों पर जीत हासिल की। 1936 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘जाति का विनाश’ (Annihilation of Caste) में उन्होंने हिंदू समाज की कुरीतियों, विशेषकर जाति प्रथा पर तीखे प्रहार तो किए ही, महात्मा गांधी को भी उन्होंने इस पुस्तक में अपने निशाने पर रखा। हिंदू धर्मग्रंथों पर अंबेडकर की व्याख्या को लेकर दोनों नेताओं के मध्य गंभीर मतभेद इस पुस्तक के प्रकाशन बाद देखने को मिलते हैं। अंबेडकर का स्वर्ण हिंदू जातियों के प्रति आक्रोश इस कदर, इतना प्रचंड था कि इतिहास की यात्रा के दौरान कई दफे यह देखने को मिलता है कि वे स्वाधीनता संग्राम में जुटी ताकतों के साथ नहीं बल्कि उनकी दृष्टि में उच्च हिंदू जातियों का प्रतिनिधित्व करने वाली कांग्रेस के विरोधियों संग खड़े रहना बेहतर समझते थे। अंबेडकर की इस प्रवृत्ति को, उनके उस कथन से पुष्टि मिलती है जो उन्होंने मुस्लिम लीग द्वारा 22 दिसंबर, 1939 को ‘यौम-ए-निज्जत’ (Day of Deliverance) यानी जश्न मनाने की बाबत कहा था। 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत हो चली थी। एक सितंबर के दिन एल्डोफ हिटलर शासित जर्मनी ने पोलैंड में धावा बोल इसकी शुरुआत की। 3 सितंबर को ब्रिटेन और फ्रांस ने जर्मनी के खिलाफ युद्ध का ऐलान कर दिया। इस युद्ध ने विश्व को दो खेमे में बांट दिया। जर्मनी, जापान और इटली जिन्हें एक्सिस पावर (Axis Power) कहा गया और उनके खिलाफ ब्रिटेन, अमेरिका, सोविय संघ और चीन जिन्हें एलीज् (Allies) कहा गया, इस युद्ध में आमने-सामने थे। भारत के तत्कालीन वायसराय विक्टर लिनलिथगो ने ब्रिटिश भारत को इस युद्ध में ब्रिटेन का सहयोगी घोषित कर भारतीय सेना की रवानगी का आदेश दे दिया। कांग्रेस ने भारतीय नेताओं को विश्वास में लिए बगैर वायसराय द्वारा भारत को इस युद्ध का हिस्सा बनाए जाने की जमकर मुखालफत शुरू कर डाली। इस समय तक ग्यारह प्रांतों में से आठ में कांग्रेस की सरकारें थीं। कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने वायसराय को सुझाव दिया कि यदि प्रांतों की तर्ज पर एक केंद्रीय सरकार का गठन किया जाता है और ब्रिटेन इस बात की लिखित गारंटी देता है कि इस विश्व युद्ध के बाद वह भारत को आजाद कर देगा तो कांग्रेस विश्व युद्ध में ब्रिटेन का साथ देने के लिए सहमत हो जाएगी। इसके ठीक विपरीत प्रांतीय चुनावों में मिली करारी हार बाद घोर कांग्रेस विरोधी बन चुके जिन्ना ने ब्रिटिश हुकूमत के फैसले को सही करार दे डाला था। जिन्ना और मुस्लिम लीग का यह फैसला पाकिस्तान की दिशा में बढ़ा एक महत्वपूर्ण कदम था।
यौम-ए-निज्जत, अंबेडकर और सुभाष बोस

पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-22
कांग्रेस की मांगों को ब्रिटिश हुकूमत ने मानने से इंकार कर दिया, नतीजा रहा 22 अक्टूबर, 1939 को कांग्रेस की सभी आठ प्रांतों में सरकारों का इस्तीफा दे देना। जिन्ना जो मुस्लिम लीग को 1937 में मिली हार और कांग्रेस द्वारा संयुक्त सरकार बनाने के उनके प्रस्ताव को ठुकराए जाने बाद से ही घोर कांग्रेस विरोधी हो चले थे, ने भारतीय मुसलमानों से अपील कर डाली कि वे 2 दिसंबर, 1939 को ‘यौम-ए-निज्जत’ (Day of Deliverence) के रूप में मनाए। ‘यौम-ए-निज्जत’ से जिन्ना का तात्पर्य कांग्रेस सरकारों से निजात पाना था। उन्होंने अपनी इस अपील में कांग्रेस को मुसलमानों पर हो रहे हर अत्याचार का जिम्मेवार मानते हुए शुक्रवार 2 दिसंबर के दिन जुमे की नमाज के बाद यह समारोह मनाने का आह्नान किया। यहां एक बार फिर डॉ ़भीमराव अंबेडकर का घोर कांग्रेस विरोध देखने को मिलता है। जिन्ना और मुस्लिम लीग से कहीं ज्यादा खुशी अंबेडकर ने कांग्रेस सरकारों के इस्तीफे पर प्रकट की। उन्होंने ‘यौम-ए-निज्जत’ समारोह का हिस्सा बनने की घोषणा करते हुए कहा ‘I read Mr. Jinnah’s statement and I felt ashamed to have allowed him to steal a march over me and rob me of the language and the sentiment which I, more than Mr. Jinnah, was entitled to use’ (मैं मिस्टर जिन्ना की अपील को पढ़ शर्मिंदा हूं कि मैंने उन्हें अपने पर विजय पाने और वह भाषा और विचार प्रकट करने दिए जिन पर उनसे कहीं अधिक मेरा अधिकार है) अंबेडकर ने एक बार फिर से कांग्रेस को दलित जातियों के शोषण का जिम्मेदार करार देते हुए इस कार्यक्रम में भाग लेने की घोषणा की। 2 दिसंबर, 1939 को वे और जिन्ना एक साथ बॉम्बे (अब मुंबई) के भिण्डी बाजार में आयोजित सभा में शामिल हुए थे।
जिन्ना दरअसल 1937 में प्रांतीय सरकारों के गठन बाद ही यह प्रमाणित करने का प्रयास करने लगे थे कि कांग्रेस शासित प्रांतों में अल्पसंख्यक मुसलमानों संग अत्याचार बढ़ रहे हैं। 28 मार्च, 1938 को मुस्लिम लीग ने एक आठ सदस्यीय जांच कमेटी की नियुक्ती का ऐलान किया जिसकी अध्यक्षता पीरपुर रियासत के राजा सैय्यद मोहम्मद मेहंदी को सौंपी गई थी। इस कमेटी ने 15 नवंबर, 1938 को अपनी रिपोर्ट जिसे ‘पीरपुर रिपोर्ट’ कहा जाता है, जिन्ना को सौंपी थी। इस रिपोर्ट में कांग्रेस शासित प्रांतों में मुस्लिम उत्पीड़न के दावे किए गए थे। यही वह दौर था जब कांग्रेस भीतर सत्ता और नेतृत्व का संघर्ष अपने चरम पर पहुंच चुका था। यह संघर्ष जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस के मध्य खुलकर खेला जाने लगा था। बोस और नेहरू के मध्य भारी वैचारिक मतभेद थे। महात्मा गांधी इस वैचारिक लड़ाई और कांग्रेस के नेतृत्व की लड़ाई में खुलकर जवाहरलाल नेहरू के पक्ष में खड़े रहे जिसका नतीजा अन्ततः 1939 में बोस का कांग्रेस भीतर हाशिए में चले जाने का रहा। यहां यह उल्लेखनीय है कि सुभाष चन्द्र बोस को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में लाने के पीछे गांधी की खासी महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। अपनी युवा अवस्था में बोस महात्मा के प्रति खासे आकर्षित हुआ करते थे।
23 जनवरी, 1897 को कटक (उड़ीसा) में एक धनी बंगाली परिवार में जन्में सुभाष चन्द्र अपने पिता की सलाह पर उच्च शिक्षा प्राप्त करने इंग्लैंड गए जहां उन्होंने 1920 में इंडियन सिविल सर्विस (आईसीएस) की परीक्षा में चौथा स्थान हासिल किया। बोस लेकिन इस परीक्षा के दूसरे चरण में शामिल नहीं हुए। ब्रिटिश भारत की सबसे महत्वपूर्ण सिविल सर्विस के प्रति उनके मन में संदेह पैदा होने लगा था। अपने बड़े भाई शरत चन्द्र बोस संग उनका इस विषय पर कई बार पत्र व्यवहार हुआ। एक ऐसे ही पत्र में उन्होंने शरत को लिखा ‘But for a man of my temperament who had been feeding on ideas that might be called ecentric, the line of least resistance is not the best line to follow…The uncertanities of life are not appalling to one who has not, at heart, worldly ambitions. Moreover, it is not possible to serve one’s country in the best and fullest manner if one is chained on to the civil service’ (लेकिन मेरे स्वभाव के व्यक्ति के लिए जो अपने विचारों के बल पर जिंदा रहता हो और जिन विचारों को सनकी कहा जा सकता हो, ऐसे व्यक्ति के लिए प्रतिरोध की लाइन न ले पाना सही मार्ग नहीं होगा…..भविष्य के प्रति अनिश्चितता उसे प्रभावित नहीं करती जिसकी कोई सांसारिक महत्वाकांक्षा न हो। सरकारी सेवा के जरिए अपने देश की सच्ची सेवा कर पाना संभव नहीं है)।
अप्रैल, 1921 में सुभाष ने पारिवारिक दबावों को दरकिनार कर सिविल सर्विस की परीक्षा में न बैठने का फैसला कर लिया। शरत चन्द्र को लिखे पत्र में उन्होंने अपने इस फैसले के लिए अपने मां-पिता और परिवार के अन्य सदस्यों से क्षमा याचना की बात कही। उनके इस विषय पर शरत चन्द्र को लिखे एक पत्र में स्पष्ट होता है कि उनकी मां ने उनके इस निर्णय पर प्रसन्नता प्रकट करते हुए महात्मा गांधी के बताए रास्ते पर अपनी आस्था जताई थी। उन्होंने अपने इस पत्र में लिखा- ‘I received a letter from mother saying that inspite of what Father and others think, she prefers the ideals for which Mahatma Gandhi stands’ (मुझे मां का एक पत्र मिला है जिसमें उन्होंने कहा है कि भले ही पिताजी और अन्य कुछ भी सोचे, उन्हें महात्मा गांधी के बताए मार्ग पर पूरा भरोसा है)। बोस 1921 में वापस भारत लौट आए। जुलाई, 1921 में वे महात्मा से बॉम्बे (अब मुंबई) में मिले। 24 बरस के बोस और 51 बरस के गांधी के मध्य यह मुलाकात खासी रोचक रही। कई बरस बाद स्वयं बोस ने इस मुलाकात का जिक्र करते हुए लिखा कि गांधी उनके कई प्रश्नों का स्पष्ट उत्तर नहीं दे पाए। बोस स्वतंत्रता आंदोलन के अंतिम लक्ष्य को पाने के लिए हर प्रकार के तौर-तरीकों को आजमाने के पक्षधर थे जबकि गांधी हिंसक मार्ग में चलने के सख्त खिलाफ। स्पष्ट है दोनों के मध्य इस पहली ही मुलाकात ने उनके विचारों की भिन्नता को सामने ला दिया था जो आगे चलकर इन दोनों के बीच भारी अलगाव का कारण बना। गांधी ने मंतातर के बावजूद युवा बोस को बंगाल के बड़े कांग्रेसी नेता चितरंजन दास से मिलवाया, जिन्होंने कांग्रेस भीतर बोस को मजबूती देने का काम किया। चितरंजन दास की छत्रछाया में मात्र दो बरस बाद बोस अखिल भारतीय युवा कांग्रेस के अध्यक्ष और बंगाल प्रांत के प्रदेश सचिव बन गए थे।
गांधी संग बोस के मतभेद इस दौरान न केवल बने रहे बल्कि गहराते चले गए थे। दिसंबर, 1928 में बोस ने कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में कांग्रेस स्वयं सेवी कोर (Congress Volunteer Corps) का एक कार्यक्रम प्रस्तुत किया जिसमें उन्होंने अन्य कांग्रेसी स्वयं बबार्दी एक मार्च निकाला। बोस ने स्वयं को इस कोर का सेनापति (General officer Commanding) घोषित किया। गांधी ने इस प्रकार के प्रदर्शन से खासे नाराज हो इसे सर्कस (Bertram mills Circus) करार दे डाला था। बरट्राम मिल्स सर्कस से गांधी का तात्पर्य ब्रिटेन के उस प्रसिद्ध सर्कस से था जो क्रिसमस त्योहार के समय ब्रिटेन में खासा चर्चित हुआ करता था। महात्मा और बोस के मध्य आगे चलकर यह मतभेद गहराते चले और गहरे मनभेद में बदल गए थे।
क्रमशः