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पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-57

जवाहरलाल नेहरू के जीवनकाल में ही प्रश्न उठने लगे थे कि उनके बाद कौन उनकी राजनीतिक विरासत का वारिस होगा। इस प्रकार के प्रश्नों के लिए स्वयं नेहरू जिम्मेदार थे जिन्होंने 1958 में चार अप्रैल के दिन यकायक ही अपने एक कथन से ऐसों प्रश्नों को, बहस को, पैदा करने का काम कर दिया था। दिल्ली में आयोजित एक प्रेस वार्ता के दौरान नेहरू ने कह डाला कि वे स्वयं को सपाट और बासी-सा महसूस करने लगे हैं। उन्होंने कहा-‘I have said that I feel staleè My body is healthy, as it normally is. But I do feel flat and stale and do not think it is right for a person to feel that way and I have to deal with vital and very important problems. I am not fresh enough, there has to be some creativeness of the mindè I have had eleven and half years of office continuously without a day’s respite. I thing I may have some further years of effective service because I am bodily fit, and although I can not judge my own mind, I do not think that it is slipping. But it is, I think, stale and requires freshening up. (मैं कह चुका हूं कि मैं बासीपन महसूस करता हूं। मेरा शरीर स्वस्थ है, जैसा कि आमतौर पर होता है। लेकिन मैं सपाट और बासी महसूस करता हूं। मैं समझता हूं ऐसा महसूस करना सही नहीं है। अभी मुझे कई महत्वपूर्ण समस्याओं से जूझना है लेकिन मैं खुद में ताजगी नहीं पा रहा हूं। मस्तिष्क का रचनात्मक होना जरूरी है। बीते साढ़े ग्यारह बरसों से मैं बगैर एक दिन का अवकाश लिए लगातार कार्य कर रहा हूं। मुझे लगता है कि मेरे पास अभी कुछ और वर्ष सेवा करने के लिए बचे हुए हैं क्योंकि शारीरिक रूप से मैं स्वस्थ हूं। लेकिन मानसिक रूप से मुझे लगता है कि मैं कमजोर हो रहा हूं। इसे ताजा करने की जरूरत है।)

 

नेहरू के इस कथन ने पूरे देश को स्तब्ध करने और नेहरू के बाद ‘कौन’ की बहस को जन्म देने का काम कर डाला। संसद में जयप्रकाश नारायण ने 27 अप्रैल, 1958 को प्रधानमंत्री से सीधा कह दिया कि अब उन्हें अवकाश ले लेना चाहिए और अपने स्थान पर किसी अन्य को प्रधानमंत्री बना देना चाहिए। जयप्रकाश नारायण के इस कथन ने नेहरू को इतना उद्वेलित कर डाला कि उन्होंने दो दिन बाद 29 अप्रैल के दिन कांग्रेस संसदीय दल के समक्ष अपना इस्तीफा पेश कर दिया। उन्होंने कहा ‘मुझे लगता है कि अब मुझे खुद के लिए कुछ समय निकालना चाहिए। ऐसा समय जिसमें दिन-प्रतिदिन के दायित्वों से मुझे मुक्ति मिल जाए और मैं एक आम नागरिक की तरह जी सकूं।’ हालांकि कांग्रेस संसदीय दल ने नेहरू के इस्तीफे को स्वीकारा नहीं, उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी को लेकर देश और दुनिया में नाना प्रकार की कयासबाजियों का दौर शुरू हो गया। अमेरिकी पत्रकार वेल्स हैगेन जो नेशनल ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन, अमेरिका के भारत में प्रतिनिधि थे, ने 1963 में ‘ऑफ्टर नेहरू हूं’ नाम से एक पुस्तक ही लिख डाली। अपनी इस पुस्तक में हैगेन ने नेहरू के विकल्प बतौर जिन नामों पर चर्चा की उनमें मोरारजी देसाई, वी.के. कृष्ण मेनन, लाल बहादुर शास्त्री, यशवंतराव भाऊराव चव्हाण, इंदिरा गांधी, जयप्रकाश नारायण, एस ़के ़पाटिल और सैन्य अधिकारी बृज मोहन कौल का नाम शामिल है। इन सभी आठ व्यक्तियों की बाबत हैगेन ने अपनी पुस्तक में विस्तार से चर्चा करते हुए जिस एक नाम को सबसे सशक्त दावेदार बताया वह थे लाल बहादुर शास्त्री। शास्त्री की बाबत हैगेन ने इस पुस्तक में लिखा- ‘There is something typically Indian in the fact that Lal Bahadur shastri, who insists that he could never fill the Prime Minister’s shoes, will probably be the first person asked to do so. India and Congress are ready for a respite from giants. But I doubt that Shastri has the physical or political endurance to ride the Indian tiger for long. The impasse befween the Left and Right wing factions in congress that would be the condition for his being named Prime Minister would not last forever. As soon as one faction got the upper hand, Shastri’s days would be numbered, unless, he had meanwhile built a national following of his own. To do that he must demonstrate a Truman-like gift for projecting himself as the champion of the common man’.(यह अजीबो-गरीब भारतीय तरीका है कि लाल बहादुर शास्त्री जो जोर देकर कहते हैं कि वे प्रधानमंत्री का स्थान कभी नहीं ले सकते, शायद ऐसे पहले व्यक्ति होंगे जिन्हें प्रधानमंत्री बनने का प्रस्ताव दिया जाएगा। भारत और कांग्रेस बगैर किसी दिग्गज आगे बढ़ने के लिए तैयार है लेकिन मुझे संदेह है कि शास्त्री के पास लंबे समय तक इस भारतीय बाघ की सवारी करने के लिए शारीरिक या मानसिक ताकत मौजूद है। कांग्रेस भीतर मौजूद वामपंथी और दक्षिणपंथी गुटों के मध्य का गतिरोध शास्त्री को प्रधानमंत्री बनाने की पहली शर्त है। लेकिन ऐसा हमेशा नहीं रहेगा। जिस दिन भी किसी एक धड़े का पल्ला भारी होगा, शास्त्री का समय समाप्त हो जाएगा। केवल एक अवस्था में ऐसा होना संभव नहीं होगा यदि शास्त्री ट्रूमैन (अमेरिकी राष्ट्रपति) की भांति अपनी ‘गरीबों के मसीहा’ जैसी कोई छवि गढ़ पाएं)।
नेहरू के प्रति विद्वेष भाव रखने वाली ताकतों का हमेशा से ही यह प्रयास रहा कि हरेक मुद्दे पर नेहरू को येन-केन-प्रकारेण घेर उनके विशाल कद और प्रतिष्ठा को उनके न रहने पर भी खंडित किया जाए। यह प्रयास आजादी के पिचहत्तर बरस बाद भी ऐसी शक्तियों के मुख्य एजेंडे का हिस्सा बना हुआ है। यही कारण है कि नेहरू की बाबत यह भ्रम आज भी फैलाया जाता है कि वे अपने बाद अपनी पुत्री इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की इच्छा रखते थे। नेहरू क्या वाकई ऐसा ही चाहते थे? यदि ऐसा था तो फिर उन्हें किस बात ने रोका? क्यों उन्होंने ‘कामराज प्लान’ के अंतर्गत केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे चुके शास्त्री को मात्र पांच माह बाद ही पुनः अपने मंत्रिमंडल में बगैर विभाग का मंत्री बना प्रधानमंत्री कार्यालय के कई दायित्व सौंपे? लाल बहादुर शास्त्री के निजी सचिव रहे भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) के अधिकारी सी ़पी ़ श्रीवास्तव ने इस बाबत अपनी पुस्तक में लिखा है कि- ‘…नेहरू सार्वजनिक तौर पर यह मानते थे कि कांग्रेस पार्टी अगले प्रधानमंत्री का चुनाव पूरी तरह स्वतंत्र हो करे। यह पूरी तरह से सत्य था। सामान्य तौर पर यह प्रश्न पूछा जाता है कि क्या नेहरू की इस विषय में कोई निश्चित राय थी। यह बता पाना ज्यादा सरल है कि वे क्या नहीं चाहते थे। वे नहीं चाहते थे कि उन पर वंशवाद का आरोप लगे। यदि वे चाहते तो बड़ी आसानी से इंदिरा गांधी को अपने मंत्रिमंडल में शामिल कर सकते थे ताकि वक्त आने पर इंदिरा अपने पिता की जगह प्रधानमंत्री बन जाती। बहुत से लोगों का मानना है कि नेहरू दिल ही दिल में अपनी पुत्री को अपना राजनीतिक वारिस देखना चाहते थे। यह एक पिता बतौर स्वाभाविक भी है लेकिन वे कतई नहीं चाहते थे कि ऐसा कुछ नजर आए जिससे इतिहास उन पर आरोप लगा सके कि सार्वजनिक तौर पर भले ही वे कुछ कहें, अंततः उन्होंने वंशवाद को आगे बढ़ाया। इस मुद्दे पर तीन प्रधानमंत्रियों- नेहरू के साथ बतौर प्रमुख निजी सचिव एवं शास्त्री और इंदिरा के समय बतौर मंत्रिमंडलीय सचिव-काम कर चुके धर्मवीरा का मानना है कि नेहरू इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए सक्षम बना रहे थे लेकिन 1963-64 में उन्हें लगा कि अभी इंदिरा इस पद के लिए पूरी तरह सक्षम नहीं हो पाई है। नेहरू शास्त्री पर बेहद भरोसा करते थे। उन्होंने इसी कारण शास्त्री को आगे बढ़ाया ताकि वे ‘वक्ती तौर’ पर प्रधानमंत्री बनें और सही समय आने पर इंदिरा गांधी को आगे कर दें।’
नेहरू के अंतिम संस्कार बाद प्रधानमंत्री पद के लिए सही व्यक्ति के चुनाव की बात तुरंत उठी। अंतरिम तौर पर वरिष्ठ मंत्री गुलजारी लाल नंदा को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई जा चुकी थी। तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष के ़कामराज ने कांग्रेसी सांसदों और विभिन्न राज्यों के कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों संग इस मुद्दे पर कई दौर की बातचीत की। बहुत-से नामों पर चर्चा के बाद अंत में दो नाम इस रेस में प्रमुख तौर पर उभर कर सामने आए। पहला नाम महाराष्ट्र के कद्दावर नेता मोरारजी देसाई और दूसरा लाल बहादुर शास्त्री। 30 मई, 1964 को शास्त्री ने इंदिरा गांधी संग मुलाकात कर उन्हें प्रधानमंत्री बनने की सलाह देते हुए कहा ‘अब आप मुल्क को संभाल लीजिए’। इंदिरा गांधी ने विनम्रतापूर्वक शास्त्री के आग्रह को अस्वीकार कर दिया। अंततः लंबे विचार-विमर्श बाद कांग्रेस कार्य समिति ने लाल बहादुर शास्त्री को कांग्रेस संसदीय दल का नेता 2 जून, 1964 को चुन लिया। नौ जून के दिन शास्त्री ने बतौर प्रधानमंत्री संविधान की शपथ ली। बतौर प्रधानमंत्री उनके समक्ष कई प्रकार की चुनौतियों का पहाड़ सामने था। चीन के हाथों हुई हार के बाद न केवल आमजन बल्कि सेना का मनोबल भी खासा गिरा हुआ था। खाद्यान्न संकट दिनों दिन गहराने लगा था। तीसरी पंचवर्षीय योजना के लिए समुचित बजट की भारी कमी थी। आर्थिक क्षेत्र में सबसे बड़ा संकट कृषि उत्पादन में भारी कमी के चलते आवश्यक वस्तुओं के दामों में हो रही वृद्धि के रूप में सामने आने लगा था। आधारभूत संरचना (इंफ्रास्ट्रक्चर) के क्षेत्र में भी चीन युद्ध के बाद अपेक्षित कार्य नहीं हो पा रहे थे। सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठान भी अपेक्षित नतीजे दे पाने में विफल होने लगे थे और निजी क्षेत्र में भी समुचित पूंजी निवेश नहीं हो पा रहा था। वैश्विक स्तर पर भारत के संबंध अमेरिका और सोवियत संघ के मध्य चल रहे शीत युद्ध की ताप में झुलसने लगे थे। सोवियत संघ पाकिस्तान संग संबंध प्रगाढ़ करने लगा था तो अमेरिकियों का भी विश्वास भारत पर पूरी तरह जम नहीं पा रहा था। ऐसे कठिन समय में शास्त्री ने भारत की कमान संभाली थी। उन पर जनअपेक्षाओं पर खरा उतरने का भारी दबाव पहले ही दिन से बनने लगा। कद में भले ही लाल बहादुर मात्र पांच फुट के थे लेकिन उनकी इच्छा शक्ति बेहद मजबूत और नैतिक मूल्यों के प्रति आस्था खासी प्रगाढ़ थी। शास्त्री के कार्यकाल की उपलब्धियों और कमियों का आकलन करने से पहले कुछ शास्त्री की बाबत जानना जरूरी है ताकि यह समझने में आसानी हो कि वे किस माटी के बने थे और कैसे उन्होंने मात्र 16 महीनों के कार्यकाल में वह सब कर दिखाया  जिसके लिए आज भी उनको सम्मानपूर्वक, कृतज्ञता के साथ याद किया जाता है।

क्रमश :

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