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पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-66

अपनी जीवनी ‘बियोन्ड द लाइंस’ में नैयर इस बाबत स्पष्ट मत नहीं रखते नजर आते हैं। 2012 में प्रकाशित इस आत्मकथा में नैयर का कथन शास्त्री जी की मृत्यु के रहस्य को कहीं अधिक उलझा देता है। बकौल नैयर ‘मैंने बहुत लंबे समय तक ताशकंद में किसी षड्यंत्र की बाबत सोचा तक नहीं था। इंदिरा गांधी के शासनकाल में जब एक निर्दलीय सांसद धर्मेश देव ने लोकसभा में आरोप लगाया कि शास्त्री को जहर देकर मारा गया था तब इस आरोप से पूरा देश स्तब्ध रह गया। टीएन कौल उस समय विदेश सचिव थे। उन पर इस षड्यंत्र में भागीदार होने का आरोप इस बेबुनियाद आधार पर लगाया जाने लगा कि सोवियत परस्त इंदिरा गांधी को सत्ता में लाने के इरादे से उन्होंने शास्त्री जी के भोजन में जहर मिला दिया था। (कौल ताशकंद समझौते के समय सोवियत संघ में भारतीय राजदूत थे और शास्त्री के लिए भोजन उनके घर से ही जाता था)। क्योंकि शास्त्री जी के शव का पोस्टमार्टम नहीं किया गया था इसलिए जहर दिए जाने के आरोप जोर पकड़ने लगे। कौल ने इन आरोपों का कोई प्रमाणित उत्तर दिए बगैर एक दिन मुझे ‘स्टेट्समैन’ में संपर्क कर कहा कि मैं एक बयान जारी कर कहूं कि शास्त्री की मृत्यु हृदयगति रूक जाने चलते हुई थी। मैंने उन्हें जब कहा कि मैं संसद में चल रही बहस चलते ऐसा नहीं करना चाहता हूं तो उन्होंने मुझ पर दबाव बनाना शुरू कर दिया। उस दिन से, विशेषकर टीएन कौल द्वारा दबाव बनाने चलते, मुझे लगने लगा कि वाकई क्या शास्त्री की मृत्यु हृदयगति रूक जाने चलते ही हुई थी? जब मैं ब्रिटेन में भारत का उच्चायुक्त बना तब मैंने इस बाबत जानकारी जुटाने का प्रयास किया। सोवियत संघ के विघटन बाद वहां के पुराने सरकारी दस्तावेज सामने आने लगे थे। मैंने एक महत्वपूर्ण व्यक्ति से जानना चाहा कि क्या ताशकंद वार्ता से जुड़े दस्तावेज सार्वजनिक हो गए हैं? उस व्यक्ति ने जवाब दिया कि उन्होंने ताशंकद से जुड़े सारे दस्तावेज खुद देखे हैं लेकिन उनमें शास्त्री की मृत्यु बाबत कुछ भी नहीं है। क्या उन दस्तावेजों को जारी नहीं किया गया? या फिर नष्ट कर दिया गया? उक्त व्यक्ति के पास इन प्रश्नों का कोई उत्तर न था। रहस्य तब और गहरा गया जब भारतीय विदेश मंत्रालय ने शास्त्री की मौत से जुड़े दस्तावेजों की जानकारी देने से इंकार कर दिया। मंत्रालय ने 2009 में सूचना के अधिकार के अंतर्गत इस विषय पर मांगी गई जानकारी को ‘जनहित’ के नाम पर देने से मना कर दिया।’

लाल बहादुर शास्त्री मात्र 16 महीने ही भारत के प्रधानमंत्री रहे इन 16 महीनों में उनके समक्ष एक के बाद एक गंभीर संकट उभरे। दक्षिण में भाषाई विवाद से लेकर पूर्वोत्तर और उत्तर में अलगाववाद, भीषण अन्न संकट, अंतरराष्ट्रीय सीमाओं का पड़ोसी देशों द्वारा अतिक्रमण आदि समस्याओं का हल शास्त्री बेहद सूझ-बूझ और अपनी प्रसिद्ध ‘समन्वयवादी’ नीति सहारे निकाल पाने में सफल रहे। उनकी मृत्यु के तत्काल बाद उनकी सरकार में नंबर दो मंत्री गुलजारी लाल नंदा को अंतरिम प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया। जवाहर लाल नेहरू के निधन से अभी पूरी तरह उबर न सकी कांग्रेस के सामने एक बार फिर से नेतृत्व का संकट आन खड़ा हुआ था। पद के दावेदारों की सूची पहले से अधिक लंबी हो चली थी और इस दफे राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं खुलकर उभर सामने आने लगी थी।

इंदिराकाल
लाल बहादुर शास्त्री के आकस्मिक निधन ने एक बार फिर से कांग्रेस को गंभीर संकट में डाल दिया। नए प्रधानमंत्री का चयन इस दफे ज्यादा कठिन साबित हुआ। कांग्रेस अध्यक्ष के कामकाज ने हालांकि शास्त्री के निधन बाद तुरंत ही आम राय के जरिए इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की कवायद शुरू कर दी थी लेकिन मोरारजी देसाई किसी भी सूरत में अपनी दावेदारी से पीछे हटने को तैयार नहीं थे। ‘नेहरू के बाद कौन?’ का सवाल जवाहरलाल नेहरू के जीवनकाल में ही उठने लगा था। अमेरिकी पत्रकार वैल्स हैंगन ने 1963 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘आफ्टर नेहरू हु?’ ;।जिमत छमीतनए ूवघ्द्ध में जिन भारतीय नेताओं के नेहरू बाद प्रधानमंत्री बनने की संभावनाओं पर विचार किया था उनमें मोरारजी देसाई और इंदिरा गांधी शामिल थे। वैल्स हैंगन की राय में मोरारजी भाई देसाई इस पद के लिए सर्वथा योग्य उम्मीदवार थे-‘It I were told at the unlikely hour of five o’clock tomorrow morning in New Delhi to find the man most likely to succeed Nehru as Prime Minister of India, I would go to Number One Willingdon crescent.There I would enter the high sandstone gate, pass a sleepy guard, and ring the doorbell of a rambling one story mansion covered with peeling yellow paint and streaked by the monsoon. It I were admitted- which is unlikely at that hour. I would go to a stiffing bedroom, where I would find the object on my quest doing yoga excercises in bed.Morarji Ranchhodji Desai, India’s puritanical prophet of solvency and salvation, would already be well launched on another day’s crusade… If Desai does become the Prime Minister of India, he will be ruthless with dishonest business men while giving considerable scope to legitimate private enterprise.He would also encourage the investment of foreign private capital in India. He has none of Nehru’s deep-seated suspicion of the ‘private sector’ and his revulsion at the profit motive. India’s state owned industry would be maintained and expanded, but not necessarily at the expense of private operators’ (अगर मुझे कल सुबह के पांच बजे भारत के प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू के उत्तराधिकारी को तलाशने के लिए कहा जाए, तो मैं नंबर एक, विलिंगटन क्रिसेंट जाऊंगा जहां पत्थर के बने ऊंचे हार पर तैनात एक अधजगे पहरेदार की बगल से गुजर कर मैं पीले रंग की एक मंजिला कोठी की घण्टी बजाऊंगा। यदि मुझे इतनी सुबह भीतर प्रवेश करने दिया गया-जो संभव नहीं है- तो मैं एक दमघोंटू शयनकक्ष में प्रवेश करूंगा जहां मेरी तलाश पूरी होगी। मुझे भारत का नया प्रधानमंत्री बिस्तर पर योगा अभ्यास करता मिलेगा। मोरारजी रणछोड़जी देसाई, भारत में शुद्धतावादी राजनीति का प्रतीक नए दिन की शुरुआत कर चुका होगा… यदि देसाई भारत के प्रधानमंत्री बनते हैं तो वे ईमानदार निजी उद्योगपतियों को उचित गुंजाइश देने वाले और बेईमान व्यापारियों के लिए निर्मम साबित होंगे। वे भारत में विदेशी पूंजी निवेश को भी प्रोत्साहित करेंगे। नेहरू की भांति उनके मन में ‘निजी क्षेत्र’ की बाबत नकारात्मक धारणा नहीं है और वे उचित मुनाफे को गलत नहीं मानते हैं। उनके कार्यकाल में सरकारी क्षेत्र के उपक्रमों का विस्तार भी होगा लेकिन निजी क्षेत्र की कीमत पर नहीं)।

अपनी इसी पुस्तक में नेहरू के संभावित उत्तराधिकारी बतौर वैल्स हैंगन ने लिखा-Plato believed that ‘immortal sons deflying their fathers’ were the guarantee of progress. Jawaharlal Nehru has no son to defy him, but he has a daughter whose defiances lies in her apparent determination to achieve the things her father only willed. Indira Gandhi, Nehru’s dearest and most trusted disciple, aspires to but his gospel in to practice. If she succeeds, she could become the most powerful woman in the world today. If she fails, she will join the ranks of the anonymeous offspring of famous fathers. She is different from any of the others sketched in this book, not only because she is a woman, but becouse her political potential is hard to measure…Mrs Gandhi insists that She has no political ambitions, wants no career, seeks nothing for herself, and threatens no one. Not many people in Delhi are convinced by such professions, as her aunt mrs. Vijay lakshmi Pandit says, ‘whatever it was that originally prompted India to get in to politics, I am sure she will continue. She is too deeply involved to get out now.'(प्लेटो का मानना था कि ‘अपने पिता की अवहेलना करने वाले बेटे’ प्रगति की गारंटी होते हैं। जवाहर लाल नेहरू के पास उनकी अवहेलना करने के लिए कोई पुत्र नहीं है, लेकिन उनकी एक बेटी है जो अपने पिता की अवहेलना केवल इसलिए करती है कि वह अपने पिता के द्वारा तय किए गए लक्ष्यों को हासिल कर सके। इंदिरा गांधी, नेहरू की सबसे प्रिय और भरोसेमन्द शिष्या, उनके सिद्धान्तों को व्यवहार में लाने की इच्छा रखती है। अगर वह सफल हो जाती हैं तो वह विश्व की सबसे शक्तिशाली महिला आज बन सकती हैं। और यदि वह विफल रहती हैं तो वह भी प्रसिद्ध पिता की अनाम सन्तानों की श्रेणी में शामिल हो जाएंगी। इंदिरा गांधी इस पुस्तक में विचित्र किसी भी अन्य किरदार से अलग हैं, न केवल इसलिए कि वे महिला हैं, बल्कि इसलिए कि उनकी राजनीति क्षमता को मापना बेहद कठिन है ….श्रीमती गांधी जोर देकर कहती हैं कि उनकी कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं है, कोई भविष्य बनाने की चाह नहीं है, खुद के लिए कुछ भी नहीं चाहने की बात वह कहती हैं लेकिन दिल्ली में ऐसे लोग बेहद कम हैं जो इन बातों पर विश्वास करते हैं। स्वयं उनकी बुआ श्रीमती विजय लक्ष्मी पण्डित का कहना है कि ‘इंदिरा जिस किसी भी कारण राजनीति में सक्रिय हुई हो, अब उसका वापसी करना सम्भव नहीं है। वह शर्तिया राजनीति में बनी रहेगी’)।

हैगन का कथन कि इंदिरा गांधी की राजनीतिक क्षमता को आंक पाना बेहद कठिन है, आने वाले समय में सत्य साबित हुआ।

कई वरिष्ठ कांग्रेसियों ने और राजनीति में इंदिरा के संरक्षक कहलाए जाने वाले वीके कृष्ण मेनन ने भी कामराज को कहा था कि वे इंदिरा पर भरोसा न करें।श् कामराज लेकिन इंदिरा के पक्ष में कांग्रेस पार्टी को एकजुट करने में जुट गए। मोरारजी देसाई भी अपनी दावेदारी को किसी भी सूरत में छोड़ने के लिए राजी नहीं थे। नतीजा कांग्रेस के इतिहास में पहली बार संसदीय दल के नेता के लिए चुनाव का रास्ता अपनाए जाने का रहा। के .कामराज की मदद से इंदिरा गांधी बड़ी आसानी से यह चुनाव जीतने में सफल रहीं। उन्हें 355 सांसदों का समर्थन मिला। मोरारजी देसाई के पक्ष में मात्र 165 वोट पड़े। इस तरह से इंदिरा गांधी देश की तीसरी प्रधानमंत्री बन गईं। 24 जनवरी, 1966 को उन्होंने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। इंदिरा विश्व की दूसरी महिला प्रधानमंत्री जो लोकतंत्रिक तरीके से इस पद तक पहुंची। सीलोन (अब श्रीलंका) की सिरिमा बण्डारनायक को विश्व की पहली महिला प्रधानमंत्री का गौरव प्राप्त है।

क्रमशः

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