यह निश्चित, निर्विवाद है कि हमारा बचपन हमें गढ़ने का काम करता है। जिस परिवेश में बड़े हो रहे होते हैं, वहां यदि प्यार की ऊष्मा, राग-द्वेष से दूरी और मानवीय गरिमा को समझने का माहौल होता है तो इन सबके बीज हमारे भीतर रोपित हो जाते हैं, जो आगे चलकर हम चाहे जितना भूलें-भटके या भरमाएं, कुछ ना कुछ ऐसा बचा अवश्य रह जाता है जो जीवन मूल्यों के प्रति आस्था बनाए रखने का काम करता है। मेरा बचपन ऐसे माहौल में बीता जहां गिल्ली-डंडा और कंचे खेलने की उम्र में जनआंदोलनों का हिस्सा बनने का मौका मुझे मिला। मेरे चाचा नंदनंदन प्रसाद पांडे को इसका श्रेय जाता है जिन्होंने मेरे पिता की मृत्यु प्रश्चात हम भाइयों में मानवीय गरिमा के मूल्य रोपित करने का मार्ग प्रशस्त किया। चाचा स्वयं तो उत्तर प्रदेश सरकार के मुलाजिम थे। लेकिन उनके संगी-साथी खांटी जनआंदोलनकारी। हमारा रानीखेत स्थित घर ऐसे जनआंदोलनकारियों का धीरे-धीरे अड्डा बनने लगा था। इनमें डॉ शमशेर सिंह बिष्ट, पीसी तिवारी, खड़क सिंह खनी, प्रदीप टम्टा, प्रताप बिष्ट, डॉ. शेखर पाठक, कमला पंत, उमा भट्ट आदि शामिल थे। आज मुझे डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट के निधन पश्चात सब बातें एक-एक कर याद आ रही हैं। सबसे ज्यादा याद आ रहा है डॉ बिष्ट का सरल स्वभाव, उनकी विन्रमता और रूसी क्रांति के जरिए जनसरोकारों से जुड़ी बातों को मुझे समझाने की उनकी रोचक और ज्ञानवर्धक शैली।
बिष्ट जी से हमारे परिवार का परिचय नंदन पांडे जी के जरिए ही हुआ था। धीरे-धीरे यह परिचय प्रगाढ़ता में बदल गया। मैं तब केंद्रीय विद्यालय रानीखेत का छात्र था। बिष्ट जी की पत्नी वहां अंग्रेजी की प्राध्यापक थीं। डॉ. साहब तब ‘जंगल के दावेदार’ नाम से साप्ताहिक समाचार पत्र का संपादन करने के साथ- साथ पर्वतीय क्षेत्र के ज्वलंत मुद्दों से जूझते रहते थे। मैडम कई बार विद्यालय जाने से पहले अपने पुत्र ज्यू (जयमित्र बिष्ट) को हमारे घर छोड़ जाया करती थीं। उन दिनों उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी एक बड़े सामाजिक संगठन के रूप में उत्तर प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्र में उभर चुका था। डॉ. बिष्ट इसके अध्यक्ष थे। उनके नेतृत्व में नशे के खिलाफ एक बड़ा जनआंदोलन शुरू हो चुका था। ‘नशा नहीं रोजगार दो’ के शंखनाद के जरिए माफिया संस्कृति से यह आंदोलन टकरा रहा था। संघर्ष वाहिनी दरअसल 1977 में गठित पर्वतीय युवा मोर्चा का विस्तार था। खड़क सिंह खनी बाद के वर्षों में जब नोएडा मेरे घर में रह कैंसर जैसी असाध्य बीमारी से जूझ रहे थे, उन दिनों उन्होंने डॉ. बिष्ट के बारे में कई ऐसी जानकारियों से मुझे अवगत कराया था। पर्वतीय युवा मोर्चा के जरिए डॉ. बिष्ट और उनके साथी पहाड़ों में अवैध वृक्ष कटान, लीसा चोरी, अवैध खनन के खिलाफ जनमानस को जागृत कर रहे थे। खड़क दा ने ही मुझे बताया था कि शमशेर सिंह बिष्ट के नेतृत्व में वनों की नीलामी के खिलाफ चले आंदोलन ने उत्तर प्रदेश को सरकार को हिलाकर रख दिया था। नैनीताल का प्रसिद्ध नैनीताल क्लब आंदोलनकारियों ने आग में झोंक दिया था। ‘नशा नहीं रोजगार दो’ आंदोलन के दौरान मैं डॉ. बिष्ट और पीसी तिवारी के साथ रहता। उम्र थी मात्र बारह-चौदह की। यह समझ नहीं थी कि आंदोलन का उद्देश्य कितना व्यापक और किन बुराइयों के खिलाफ है। इतना अवश्य समझ आता था कि यह सबकी बोल्शेविक क्रांति की तरह एक बड़े उद्देश्य की शुरुआती लड़ाई है। मेरे पास एक आग्फा आईसोली’ कैमरा था, जिससे मैं आंदोलन की तस्वीरें लिया करता। बाद में, सही समय याद नहीं, इंडियन पीपुल्स फ्रंट के गठन बाद शायद अल्मोड़ा में हुई जनसभा में मुझे वक्ताओं के भाषण रिकॉर्ड करने का काम बिष्ट जी ने सौंपा था। मुझे इतना अभिमान खुद पर हुआ, लगा मैं भी ‘पावेल’ हूं। निकोलाई आस्त्रोवस्की की किताब ‘हाउ दि स्टील वॉज टेम्पर्ड’ के नायक समान। हालांकि यह जिम्मेदारी मुझे इस चलते दी गई थी क्योंकि तब टेपरिकॉर्डर हमारे ही पास था। 1989 में मां का ट्रांसफर लखनऊ हो गया। संघर्ष वाहिनी और काफी हद तक पहाड़ से मेरा नाता टूट गया। बिष्ट जी और पीसी तिवारी संग लेकिन संपर्क लगातार बना रहा। बाद के वर्षों में जब ‘दि संडे पोस्ट’ का प्रकाशन शुरू हुआ तो कुछेक मुद्दों पर मेरे डॉ. बिष्ट से मतभेद भी रहे। लेकिन मनभेद वाली स्थिति कभी नहीं आई। अल्मोड़ा मेरा जाना कम ही होता था। एकाध बार जब गया तो डॉ. बिष्ट अवश्य मिले। उनका मेरे प्रति प्रेम भाव हमेशा बना रहा, मतभेदों के बावजूद आज यदि यह अखबार जनसरोकारों के समर्थन में कुछ भी थोड़ा-बहुत सार्थक कर पा रहा है तो इसके पीछे बचपन में मेरे भीतर रोपित किए गए वही मूल्य हैं जो समय बीतने के साथ अपनी जड़ें मजबूत करते गए हैं। मुझे नहीं पता कि इस अखबार के सत्रह बरस का सफर कितना सार्थक रहा है। कभी-कभी गहरी व्यर्थता बोध का एहसास होता है। कहीं गहरे महसूसता हूं कि यूं ही जीवन बीत चला है। लिखे भले ही हम कितना भी, बदलने वाला कुछ है नहीं। सार्वजनिक जीवन में मूल्यों का क्षरण तेजी से होता जा रहा है। हमारे लिखे का कहीं कोई प्रभाव पड़ता दिखता नहीं। मुगालता जरूर कभी-कभी हो जाता है कि हमने, हमारे लिखे ने कुछ हासिल किया है। कटु सत्य लेकिन यही है कि सिल पर निशान तक नहीं पड़ रहे हैं, रस्सी भले ही हम लगातार घिस रहे हों। कुछ ऐसा ही हमारे राज्य की असल, समर्पित आंदोलनकारी शक्तियों के साथ भी हुआ है। जिन सपनों को साकार करने के लिए जनआंदोलन किए गए, पृथक राज्य की लड़ाई लड़ी गई, सबकुछ व्यर्थ चला गया। जिस देवभूमि ने ‘चिपको’ और ‘नशा नहीं रोजगार दो’ जैसे आंदोलनों को जन्मा, वहां आज इनकी ही सुध लेने वाला कोई नहीं। वृक्षों की वैध-अवैध कटान निर्बाध जारी है तो नशे को घर-घर तक पहुंचाने का ठेका सरकार ने स्वयं ले लिया है। कैसी त्रासदी है कि उत्तर प्रदेश का हिस्सा रहते हमें शिकायत रहती थी कि हमारी संस्कृति, हमारी समस्याओं को लखनऊ बैठे नीतिकार समझ नहीं सकते। अब जब हमारे भाई-बंधु सत्ता में हैं तो हालात भयावह हो चले हैं। शायद इसलिए क्योंकि जिन्होंने एक अलग राज्य की लड़ाई लड़ी, सपने बुने, वे सब हाशिए पर चले गए। सत्ता पहले ही दिन से ऐसों के हाथों में आ गई जिनका उद्देश्य केवल निजी हित की पूर्ति करना मात्र है। देश में मंचीय कविता के एक बड़े हस्ताक्षर डॉ हरिओम पंवार की एक कविता आज मुझे डॉ बिष्ट के न रहने पर याद आ रही है। उन डॉ बिष्ट के जो उत्तराखण्ड के हर जनसरोकारी मुद्दे पर सड़क पर उतरे, संघर्ष किया लेकिन राज्य बनने के बाद कहीं किनारे पर पटक दिए गए। ऐसों के लिए ही कवि कहता हैः-
अंधकार में समा गए जो तुफानों के बीच जले,
मंजिल उन्हें मिली जो चार कदम भी नहीं चले।
क्रांति कथानक गौण पड़े हैं गुमनामी की बाहों में,
गुंडे तस्कर तनकर खड़े हैं राजमहल की राहों में।
यहां शहीदों की पावन गाथाओं को अपमान मिला,
डाकू ने खादी पहनी तो संसद में सम्मान मिला।
बहरहाल जैसा की हमारे यहां परंपरा है, किसी के ना रहने पर उसका यशोगान करने की। निसंदेह डॉ बिष्ट एक प्रखर और समर्पित जनआंदोलनकारी थे। उनकी जनसरोकारीय मूल्यों के प्रति गहरी आस्था और प्रतिबद्धता थी। वे अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने वाली शक्तियों के साथ आजीवन खड़े रहे। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि वे जिन मूल्यों की बात करते थे, उन पर उन्होंने निजी तौर पर पूरा अमल किया। सच लेकिन यह भी है उत्तराखण्ड के इन खांटी आंदोलनकारियों की धार समय बीतने के साथ-साथ कम होती चली गई। आपसी मतभेद, मनभेद में बदल गए। सब अपनी ढपली, अपना राग में लग गए। उद्देश्य सबका एक था, लेकिन शायद कुछ निजी महत्वाकांक्षाएं, कुछ आपस में ईगो प्रॉब्लम, सच्चे मित्रों के मध्य दरार पड़ी जिसका खामियाजा पूरे उत्तराखण्ड को झेलना पड़ रहा है। जिन्हें नए राज्य के गठन बाद सत्ता मिलनी चाहिए थी, वे हाशिए पर पहुंच गए हैं। सत्ता जिन्हें मिली, वे सब अपने दायित्यों का निर्वहन करने में बुरी तरह विफल रहे हैं। डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट को यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी कि राज्य की तमाम आंदोलनाकारी शक्तियां अपने मतभेद भुला एक हो आने वाले लोकसभा और विधानसभा चुनाव लड़े, साथ ही गैरसैंण राजधानी व अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों पर इन सभी के मध्य सहमति बने ताकि एक नए जैसे आंदोलन का जन्म हो सके जो लड़ाई को मुकम्मल अंजाम तक पहुंचा सके।