आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे देश के बीते पिचहत्तर बरसों को समझने का मेरा इरादा, वर्तमान से मेरा नाता टूटने का कारण बनता जा रहा है। बीते चौदह हफ्तों के दौरान मैं अतीत को खंगालने में इतना व्यस्त हो गया कि वर्तमान में चौतरफा मचे हाहाकार और कोलाहल की आवाजें मुझे सुनाई देनी बंद-सी हो गई। अखबार में केवल ‘दि इंडियन एक्सप्रेस’ पढ़ता हूं। टीवी चैनलों (न्यूज चैनल) को देखना लगभग बंद अर्सा पहले से ही कर दिया है। केवल ‘एनडीटीवी’ कभी-कभार देख लिया करता था, अब पिछले चौदह हफ्तों से वह भी बंद है। अतीत के जरिए वर्तमान को समझना एक बेहद रोचक कार्य है लेकिन वर्तमान से पूरी तरह कट जाना और अतीत के पन्ने खंगालने में खुद को डूबो लेना जायज नहीं, कम से कम एक पत्रकार और संपादक के लिए तो कतई नहीं। तो चलिए फिर से वर्तमान से जुड़ हालिया समय में जो कुछ देश-दुनिया में चल रहा है, उस पर कुछ चर्चा की जाए।
पिछले कुछ अर्से से एक बार फिर ‘लोकतंत्र खतरे में है’ की बात उठने लगी है। यह बात लेकिन नक्कारखाने में तूती के समान है क्योंकि वर्तमान समय में लोकतंत्र की परवाह देश के बहुसंख्यक समाज को है ही नहीं। वह तो आनंद के सागर में गोते लगा रहा है कि देश का अल्पसंख्यक अब अपनी ‘औकात’ समझ चुका है। यह समझ उसे बुलडोजर के जरिए समझाई जा चुकी है। भले ही यह बुलडोजर लोकतंत्र की नींव को खोखली कर रहा हो, ‘अस्सी प्रतिशत’ तमाम असलियतों से आंख मूंद ऐसे जश्न मना रहा है कि मानो उसके सभी बुनियादी सवालों का जवाब बीस प्रतिशत को आतंकित और अपमानित कर हासिल होने वाला हो। भाजपा के दो प्रवक्ताओं द्वारा पैगंबर मोहम्मद को लेकर अनर्गल टिप्पणी ने पहले से ही विषाक्त माहौल को और बिगाड़ने का काम कर दिया है। उनके बयानों से नाराज इस्लामी राष्ट्रों का कड़ा प्रतिवाद सामने आया और उसके बाद भाजपा द्वारा अपने इन दो नेताओं के बयानों से पल्ला झाड़ने की कवायद भी देखने को मिली। अतीत की अपनी यात्रा में, मैं इतना मशगूल इन दिनों हूं कि मुझे वर्तमान हालातों पर कुछ कहने-लिखने की इच्छा हुई ही नहीं। कल 15 जून को लेकिन अपने एक करीबी मित्र प्रविंद की बातों ने मुझे विचलित करने का काम किया। प्रविंद कुमार सिंह मेरा बहुत प्रिय दोस्त है, मैं उसे अपना छोटा भाई समान मानता हूं और वह मुझे बड़े भाई समान सम्मान देता है। प्रविंद की गिनती मैं जीनियस की श्रेणी में करता हूं। तकनीक का उस्ताद तो है ही, मेडिकल साइंस में भी उसकी पकड़ अद्भुत है। इसलिए उसके एक कथन ‘नुपूर शर्मा ने जो कहा ठीक ही कहा’ ने मुझे गहरा सदमा सा पहुंचा दिया। देश की पढ़ी-लिखी जमात के मन में मुसलमानों के प्रति इतनी नफरत, इस तेजी से, कैसे पनप गई, सोच मैं खुद को आतंकित और असहाय सा पा रहा हूं। चूंकि इन दिनों आजाद भारत की यात्रा को समझने-बूझने में जुटा हूं इसलिए भारत के भविष्य को लेकर मेरी आशंकाएं दिनों दिन गहराती जा रही हैं। आज जिस 80 बनाम 20 प्रतिशत की बात की जा रही है, कल वह धर्म के आधार पर बंटवारे से आगे बढ़ कर भाषा और जाति की लड़ाई में बदल जाएगी। जिस 80 प्रतिशत की बात आज कही जा रही है वह 80 प्रतिशत नाना प्रकार की जातियों, उपजातियों, संप्रदायों में गहरे बंटा हुआ है। भाषा को लेकर भी उसके भीतर गहरे मतभेद और मनभेद हैं। भले ही 20 प्रतिशत को लेकर यह 80 प्रतिशत को आज काफी हद तक एकजुट किया जा चुका है लेकिन यह एकजुटता स्थाई नहीं, तात्कालिक हैं और है भी तो केवल ऊपरी तल पर। भीतर हम गहरे बंटे हुए समाज का हिस्सा हैं। जिस हिंदुत्व के नाम पर इस 80 प्रतिशत को एकजुट किया जा रहा है वह कितना खोखला है इसे केवल एक उदाहरण से समझा जा सकता है- उत्तर प्रदेश में कुछ अर्सा पहले जुलाई 2020 में कानपुर जिले में आठ पुलिसकर्मियों की एक अपराधी ने हत्या कर दी थी। ‘विकास दुबे’ नाम का यह अपराधी उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा एक कथित मुठभेड़ में मार गिराया गया था। तब पूरे प्रदेश में इस कथित मुठभेड़ की विश्वसनीयता पर या फिर लोकतंत्र में अपराधियों के मानवाधिकार जैसे मुद्दे पर चर्चा न होकर एक ब्राह्मण की हत्या, एक क्षत्रिय के राज में होने पर ज्यादा हुई थी। योगी आदित्यनाथ सरकार पर आरोप लगाए गए थे कि ब्राह्मण उनके राज में सुरक्षित नहीं हैं। यह केवल एक उदाहरण है, समझदारों के लिए इशारा भर काफी है, यह समझने के लिए कि 80 प्रतिशत कितना एकजुट समाज है। हर जाति, उपजाति के अपने-अपने संगठन कुकुरमुत्ते की भांति गली-गली उग आए हैं जो स्पष्ट संकेत दे रहे हैं कि धर्म के नाम पर बंटवारे की लड़ाई आने वाले समय में 80 प्रतिशत के मध्य शताब्दियों से बैठी वैमनस्यता को अपनी चपेट में लेकर रहेगी। प्रश्न यह उठता है कि इस बात को समझाया जाए तो कैसे? धर्म की आंधी ने 80 प्रतिशत को अंधा कर डाला है। तमाम बुनियादी सवालों से, उन सवालों से जिनसे उसका सीधा वास्ता है, वह इस धर्मांधता चलते दूर हो चला है। सत्ता ने पूरे प्रचार तंत्र पर अपना कब्जा इस कदर मजबूत कर डाला है कि वह बड़ी आसानी से झूठ को सच और सच को झूठा साबित कर डालती है। जो इस पूरे ‘खेल’ को समझ रहे हैं, वे सब भी मेरी तरह व्यथित और हताश हैं। कई प्रतिष्ठित समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के संपादक रहे विष्णु नागर की एक फेसबुक पोस्ट से इसे समझा जा सकता है। विष्णु जी लिखते हैं ‘जिंदगी भर हिंदी पत्रकारिता की। हिंदी अखबारों का आज का मानसिक दिवालियापन, सरकार की जी हुजूरी, हिंदुत्व का प्रोपेगैंडा और हिंदी को विकलांग बनाने की साजिश -सी इस भाषा के अखबारों तथा टीवी चैनलों पर दिखाई पड़ती है, वह व्यथित करती है। गोदी चैनल तो दिन रात नफरत की मशीनगन बने हुए हैं। कोई रोक-टोक कहीं से भी नहीं। विपक्ष भी बोलता नहीं।’ एक अन्य पोस्ट में उन्होंने लिखा ‘अब तो खैर, रोना-हंसी, दुख-क्रोध सब स्थगित है। अब तो मोदी जी, शाह जी, योगी जी, अनुराग ठाकुर जी, अलां जी, फलां जी, नुपूर जी, नवीन जिंदल जी, नरसिंहानंद जी, पंडित जी, महाराज जी, गुप्ता जी, सिंह साहब यानी किसी की भी कितनी ही बेढंगी, ओछी, घृणित, झूठी बात पर कुछ नहीं होता। बात तो इनके काम पर भी कुछ नहीं होता। भगवाधारी सभी सचमुच के साधु-संत होते हैं और देश का प्रधानमंत्री, सचमुच प्रधानमंत्री ही होता है, यह भ्रम भी टूट चुका है। अब तो लगता है 80 बनाम 20 की इशारेबाजी का युग भी जा चुका है। अब नरसिंहानंद-नुपूर शर्मा का युग है। खुला खेल फरूर्खाबादी का समय है। अब नरसंहार करने की धमकी देना और उस पर भी कहीं कुछ न होना इतना सामान्य हो चुका है कि यह भी चकित-थकित-व्यथित नहीं करता।
एक अन्य मित्र की फेसबुक पोस्ट भी काबिल-ए-गौर है। वरिष्ठ पत्रकार और चिंतन प्रियदर्शन अपनी एक पोस्ट में लिखते हैं ‘ ़ ़ ़दूसरी बात यह कि नुपूर शर्मा अकेली नहीं हैं। वे एक व्यवस्था और विचारधारा की पैदाइश हैं उन्होंने जो कुछ कहा वह इसलिए नहीं कहा कि वह आवेश में उनके मुंह से निकल गया, उनको उम्मीद थी कि उनके कहे पर उनकी पीठ थपथपाई जाएगी, अपनी पार्टी के भीतर उनको बेहतर जगह मिलेगी। यानी नुपूर शर्मा तो एक कठपुतली भर हैं जिनके धागे असहिष्ण्ुता और गाली-गलौज को प्रोत्साहन देने वाले एक वैचारिक परिवार के हाथ में हैं और जिसके साथ इन दिनों सत्ता और पूंजी का बल भी है। हमारी असली चुनौती दरअसल इस ताकत से मुकाबला करने की है, यह मुकाबला सड़क पर उतर कर नहीं होगा। क्योंकि इससे सत्ता को भी सड़क पर उतरने का मौका मिलता है। फिर उसके पास लाठी-डंडा और गोली चलाने के तर्क चले आते हैं। कई प्रगतिशील बुद्धिजीवी भी बीती रात से मुंडी हिलाते कह रहे हैं कि पुलिस को उन लोगों को ‘तोड़ना’ चाहिए जो सड़क पर तोड़-फोड़ कर रहे हैं। ़ ़ ़आज की तारीख में हिंदुस्तान जैसे किसी उन्माद में डूबा हुआ है। सियासत से अदालत तक जैसे इतिहास के उत्खनन में लगी हुई है, गालियों का हिसाब लगाने में उलझी हुई हैं, पूजा स्थलों की प्रामाणिकता जांच रही हैं। मीडिया 24 घंटे बजबजाती घृणा के तालाब में डूबा हुआ है तो सोशल मीडिया एक खौलता समंदर बना हुआ है। एक तरह की बर्बरता जैसे हमारे सार्वजनिक व्यवहार का हिस्सा हुई जा रही है। हम सब एक-दूसरे पर टूट पड़ने पर आमादा हैं।’
विष्णु नागर जी और प्रियदर्शन जी के बातों से मैं पूरा इत्तेफाक रखता हूं। मैं लेकिन समझ नहीं पा रहा हूं कि कैसे 80 प्रतिशत की आंखों में बंधी पट्टी को हटाया जा सकता है। कोई कुछ सुनने को तैयार ही नहीं है। 18वीं सदी के अंग्रेजी कवि थामस ग्रे की एक कविता है ‘Ode on a Distant Prospect of Eton College’ ऐसे में मुझे अनायास याद आ रही है। लंबी कविता है जिसका अंतिम अंश यहां उद्घृत कर रहा हूंः
To each his suff’rings: all are men,
Condemn’d alike to groan-
The tender for another’s pain;
Th’ unfeeling for his own.
Yet ah! why should they know their fate,
Since sorrow never comes too late,
And happiness too swiftly flies?
Thought would destroy their paradise.
No more;- where ignorance is bliss,
‘Tis folly to be wise.
यही आज का सच भी है ‘Where ignorance is bliss, it is folly to be wise’ यानी जहां अज्ञानता को पूजा जाता हो वहां समझदार होना मूर्खता समान है। पर क्या यह मान लेने भर से हम अपने कर्तव्य की इतिश्री मान शांत बैठ जाएं? याद तो यह भी रखना होगा कि ‘नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध।