वर्ष 1950 में भारतीय संविधान को अंगीकृत करते समय इसकी प्रस्तावना में कहा गया था कि ‘हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उसमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए संकल्पपूर्वक संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।’ 1976 में इस प्रस्तावना में ‘समाजवादी’, पंथनिरपेक्ष तथा ‘एकता और अखंडता’ शब्द 42वें संशोधन के जरिए जोड़े गए थे। वर्तमान में यह प्रस्तावना इन शब्दों को समाहित किए हुए है- ‘हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उसमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए संकल्पपूर्वक संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।’ 1973 में ‘केशवानंद भारती बनाम भारत गणराज्य’ मामले में उच्चतम न्यायालय ने अपना महत्वपूर्ण निर्णय दिया जिसमें यह स्पष्ट कहा गया था कि प्रस्तावना संविधान का अभिन्न हिस्सा है क्योंकि यह संविधान की मौलिक संरचना को दर्शाती है। इसी मामले में उच्चतम् न्यायालय ने यह भी स्पष्ट मत दिया था कि संविधान की मूल संरचना संग छेड़छाड़ करने का अधिकार संसद को नहीं है। इस प्रस्तावना संग लेकिन लगातार खिलवाड़ आजादी उपरांत हर सरकार ने किया। फिर चाहे वह सामाजिक और आर्थिक न्याय की बात हो या फिर विचार अभिव्यक्ति, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता का मुद्दा हो। 1969 में संविधान की इसी मूल भावना को अमलीजामा पहनाने के उद्देश्य से तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने ‘एकाधिकार और प्रतिसंधात्मक व्यापार अधिनियम (एमआरटीपी एक्ट) लागू किया था। इसका उद्देश्य देश में व्यापारिक गतिविधियों में एकाधिकार और अनुचित व्यवहार को रोकना तथा व्यापार में प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देना था ताकि किसी एक व्यक्ति अथवा एक व्यापारिक समूह के एकाधिकार को रोका जा सके। एकाधिकार से अनुचित व्यापार व्यवहार का खतरा तथा आम उपभोक्ता के हितों को नुकसान पहुंचता है जबकि प्रतिस्पर्धा होने से अर्थव्यवस्था को अधिक बेहतर और पारदर्शी बनाने में सहायता मिलती है। इसी कारण इस कानून को 1969 में लागू किया गया था। कानून का उद्देश्य निश्चित ही संविधान की मूल भावना के अनुरूप था लेकिन यह कानून बाजार में प्रतिस्पर्धा की निगरानी और एक व्यक्ति या समूह के एकाधिकार पर प्रभावी रूप से नियंत्रण रख पाने में विफल रहा। कारण था तत्कालीन सरकारों द्वारा बड़े उद्योगपतियों को खुलकर संरक्षण देना और विशेष कृपा प्राप्त उद्योगपतियों के पक्ष में नीतियों का बनाया जाना। स्मरण रहे धीरूभाई अम्बानी के विशाल आर्थिक साम्राज्य के पीछे कांग्रेस सरकारों और बड़े नेताओं का अम्बानी को दिया गया संरक्षण ही था जिस चलते धीरूभाई केंद्र सरकार के कानून, नीति यहां तक कि केंद्रीय बजट तक को प्रभावित करने की क्षमता रखने लगे थे।
1991 में तत्कालीन नरसिम्हा राव सरकार, जिसमें बतौर वित्त मंत्री मनमोहन सिंह शामिल थे, ने व्यापक आर्थिक सुधारों की शुरूआत करी। विदेशी कंपनियों को भारत में निवेश करने के लिए तब तीव्र गति से सरकारी नीतियों को बदला गया था जिसके अपेक्षित परिणाम भी तेजी से सामने आए थे। नरसिम्हा राव जब सत्ताशीन हुए थे तब देश के पास कुल 97.5 करोड़ डॉलर का
विदेशी मुद्रा भंडार शेष रह गया था। राव के पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर ने मई-जून, 1991 में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा अन्य विदेशी वित्तीय संस्थाओं से ऋण लेने के लिए 46.91 टन सोना विदेश में गिरवी रखा जिसके बदले भारत को 220 करोड़ अमेरिकी डॉलर का ऋण मिला था। चन्द्रशेखर सरकार के समय मात्र 120 करोड़ अमेरिकी डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार था जो सिर्फ तीन सप्ताह के आयात खर्च को पूरा कर सकता था। 21 जून 1991 में जब नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने तब तक यह विदेशी मुद्रा भंडार मात्र 97.5 करोड़ अमेरिकी डॉलर ही बचा था। राव सरकार ने देश को अर्थिक रूप से दिवालिया होने से बचाने के लिए ही आर्थिक सुधारों को युद्ध स्तर पर लागू किया जिसका परिणाम रहा कि जब राव 1996 में प्रधानमंत्री पद से हटे तब तक हमारा विदेशी मुद्रा भंडार 1700 करोड़ अमेरिकी डॉलर जा पहुंचा था और भारत दिवालिया होने से बच गया था। 2002 में ‘एकाधिकार और प्रतिबंधात्मक अधिनियम के स्थान पर ज्यादा व्यापक और कठोर कानून ‘प्रतिस्पर्धा अधिनियम’ बनाया गया। 2009 में ‘एकाधिकार और प्रतिबंधात्मक अधिनियम’ को पूरी तरह हटा दिया गया। वर्तमान में बाजार में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने, एकाधिकार और व्यापारिक समूहों गुटबंदी करने से रोकने तथा कंपनियों द्वारा अनुचित व्यापार व्यवहार (Unfair Trade Practices) को रोकने, उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करने, किसी बड़ी कम्पनी अथवा समूह द्वारा किसी अन्य कंपनी का अधिग्रहण करने की स्थिति में यदि बाजार में प्रतिस्पर्धा प्रभावित हो तो उसे रोकने, यदि कम्पनियां आपस में मिलकर कीमतें तय करने लगे तो उसे रोकने, कोई बड़ी कम्पनी प्रतिस्पर्धा के नियमों का उल्लंघन कर छोटे व्यवसायों को नुकसान पहुंचाने की नीयत से अनुचित तरीके अपनाती है तो उस पर कार्यवाही करने आदि के लिए 2002 में बने नए कानून अनुसार प्रतिस्पर्धा आयोग (Competition Commission of India) को वृहद् अधिकार दिए गए हैं। कानून तो कई बने लेकिन उसका अनुपालन करने में यह देश सर्वथा विफल रहा है। कांग्रेस ने इस कानून को 1969 में बनाया और भाजपा नेतृत्व की एनडीए सरकार इसके स्थान पर ज्यादा व्यापक अधिकारों वाले प्रतिस्पर्धा कानून को लाई जरूर लेकिन किसी ने भी इससे प्रभावशाली तरीके से लागू नहीं होने दिया। अम्बानी समूह लगातार प्रतिस्पर्धा के नियमों को धता बता विशाल होता रहा, उसे कांग्रेस का पूरा संरक्षण था, अटल सरकार के 6 बरसों दौरान भी उसे सरकारी संरक्षण हासिल रहा। 2014 में केंद्र में मोदी सरकार के गठन बाद तो यह प्रतिस्पर्धा आयोग पूरी तरह निष्प्रभावी हो गया। इसे गौतम अडाणी जिस ‘चमत्कारी’ तरीके से बीते ग्यारह बरसों के दौरान सफलता की सीढ़ी चढ़े हैं, उससे स्पष्ट समझा जा सकता कि खुलेआम, पूरी सीनाजोरी, बेशर्मी और बेहयायी के साथ पूरी व्यवस्था, पूरा तंत्र इस एक समूह को आगे बढ़ाने में लगा है। अडाणी समूह का कुल बाजारी पूंजीकरण 2015 में 91.72 मिलियन था जो 2022 में बढ़कर 4.399 ट्रिलियन पहुंचा फिर हिंडनबर्ग की रिपोर्ट सार्वजनिक होने के बाद इसमें भारी गिरावट आई और 2025 में यह 2.679 ट्रिलियन रह गया है। सोचिए, दिमाग में जोर डालिए ऐसा कैसे संभव हुआ कि 2015 में मात्र 91.72 मिलियन का बाजारी पूंजीकरण वाला समूह 2022 आते-आते 4.399 ट्रिलियन वाला समूह बन गया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि इस समूह ने प्रतिस्पर्धा को दरकिनार किया और छोटी कम्पनियों का इसके द्वारा अधिग्रहण किया गया। इतना ही नहीं इसने अन्य व्यापारियों के साथ गुटबंदी कर सरकारी टेंडरों को हासिल किया। ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जहां प्रदेश सरकारों ने इस समूह पर विशेष कृपा तमाम नियम-कानूनों को धता बताते हुए बरसाई है। ताजा उदाहरण वित्त वर्ष 2023-24 में राजस्थान में हुई चूना पत्थर के 21 ब्लॉकों की नीलामी का है। इनमें से 20 ब्लॉक अकेले अडाणी के स्वामित्व वाली अंबुजा सीमेंट ने हासिल कर लिए। इनमें से कम से कम 15 खदानों की नीलामी में अंबुजा सीमेंट बोली लगाने वाली अकेली कम्पनी थी। यह कैसे संभव हुआ? अकेले बोली लगने की स्थिति में तो पूरी नीलामी प्रक्रिया ही रद्द कर दी जाती है। ये खद्यान राजस्थान में भाजपा की सरकार गठित होने के बाद अडाणी समूह को मिली हैं। हालांकि जब इस मुद्दे पर आरटीआई के जरिए जानकारी मांगी जाने लगी तो अगस्त 2024 में राज्य सरकार ने जनहित का हवाला देते हुए इनमें से 13 खदानों को अडाणी समूह से वापस ले लिया है, प्रश्न लेकिन यह कि ऐसा हुआ ही कैसे। सोचिए आजाद भारत की 75 बरस की यात्रा कितनी पथभ्रष्ट्र हो चली है। हम कहां आ पहुंचे हैं इस पर मंथन-चिंतन जरूरी है क्योंकि प्रश्न हमारा और आपका ही नहीं, देश के भविष्य का, लोकतंत्र के भविष्य का भी है। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने 77 बरस पहले जो लिखा वह आज सच साबित होता नजर आ रहा है और भयभीत कर रहा है-
आजादी तो मिल गई, मगर, यह गौरव कहां जुगाएगा?
मरभुखे! इसे घबराहट में तू बेच न तो खा जाएगा?
आजादी रोटी नहीं, मगर, दोनों में कोई वैर नहीं,
पर कहीं भूख बेताब हुई तो आजादी की खैर नहीं।
हो रहे खड़े आजादी को हर ओर दगा देनेवाले,
पशुओं को रोटी दिखा उन्हें फिर साथ लगा लेनेवाले।
इनके जादू का जोर भला कब तक बुभुक्षु सह सकता है?
है कौन, पेट की ज्वाला में पड़कर मनुष्य रह सकता है?
झेलेगा यह बलिदान? भूख की घनी चोट सह पाएगा?
आ पड़ी विपद तो क्या प्रताप-सा घास चबा रह पाएगा?
है बड़ी बात आजादी का पाना ही नहीं, जुगाना भी,
बलि एक बार ही नहीं, उसे पड़ता फिर-फिर दुहराना भी।