आजादी उपरांत अंगीकृत किए गए संविधान में सामाजिक सद्भाव बनाए रखने की नीयत से कई प्रावधान किए गए। उद्देश्य था नाना प्रकार की विविधता वाले देश में शांति और भाई चारे की स्थापना। ऐसा लेकिन केवल संविधान की किताब तक, धर्म गुरुओं के प्रवचनों तक, नेताओं के जुमलों तक ही सीमित रह गया और हम एक बेहद असहिष्णु और हिंसक समाज में बदलते चले गए हैं। मतांतर होना, वैचारिक बहस का होना, समाज को प्रभावित करने वाले ज्वलंत मुद्दों पर होने वाला संवाद एक स्वस्थ और जिंदा समाज होने का परिचायक है लेकिन इसमें हिंसा का, फिर चाहे वह शारीरिक हो या फिर शाब्दिक, किसी भी प्रकार की हिंसा का कोई स्थान नहीं है। बीते 77 बरस की हमारी यात्रा एक जागरूक और विचारशील समाज के बजाय हिंसक और बेहद असहिष्णु समाज की यात्रा बनकर रह गई है। बचपन से ही हमें गंगा-जमुनी संस्कृति का पाठ पढ़ाया जाता था, जो हमने अपने माता-पिता, दादा-दादी इत्यादि से सीखा और उसे ही अपनी अगली पीढ़ी तक पहुंचाया, पहुंचाने का प्रयास किया। मैं समझता हूं यह गंगा-जमुनी संस्कृति केवल एक अवधारणा मात्र नहीं है, बल्कि भारत के सामासिक समाज की आत्मा है जो विविधता में एकता के विचार का पोषण करती है। इसका तात्पर्य उस साझा सांस्कृतिक विरासत और परम्परा से है जो विभिन्न धर्मों, जातियों, समुदायों और संस्कृतियों के पारस्परिक संवाद तथा सह अस्तित्व से पैदा हुई। यह संस्कृति हमें धार्मिक सहिष्णुता सिखाती है। इस संस्कृति के चलते ही हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत, ख्याल गायन, और कत्थक सरीखी नृत्य कलाओं का विकास हुआ। उर्दू और हिंदी इस संस्कृति का नायाब उदाहरण हैं। दोनों में ही फारसी, अरबी और संस्कृत के शब्दों की भरमार है और दोनों ही भाषा, हिंदू और मुसलमान की साझा भाषा के रूप में उभरी है। इस संस्कृति पर भक्ति और सूफी आंदोलन का बड़ा असर रहा है। ये दोनों ही आंदोलन मुख्यतः प्रेम और समानता के विचारों पर आधारित थे। मैं तो कम से कम ऐसे ही माहौल में पलकर बड़ा हुआ इसलिए मेरे लिए गंगा-जमुनी संस्कृति का खासा महत्व है। शनैः शनैः इस संस्कृति का ह्रास होता चला गया। धर्म आधारित विभाजन का दंश यह देश भूल नहीं पाया है। सच यह भी कि विभाजन से बहुत पहले, अंग्रेज सत्ता के साथ आजादी के संघर्षकाल में भी हिंदू और मुसलमान भले ही गुलामी से मुक्ति पाने की आस में एक-दूसरे का साथ दे रहे थे, दोनों का एक-दूसरे के प्रति गहरा अविश्वास तब भी था, आज भी है। आज यह अविश्वास घृणा के रूप में तब्दील हो चला है। ऐसा सम्भवतः इसलिए क्योंकि राष्ट्रीयता की भावना से कहीं ऊपर हिंदुओं और मुसलमानों के लिए धर्म है। भगवती चरण वर्मा स्वयं एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, उन्होंने अपने उपन्यास ‘भूले बिसरे चित्र’ में हिंदुओं और मुसलमानों के मध्य अविश्वास की गहरी खाई को इस उपन्यास के एक पात्र गंगा प्रसाद के जरिए सामने रखा है। वे लिखते हैं कि जब खिलाफत आंदोलन (1919) चल रहा था और महात्मा गांधी इस आंदोलन के जरिए अंग्रेज सत्ता के खिलाफ हिंदू और मुसलमान के बीच एकता का प्रयास कर रहे थे तब भी हकीकत में आमजन हिंदू और मुसलमान के रूप में ही सोच रहा था। जाहिर है आजाद भारत में अविश्वास की खाई मौजूद थी जो बीते 77 बरसों के दौरान लगातार विस्तार पर अब एक महासागर का रूप ले चुकी है। 1990 के दशक में शुरू हुए दो महत्वपूर्ण आंदोलनों ने समाज से जाति तथा धर्म के आधार पर और अधिक बांटने का काम कर दिखाया। राममंदिर निर्माण और मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने की मांग ने एक तरफ धार्मिक आधार पर समाज को विभक्त करने का काम किया तो जातिगत वैमनस्य भी खुलकर सामने आ गया। वर्तमान समय में संकट ज्यादा गहरा गया है। इन तमाम विसंगतियों के बावजूद मैंने अपने बाल्यकाल और छात्र जीवन के दौरान इस प्रकार की असहिष्णुता कभी महसूस नहीं की जैसी वर्तमान में महसूस रहा हूं। एक तरफ 2014 के बाद का भारत है जहां हरेक मुसलमान को संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है तो दूसरी तरफ अम्बेडकर के नाम पर हो रही सियासत है जिसने हालात इतने खराब कर दिए हैं कि दूसरों के विचार सुनने तक को हम राजी नहीं हैं। सत्य के साथ प्रयोग करने की प्रवृत्ति गांधी के साथ ही दम तोड़ गई प्रतीत होती है। चौतरफा असत्य का बोलबाला है, असत्य का राज स्थापित हो चला है। असहिष्णुता अपने चरम पर है। इसे बीते दिनों की दो घटनाओं से समझा जा सकता है। संसद में जब केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह अम्बेडकर का नाम लेना फैशन हो चला है, कह यह स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे कि विपक्षी दल, विशेष रूप से कांग्रेस आजादी बाद से ही पिछड़ी जातियों का शोषण-दोहन करती आई और अम्बेडकर के प्रति कांग्रेस का रुख नेहरूकाल में भी नकारात्मक था, वर्तमान में भी नकारात्मक ही है। गृहमंत्री यह भी बताना चाह रहे थे कि उनका दल ही एकमात्र दलित हितैषी राजनीतिक दल है। ठीक इसी दौरान उनके दल द्वारा शासित राज्य उत्तर प्रदेश की पुलिस बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों को ‘मनुस्मृति’ पर संवाद आयोजित करने का दुस्साहस करने पर जेल भेज देती है। यह संवाद इन छात्रों ने बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर द्वारा 1927 में 26 दिसम्बर के दिन ‘मनुस्मृति दहन दिवस’ मनाने और इस पुस्तक का बहिष्कार करने की याद में आयोजित किया था। यह कैसा देश हमने बना डाला है जहां अब वैचारिक मतांतर को स्वीकारने तक को तैयार नहीं? एक तरफ सियासत के बाजार में अम्बेडकर को औजार बना इस्तेमाल कियाा जा रहा है तो दूसरी तरफ उनके विचारों पर चर्चा तक को अपराध मान कार्यवाही की जा रही है। दूसरी घटना भी जाते साल के अंतिम सप्ताह की है। उत्तर प्रदेश के कानपुर में आयोजित एक लिटरेचर फेस्टिवल में इतिहासकार अर्पणा वैदिक की पुस्तक ‘Revolutionaries on trial : Sedition, Betrayal and पर चर्चा के दौरान कुछ विवाद पैदा हो गया। यह विवाद चर्चा के सूत्रधार ईशान शर्मा द्वारा आजादी की लड़ाई में शहीद हुए क्रांतिकारियों के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालने की प्रक्रिया दौरान एक शब्द के इस्तेमाल से पैदा हुआ। ईशान सरदार भगत सिंह व अन्य क्रांतिकारियों की बाबत इस शोधपरक पुस्तक का जिक्र करते हुए इन क्रांतिकारियों के व्यक्तित्व की जटिलता के लिए हिंदी का शब्द तलाश रहे थे। लेखिका ने अपनी पुस्तक में इसे जटिलता (Complexity) कहा है। ईशान ने हिंदी में इसे ‘दोहरापन’ कहा तो वहां मौजूद श्रोताओं को इस शब्द पर आपत्ति हुई। ईशान ने शब्द वापस ले लिया और माफी भी मांग ली। अगले दिन लेकिन एक स्थानीय हिंदी दैनिक ‘अमृत विचार’ ने इसे चटकारेदार खबर बना एक बड़े विवाद का रूप दे दिया। ‘अमृत विचार’ ने दरअसल, अमृत नहीं विषवमन् किया जिसे सोशल मीडिया के ‘बुद्धिवादियों’ ने लपक लिया। फिर क्या था बगैर अर्पणा वैदिक की पुस्तक को पढ़े, उन पर सोशल मीडिया के जरिए हमले शुरू हो चले हैं। यह विवाद तो कुछ समय बाद समाप्त हो ही जाएगा क्योंकि तब तक कुछ नया सामने आ चुका होगा, हमारे समाज की असहिष्णुता लेकिन इस विवाद से समझी जा सकती है। हम कुछ ऐसा सुनने को तैयार ही नहीं जो हमारे विचारों के विपरीत हो। सच तो यह कि हमारे पास खुद के विचारों का भारी टोटा हो चला है। त्वरित प्रतिक्रिया देने की हमारी प्रवृत्ति ने पूरे समाज को हिंसक बना डाला है। इस प्रकार की प्रवृत्ति मानवीय कमजोरी का हिस्सा सैदव से रहती आई है। अब लेकिन बीते 11 बरसों से इस प्रवृत्ति को सुनियोजित तरीके से आगे बढ़ाया जा रहा है जिसका नतीजा सामने है। सार्वजनिक जीवन में लगातार गिरावट, पाखंड और झूठ का बोलबाला, घृणा और हिंसा का विस्तार इत्यादि। 2025 में, मैं समझता हूं इस प्रवृत्ति का विस्तार और ज्यादा देखने को मिलेगा। यह कहने में मुझे कतई भी गुरेज नहीं कि आजाद भारत अपनी 77 बरस की यात्रा में सुपथ के बजाय कुपथ में चल पड़ा तो केवल इसलिए क्योंकि हमारे देश में चरित्र और ईमानदारी का अभाव शुरुआती चरण से ही विद्यमान था। सोचिएगा जरूर कि क्या ऐसा भारत हमारे पूर्वजों ने चाहा था? सोचिएगा जरूर क्योंकि प्रश्न आपके और मेरे भविष्य का नहीं, आने वाले पीढ़ियों के भविष्य का, इस राष्ट्र के भविष्य का है।
अपने गले साफ करो मूत्र से
अपनी पवित्र गायों का मूत्र पियो
एक पैरहीन व्यक्ति के गोपनीय जूते में
भूल जाओ पूर्व को
यह जीवन है
गोधूलि एक गधे की तरह बेंच पर फैली है
हर जगह खूबसूरत दोपहर मरती हैं।