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मेरी बात

संसद का शीतकालीन सत्र नाना प्रकार के हंगामों की भेंट चढ़ कुछ सार्थक कार्य, संवेदनशील मुद्दों पर बहस अथवा कुछ भी रचनात्मक-सृजनात्मक किए बगैर समाप्त हो गया। इस सत्र में पक्ष और विपक्ष के सांसद आपस में संसद परिसर के भीतर हाथापाई करने तक उतर आए। संवैधानिक मान्यताओं-परम्पराओं का जमकर चीर हरण किया गया। दो बातें, वैसे तो देश की सबसे बड़ी पंचायत में नब्बे के दशक के दौरान और नई शताब्दी के पहले दो दशकों में, कई मर्तबा, कई घटनाएं, बेहद खटकने वाली, शर्मसार करने वाली घटित हुईं, इस शीतकालीन सत्र में दो बातों पर मुझे गहन आपत्ति है। पहली है भाजपा के सांसदों का राज्यसभा में आप नेता और दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को ‘चोर’ कह कर हंगमा खड़ा करना और सदन में आप सरकार द्वारा दिल्ली प्रदेश में कराए गए विकास कार्यों की चर्चा कर रहे संजय सिंह का आपा खो यह कहना कि ‘गली-गली में शौर है, नरेंद्र मोदी चोर है।’ भाजपा लम्बे अर्से से दिल्ली की सत्ता से बाहर है, कांग्रेस भी यहां बीते 10 वर्षों से अपनी खोई जमीन वापस पाने में विफल रही है और एक नई बनी पार्टी इसके लिए, इन दोनों राष्ट्रीय दलों की दिल्ली में इस अद्योगति के लिए, जिम्मेदार है। इसलिए न तो कांग्रेस और न ही भाजपा इस सच को स्वीकार कर पा रही है कि कम से कम दिल्ली में तो केजरीवाल का जादू अभी तक कायम है। इसका लेकिन यह मतलब कतई नहीं कि एक लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार और उस सरकार के मुख्यमंत्री रह चुके नेता को भाजपा सांसद चोर कह पुकारें। केजरीवाल को चोर कहना वह भी लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर भीतर, घोर निंदनीय है। ठीक इसी प्रकार आप नेता संजय सिंह का देश के प्रधानमंत्री को सदन भीतर चोर कहना घोर निंदनीय है। खासकर संजय सिंह, जिनका मैं बड़ा प्रशंसक हूं, उनके इस प्रकार के आचरण ने मुझे हतप्रभ करने का काम किया है। दूसरी घटना है डॉ. भीमराव अम्बेडकर को लेकर गृह मंत्री अमित शाह का राज्यसभा में दिया गया बयान जिसे लेकर इन दिनों विपक्षी दल केंद्र सरकार और भाजपा पर हमलावर हैं। यह विवाद भी मेरी दृष्टि से बेवजह है, निदंनीय भी है क्योंकि इसी के चलते संसद परिसर में सांसदों के मध्य धक्का-मुक्की और पुलिस शिकायत तक की नौबत आई है। चलिए पहले अमित शाह के बयान को समझते हैं। गृह मंत्री मंगलवार, 17 दिसम्बर को संविधान के 75 वर्ष पूरे होने के अवसर पर लोकसभा को सम्बोधित कर रहे थे। इस दौरान उन्होंने कहा कि ‘बीआर अम्बेडकर का नाम लेना अब एक फैशन बन गया है, अब यह एक फैशन हो गया है- ‘अम्बेडकर, अम्बेडकर, अम्बेडकर, अम्बेडकर, अम्बेडकर, अम्बेडकर इतना नाम अगर भगवान का लेते तो सात जन्मों तक स्वर्ग मिल जाता। डॉ. अम्बेडकर का सौ बार और नाम लीजिए, लेकिन मैं कहना चाहता हूं कि उनके बारे में आपकी भावनाएं क्या हैं, वो ज्यादा जरूरी हैं। मैं आपको बता दूं कि जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व वाली सरकार से असहमति के बाद बीआर अम्बेडकर को पहले मंत्रिमंडल से इस्तीफा देना पड़ा था। अम्बेडकर जी ने कई बार कहा है कि वह अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के इलाज से संतुष्ट नहीं हैं। बीआर अम्बेडकर सरकार की नीति और अनुच्छेद 370 पर उसके रूख से नाखुश थे। वह पद छोड़ना चाहते थे लेकिन उन्हें आश्वासन दिया गया था और जब आश्वासन पूरा नहीं हुआ तो उन्होंने इस्तीफा दे दिया।’

कांग्रेस और बाद में समूचा विपक्ष अमित शाह की इस टिप्पणी पर (अम्बेडकर का नाम लेना फैशन हो गया है) भाजपा पर हमलावर हो गया। फिर क्या हुआ और आगे इस पर कितनी राजनीति होगी, यह हमारे सामने है। मैं लेकिन इसे फिजूल का विवाद मानता हूं और गृह मंत्री के इस कथन से पूरी तरह सहमत हूं कि डॉ. अम्बेडकर का नाम लेना फैशन हो चला है। स्वयं अमित शाह जिस दल के नेता हैं, वह इसे फैशन मान, यूं कहिए बाध्यता मान दिन-रात अम्बेडकर का नाम जपती है। कांग्रेस, आप, समाजवादी, वामपंथी आदि सभी राजनीतिक दल और राजनेता ऐसा करते हैं क्योंकि डॉ. अम्बेडकर के नाम पर बहुसंख्यक वोट बैंक सधता है। अन्यथा यदि डॉ. अम्बेडकर के प्रति हमारे राजनीतिक दल और उनका नेतृत्व इतनी ही अगाध श्रद्धा रखने वाला होता तो 77 बरस की आजादी बाद, संविधान की 75वीं वर्षगांठ के वर्ष में, अस्पृश्यता का समाज में नामोनिशान न होता। डॉ. भीमराव अम्बेडकर निश्चित ही एक विद्वान पुरुष थे। निश्चित ही उन्होंने हमारे संविधान निर्माण में अहम् भूमिका निभाई। यह भी सत्य है, जैसा गृह मंत्री अमित शाह ने कहा, डॉ. अम्बेडकर अनुसूचित जातियों-जनजातियों के संग होते आए भेदभाव से न केवल नाखुश थे, बेहद आक्रोशित भी थे। उनका आक्रोश खुद उनके साथ हुए अत्याचार से जन्मा था। अपनी पुस्तक  ‘No Peon, No Water’ (चपरासी नहीं तो पानी नहीं) में उन्होंने इसका मार्मिक उल्लेख किया है। अम्बेडकर लेकिन भगवान नहीं थे, जो हमारे राजनेताओं ने उन्हें बना दिया है। इसलिए नहीं कि उन्हें सही में अम्बेडकर में भगवान का अक्स नजर आता है, बल्कि इसलिए क्योंकि इससे उनका राजनीतिक स्वार्थ सधता है। इसीलिए चाहे अनजाने में ही सही, भूलवश ही सही, जुबान फिसलने के कारण ही सही, कहा तो गृह मंत्री ने ठीक ही कि अम्बेडकर का नाम लेना अब फैशन हो चला है। यदि सही में अम्बेडकर के आदर्श, उनके विचार हमारे राजनीतिक दलों को मान्य होते तो बीते 77 बरसों के दौरान अनुसूचित वर्ग संग इतने अत्याचार न हुए होते, सामाजिक समरसता स्थापित हो गई होती। 1968 में तमिलनाडु में भूमि अधिकारों को लेकर दलितों का किल्वेनमानी नसंहार इसका जीता जागता प्रमाण है। किल्वेनमानी तंजावुर जनपद का एक गांव है जहां खेतीहर मजदूरों द्वारा जमीनदारों के शोषण खिलाफ आवाज उठाई गई थी। 22 दिसम्बर, 1968 को स्वर्ण जाति के जमींदारों ने यहां 44 दलित मजदूरों जिनमें, महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे, को जिंदा जला दिया था। 1996 में बिहार में भूमिहार जाति के लोगों द्वारा दलितों की हत्या, जिसे बथानी टोला नरसंहार कह पुकारा जाता है, सामंती हिंसा और जातिगत संघर्ष का एक भयावह उदाहरण है जिसमें रणवीर सेना नामक उच्च वर्ग के एक अवैध संगठन ने पिछड़ी जाति के 21 लोगों  की हत्या कर दी थी। 2006 में महाराष्ट्र में दलित महिलाओं संग अनाचार और उनकी हत्या जिसे ‘खैरलांजी कांड’ नाम दिया गया। इस भयावह सच सामने लाने के लिए काफी है कि अम्बेडकर भले ही वोट बैंक की राजनीति चलते सभी के ‘आदरणीय’ बन चुके हैं, घोर जातिवादी समाज आज भी दलितों और पिछड़ों के प्रति स्वर्ण समाज घृणा के भाव रखता है। महाराष्ट्र के भंडारा जिले में एक दलित परिवार की तीन लड़कियों को स्वर्ण जाति के लोगों ने 29 सितम्बर के दिन निर्वस्त्र गांव के चौराहे में घुमाया, उनका यौन शोषण किया और फिर पूरे परिवार की हत्या कर दी। देवभूमि उत्तराखण्ड का कफल्टा कांड भी न होता यदि अम्बेडकर के विचारों को आजादी बाद हमने आत्मसात किया होता। 9 मई, 1980 को पिथौरागढ़ जनपद के कफल्टा गांव में अनुसूचित जाति के 14 लोगों की हत्या का कारण एक दलित दुल्हे का घोड़ी पर सवार हो स्वर्ण समाज के मंदिर सामने से गुजरना था और अतीत छोड़िए एक तरफ गृह मंत्री  अमित शाह डॉ. अम्बेडकर को नेहरू सरकार में पर्याप्त सम्मान न मिलने की बात सदन में कह कांग्रेस को निशाने पर ले अपनी पार्टी को दलित हितैषी सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं तो दूसरी तरह उनके ही दल द्वारा शासित उत्तर प्रदेश में 26 दिसम्बर के दिन भगत सिंह छात्र मोर्चा नामक संगठन से जुड़े दस छात्र और तीन छात्राओं को बनारस की पुलिस इसलिए जेल भेज देती है क्योंकि बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के इन युवाओं ने 25 दिसम्बर के दिन ‘मनुस्मृति दहन दिवस’ के अवसर पर एक बैठक करने का दुस्साहस किया था। स्मरण रहे डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने ही 15 दिसम्बर, 1927 को सार्वजनिक तौर पर ‘मनुस्मृति’ को जलाकर इस पुस्तक में लिखे गए विचारों प्रति अपना आक्रोश प्रदर्शित किया था। डॉ. अम्बेडकर का कहना था कि महर्षि मनु द्वारा रचित यह पुस्तक भारतीय समाज में जातिगत भेदभाव और शोषण का सबसे बड़ा स्रोत है। यदि अम्बेडकर भाजपा को सही में प्रिय होते, यदि अम्बेडकर के विचारों प्रति भाजपा सच में आस्थावान होती, समर्पित होती तो इन 13 युवाओं को नववर्ष की शुरुआत जेल से नहीं करनी पड़ती इसलिए भले ही भूलवश ही सही, कहा तो गृहमंत्री ने कुछ गलत नहीं। सोचिए क्या ऐसा देश बनाने की खातिर हमारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने अंग्रेज हुकूमत के साथ संघर्ष किया? बलिदान दिया था? सोचिए जरूर, प्रश्न मेरा और आपका नहीं, आने वाले पीढ़ियों के भविष्य का भी है।
 
नववर्ष की समस्त अशेष शुभकामनाएं!

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