दशकों के संघर्ष बाद अंग्रेज हुकूमत की गुलामी से हम 1947 में अगस्त माह की 15 तारीख की रात 12 बजे मुक्त जब हुए थे तब राष्ट्र निर्माण को लेकर बड़ा उत्साह था। हालांकि धर्म आधारित विभाजन ने इस उत्साह को फीका करने का काम कर डाला था। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी इसी चलते दिल्ली में हुए किसी भी आयोजन का हिस्सा नहीं बने थे। वे बंगाल के नोआखली अब बांग्लादेश में भड़के सांप्रदायिक दंगों को रोकने और वहां शांति स्थापित करने में जुटे हुए थे। उन्होंने इस महान अवसर पर कोई औपचारिक संदेश देशवासियों को नहीं दिया। गांधी का मानना था कि ‘यह स्वतंत्रता तभी सार्थक होगी जब यह प्रत्येक व्यक्ति को अधिकार और गरिमा के साथ जीने का अवसर प्रदान करे।’ सरदार वल्लभ भाई पटेल ने अपने संदेश में कहा था- ‘यह हमारे लिए नया अध्याय है। हमें इस स्वतंत्रता की रक्षा करनी होगी, इसे सुदृढ़ करना होगा और इसे सच्चे अर्थो में सार्थक बनाना होगा।’ प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के ऐतिहासिक भाषण ‘नियति से साक्षात्कार’ को तो पूरे विश्व ने सुना और सराहा था। उन्होंने कहा था- ‘आज हम जो स्वतंत्रता प्राप्त कर रहे हैं, वह हमारे लिए एक नई जिम्मेदारी लेकर आई है। यह स्वतत्रंता केवल एक पल के लिए खुशी का कारण नहीं है, बल्कि यह हमारे लिए एक अवसर है कि हम गरीबी, अज्ञानता, बीमारी और असमानता के अभिशाप को समाप्त करें।’ वर्तमान में देश की दिशा और दशा तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के तत्कालीन संघ प्रमुख गुरूजी गोलवलकर ने तो स्वत्रंतता दिवस के दिन एक औपचारिक समारोह तक करना उचित नहीं समझा था। आजादी को लेकर संघ का दृष्टिकोण था कि विभाजन के कारण यह स्वतंत्रता अधूरी है। गोलवलकर मानते थे कि स्वतंत्रता का अर्थ केवल राजनीतिक आजादी नहीं बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक पुनर्निर्माण भी है। इसी विचारधारा के चलते 15 अगस्त 1947 और उसके बाद 2022 तक कभी भी अपने मुख्यालय और शाखाओं में राष्ट्रीय ध्वज नहीं फहराया था। डॉ. भीमराव अंबेडकर भी आजादी को अधूरी आजादी मानते थे। उनका कहना था कि ‘स्वतंत्रता एक साधन है, न कि उद्देश्य। इसका उद्देश्य है समता और भाई चारा। अगर हमें वास्तविक स्वतंत्रता चाहिए तो हमें जाति प्रथा और छुआछूत को जड़ से समाप्त करना होगा। केवल राजनीतिक आजादी से शोषित को न्याय नहीं मिलेगा।’ कितना सही कथन था उनका। आजादी मिली जरूर लेकिन अपने उद्देश्य को हम पाने में विफल रहे हैं।
बहरहाल गांधी की इच्छानुसार आजादी उपरांत प्रत्येक व्यक्ति को गरिमा और अधिकार के साथ जीने का अवसर प्रदान करने में हमारे कर्णधार सर्वथा विफल रहे हैं और आज, यानी विश्वगुरू बनने का स्वप्न देखने वाले काल में, कानून का राज पूरी तरह ध्वस्त होता स्पष्ट दिखाई देने लगा है। संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों का हनन् जो आजादी के मात्र 22 बरस बाद ही इंदिरा गांधी के शासनकाल में शुरू होने लगा था, आज अपने चरम् पर जा पहुंचा है। आपातकाल के काले दौर में लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रबल पक्षधर जवाहरलाल नेहरू की पुत्री इंदिरा गांधी ने संविधान के मूल स्वरूप को बिगाड़ने और आमजन से उसके अधिकार छीनने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। इस दौर में लेकिन एक बात अच्छी थी। साहित्यिक और सांस्कृतिक शक्तियां सत्ता की निरंकुशता के खिलाफ मुखर होने का साहस रखती थीं। 1974-75 में जब जयप्रकाश नारायण इंदिरा गांधी की सत्ता के खिलाफ संपूर्ण क्रांति का आह्वान कर देश भर में घूम रहे थे, उन दिनों ही 18 मार्च, 1974 को पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में एक सभा में जनकवि बाबा नार्गाजुन ने लाखों की भीड़ को अपनी एक कविता सुना सम्मोहित कर डाला था। उन्होंने मंच से दहाड़ लगाई थी कि ‘इंदु जी, इंदु जी क्या हुआ आपको? सत्ता की मस्ती में भूल गईं बाप को? आपकी चाल-ढाल देख-देख लोग हैं दंग, हुकूमती नशे का वाह-वाह कैसा चढ़ा रंग/सच-सच बताओ भी क्या हुआ आपको, यूं भला भूल गईं बाप को/छात्रों के लहू का चस्का लगा आपको, काले चिकने माल का मस्का लगा आपको/किसी ने टोका तो ठस्का लगा आपको, अंत-शंट बक रही जुनून में, शासन का नशा घुला खून में/फूल से हल्का समझ लिया हत्या के पाप को/इंदु जी, इंदु जी क्या हुआ आपको, क्या हुआ आपको…
वर्तमान समय में दूर-दूर तक कोई नागार्जुन नजर नहीं आता, नजर आता है तो केवल अघोषित आपातकाल। इसलिए स्वयं से और आप सभी से पूछ रहा हूं कि ‘ये कहां आ गए हम, यूं ही साथ-साथ चलकर?’ कानून का राज एक बार फिर पूरी तरह गायब दिखाई दे रहा है। रहिए आप मुगालते में कि विश्वगुरू बनने की घड़ी नजदीक आ गई है। यह भ्रम मात्र है। सच यह कि यह घड़ी है घोर असहिष्णुता की। अभी कुछ दिन पूर्व ही दो घटनाओं से इसे समझा जा सकता है। हालांकि घटनाएं तो इतनी हैं कि लिखते- लिखते कागज काले पड़ जाएं, दो घटनाएं तात्कालिक हैं जो भविष्य के भारत की तरफ इशारा करते हुए, हरेक को चेताती भी हैं कि अब भी यदि धर्म रूपी अफीम को चाटने से बाज नहीं आओगे तो आने वाला समय का, भविष्य का अंधकारमय होना तय है। इसी माह 16 तारीख के दिन राजस्थान के उदयपुर में एक फिल्म ‘हद-अनहद’ का प्रदर्शन उदयपुर फिल्म फेस्टिवल के आयोजकों द्वारा कराया जा रहा था। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े कुछ वीर पुरुषों ने इस प्रसारण को रोक दिया। गुरूदेव रविन्द्रनाथ टैगोर के नाम पर स्थापित मेडिकल कॉलेज के कैम्पस में यह फिल्म फेस्टिवल चल रहा था। यहां के प्रशासक संघ कार्यकर्ताओं के दबाव में आ गए और उन्होंने इस फेस्टिवल का पूरा आयोजन ही रद्द कर डाला। हद तो यह कि आयोजकों की शिकायत को जिला प्रशासन ने पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया। संघ कार्यकर्ताओं की नाराजगी का कारण इस फिल्म फेस्टिवल को आयोजकों द्वारा जी.एन. साईबाबा की स्मृति में समर्पित किया जाना था। साईबाबा संघ कार्यकर्ताओं की नजर में आतंकवादी थे। दूसरी आपत्ति इस फेस्टिवल को फिलिस्तीन में इजरायली हमलों में मारे गए निर्दोष बच्चों को समर्पित किया जाना था। संघ कार्यकर्ताओं की नजर में फिलिस्तीन भी आतंकी राष्ट्र है। मेडिकल कॉलेज प्रशासन ने आयोजकों-संघ कार्यकर्ताओं की एक बैठक आयोजित कराई जिसमें इन कार्यकर्ताओं ने आयोजकों के सामने लिखित माफी मांगने और इस कार्यक्रम में कन्हैया लाल तेली और देवराज मोची को श्रद्धांजलि देने की बात कही। तेली एक दर्जी था जिसकी उदयपुर में मुस्लिम कट्टरपंथियों ने 2022 में हत्या कर दी थी। देवराज मोची एक युवा दलित छात्र था जिसको अगस्त, 2024 में उसके सहपाठी अयान शेख ने चाकू से गोदकर मार डाला था। दोनों ही मृतक हिंदू थे और उन्हें मारने वाले मुसलमान। इन दोनों ही घटनाओं के बाद राजस्थान में साम्प्रदायिक तनाव फैल गया था। संघ कार्यकर्ता अपने साथ लिखित माफीनामा लाए थे जिसे फिल्म आयोजकों ने नहीं स्वीकारा। उदयपुर जिला प्रशासन ने स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार को धता बताते हुए आयोजाकों को कार्यक्रम करने तथा उन्हें पुलिस सुरक्षा देने से साफ इंकार कर दिया। इसी प्रकार की एक अन्य घटना उत्तराखण्ड की राजधानी देहरादून में घटित हुई। यहां के नामचीन दून स्कूल के कैम्पस में बनी एक मजार को कुछ लोगों ने स्कूल कैम्पस में अधिकृत प्रवेश कर तोड़ दिया है। स्कूल प्रशासन ने हालांकि इस बाबत कोई पुलिस शिकायत दर्ज कराना उचित नहीं समझा लेकिन इन दो घटनाओं से एक बात साफ हो उभरती है कि अब हिंदुवादी ताकतों का राज, कानून के राज पर भारी है और ऐसा केवल राजस्थान अथवा उत्तराखण्ड तक सीमित नहीं है। उत्तर प्रदेश की बुलडोजर नीति से हर जागरूक नागरिक और हर अंधभक्त भलीभांति परिचित है। हर दृष्टि से बुलडोर नीति गलत है। आम नागरिक के संविधान प्रदत्त अधिकारों का खुला उल्लंघन है। जिस तरीके से उत्तर प्रदेश में इसको इस्तेमाल में लाया गया, वह कानून का नहीं बल्कि गुंडा राज है। उच्चतम न्यायालय तक इसे स्वीकार चुका है। बुलडोजर के दुरुपयोग को प्रतिबंधित करते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि केवल आरोपी या दोषी ठहराए जाने के आधार पर किसी व्यक्ति का घर तोड़ना गलत और असंवैधानिक है और बिना सुनवाई किसी को सजा देना लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ है।
जरा सोचिए 1947 से चलते-चलते हम, हमारा राष्ट्र, हमारा लोकतंत्र कहां जा पहुंचा है? हमने, हमारे राजनेताओं ने, हमारी राजनीति ने हर उस मूल्य को कहीं गहरे दफन कर दिया है जिनको लेकर आजाद भारत की यात्रा शुरू हुई थी। दुष्यंत कुमार को याद कीजिए। 1975 में ही वह स्वर्ग सिधार गए थे। उनको लेकिन आजादी के मात्र 25 बरस बाद ही भविष्य का भारत समझ आने लगा था। तभी उन्होंने लिखा था-
‘तुम्हारे पांव के नीचे कोई जमीन नहीं
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यकीन नहीं
मैं बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूं
मैं इन नजारों का अंधा तमाशबीन नहीं…
बहुत मशहूर हैं आएं जरूर आप यहां
ये मुल्क देखने लाइक तो है, हसीन नहीं।