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Editorial

कमजोर होता बिटिश साम्राज्य

पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-26



लीग के ‘लाहौर प्रस्ताव’ (पाकिस्तान संकल्प) को भले ही कांग्रेस ने एक सिरे से खारिज कर दिया था, कई गैर मुस्लिम संगठनों ने इस प्रस्ताव को अपना समर्थन दे लीग की ताकत और जिन्ना के कद में इजाफा करने का काम किया। ऐसे संगठनों में डॉ. भीमराव अंबेडकर की ‘इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी’ भी शामिल थी। अंबेडकर ने लीग के लाहौर प्रस्ताव पर बकायदा एक चार सौ पन्नों वाली प्रस्ताव लिख डाली। अपनी इस पुस्तक ‘पाकिस्तान : दि पार्टिशन ऑफ इंडिया’ (Pakistan: The Partition of India; Thought on Pakistan)  जो दिसंबर, 1940 में प्रकाशित हुई थी, अंबेडकर ने हिंदुओं से एक तरह का आह्नान किया कि उन्हें मुसलमानों को उनका अपना देश बनाने देना चाहिए। इस पुस्तक की प्रस्तावना में अंबेडकर लिखते हैं- ‘Again the Muslims can not be deprived of the benefit of the principle of selfdetermination. The Hindu Nationalists, who rely on self-detemination and ask how British can refuse India what the consience of the world has conceded to the smallest european nations, cannot in the same breath ask the British to deny it to other minorities. The Hindu Nationalist, who hopes that the Britain will coerce the Muslims in to abandoning Pakistan] forgets that the right of Nationalism to freedom from an aggressive foreign imperialism and the rignt of a minority to freedom from an aggressive majority’s nationalism are not two different thing; nor does the former stand on a inore sacred footing than the later. They are merely two aspects of the struggle for freedom and as such equal in their moral import’  (मुसलमानों को आत्मनिर्णय के सिद्धांत से वंचित नहीं किया जा सकता है। हिंदू राष्ट्रवादी जब आत्मनिर्णय की बात करते हुए ब्रिटेन से कहते हैं कि वह उन्हें इस अधिकार से कैसे वंचित कर सकता है जब विश्वभर में यूरोप के छोटे-छोटे देशों को यह अधिकार दिए जाने की मांग जोर पकड़ रही है। तब वे ब्रिटेन से कैसे यह अपेक्षा रख सकते हैं कि भारत के अल्पसंख्यकों को यह अधिकार न दिया जाए। जो हिंदू राष्ट्रवादी ब्रिटेन से यह उम्मीद लगा रहे हैं कि वह मुसलमानों को पाकिस्तान की मांग करने से रोकेगा, वे भूल रहे हैं कि एक आक्रमक विदेशी सत्ता से स्वतंत्रता के लिए राष्ट्रवाद का अधिकार और एक आक्रमक बहुसंख्यक से अल्पसंख्यकों की स्वतंत्रता का अधिकार में ज्यादा फर्क नहीं है। वे स्वतंत्रता के लिए चल रहे संघर्ष के दो ऐसे पहलू हैं जिनकी नैतिक महत्व एक बराबर है।)

द्वितीय विश्व युद्ध में जापान की निरंतर बढ़त अंग्रेज हुकूमत के लिए बड़ी परेशानी का सबब बनती जा रही थी। 15, फरवरी, 1942 के दिन सिंगापुर पर जापान का कब्जा हो गया। सिंगापुर में लगभग साठ हजार भारतीय ब्रिटिश सैनिकों ने बगैर युद्ध किए ही जापानी सेना के समक्ष समर्पण कर डाला था। इस घटनाक्रम के बाद ब्रिटिश सरकार ने भारत को ‘डोमेनियन स्टेट’ का दर्जा देने की तैयारी शुरू कर दी। जापानी सेनाएं लगातार अपनी जीत दर्ज कराती हुए बर्मा (अब म्यांमार) तक आ पहुंची थीं। चौतरफा ऐसा माहौल बनने लगा कि जल्द ही उसका हमला भारत पर होगा। ऐसे अफरा-तफरी के माहौल में ब्रिटेन ने भारतीयों को राहत पहुंचाने और उनका विश्वास जीतने की नीयत से अपने युद्ध मंत्रिमंडल (War Cabinet) के एक सदस्य सर स्टैनफोर्ड क्रिप्स को भारतीय नेताओं संग बातचीत के लिए भारत भेजा। सर स्टैनफोर्ड क्रिप्स ने कांग्रेस, मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा समेत हरेक महत्वपूर्ण भारतीय संगठन के नेताओं संग बातचीत कर एक सर्वसम्मत निर्णय तक पहुंचने का भरकस प्रयास किया। क्रिप्स का प्रस्ताव था कि भारतीय आंदोलनकारी विश्व युद्ध समाप्त होने तक ब्रिटिश सरकार को अपना पूरा समर्थन दें जिसकी एवज में युद्ध समाप्ति के तुरंत बाद भारत को ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत एक स्वतंत्र अधिराज्य (Dominion State) का दर्जा तत्काल दे दिया जाएगा। द्वितीय विश्व युद्ध के चलते बेहद कमजोर हो चले ब्रिटिश साम्राज्य से कांग्रेस ने वक्त की नजाकत को भांपते हुए मांग रखी कि डोमेनियन स्टेट के बजाए वह पूरी स्वतंत्रता चाहती है इसलिए यदि वह इस विश्व युद्ध में कांग्रेस से अपने लिए समर्थन चाहता है तो बदले में उसे युद्ध समाप्ति के तत्काल बाद भारत को आजाद करने पर सहमति देनी होगी। दोनों पक्षों में इस मुद्दे पर सहमति नहीं बन पाई और यह एक सदस्यीय मिशन कोई सार्थक निष्कर्ष पर पहुंचे बगैर वापस ब्रिटेन लौट गया। इस मिशन को भारत भेजे पर पहुंचे जाने के पीछे एक महत्वपूर्ण कारण अमेरिकी सरकार का ब्रिटेन सरकार पर भारी दबाव होना था। ब्रिटेन में 1935 में हुए चुनाव बाद कंसरवेटिव पार्टी की सरकार का गठन हुआ था। स्टेनले बाल्डविन इस सरकार के प्रधानमंत्री थे जिनके स्थान पर 1937 में नेवली चैबरलीन को प्रधानमंत्री बनाया गया था। चैबरलीन ने ही 3 सितंबर, 1939 को जर्मनी द्वारा पोलैंड पर आक्रमक किए जाने बाद पौलेंड के समर्थन में जर्मनी के खिलाफ युद्ध की घोषणा की थी। 1940 के मध्य तक चैबरलीन बेहद अलोकप्रिय हो चले थे। जर्मनी द्वारा नार्वे पर हमला किए जाने बाद लेबर पार्टी ने ब्रिटिश संसद में चैबरलीन सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पेश कर दिया। हालांकि अविश्वास प्रस्ताव को जीतने में चैबरलीन सफल रहे लेकिन उनकी राजनीतिक स्थिति बेहद कमजोर हो गई। 10 मई, 1940 को चैबरलीन के स्थान पर उनकी ही पार्टी के नेता विन्सेंट चर्चिल को प्रधानमंत्री चुन लिया गया जिन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के चलते विपक्षी दल लेबर पार्टी संग मिलकर एक राष्ट्रीय सरकार बनाए जाने का फैसला लिया। चर्चिल की सरकार भारत के मुद्दे पर एक राय नहीं रखती थी। लेबर पार्टी का झुकाव भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की मुख्य ताकतों को हर कीमत पर शांत रखने पर था जिसके लिए वो तत्काल प्रभाव से भारत को ‘डोमेनियन स्टेट’ का दर्जा दिए जाने की पक्षधर थी। चर्चिल लेकिन किसी भी कीमत पर इसके लिए तैयार नहीं थे। इतिहासकारों की नजर में चर्चिल घोर नस्लवादी नेता रहे हैं। 1930 में जब ब्रिटिश सरकार ने भारत को ‘डोमेनियन स्टेट’ दिए जाने की संभावना पर विचार करना शुरू ही किया तब चर्चिल इस प्रस्ताव के खिलाफ खासे मुखर रहे थे। 1935 आते-आते चर्चिल के भारत संबंधी विचारों में भारी परिवर्तन देखने को मिलता है। भारतीय राष्ट्रवादी ताकतों के प्रति सहानुभूति प्रकट करते हुए चर्चिल ने कहा ‘I am genuinly symapathetic towards India. I have got real fears about the future. India, I feel is a burden on us. We have got to maintain an army, and for the aske of India we have to maintain Singapore. If India could look after herself we would be delighted… But you have the thing now; make it a success and if you do I will advocate your getting much more (मैं भारत के प्रति ईमानदार सहानुभूति रखता हूं। मुझे उसके भविष्य को लेकर सच्ची चिंता है। भारत, मेरी दृष्टि में ब्रिटेन पर एक बड़े भार समान है। उसके लिए हमें एक विशाल सेना रखनी पड़ती है और केवल उसके लिए ही हमें सिंगापुर को भी संभाले रखना पड़ता है। यदि भारत अपनी देखभाल स्वयं कर सकता है तो यह हमारे लिए सबसे ज्यादा खुशी की बात होगी  . . . अब आपके पास मौका है जिसे आप सफल बनाएं। यदि भारत ऐसा कर पाया तो मैं उसे उसकी उम्मीद से ज्यादा दिए जाने की वकालत करूंगा।) लेकिन भारत के संबंध में उनके विचार एक बार फिर से बदल गए। चर्चिल की कैबिनेट में भारत मामलों के मंत्री एमरी अपनी डायरी में लिखते हैं कि कांग्रेस द्वारा युद्धकाल में ब्रिटिश सत्ता की मदद से इंकार करने पर चर्चिल का गुस्सा फूट पड़ा और उन्होंने भारतीयों से घृणा करने और उन्हें राक्षसी धर्म मानने वाले राक्षक (Hated Indians and consider them a beastly people with a beastly religion) कह डाला था। चर्चिल मानते थे कि गैर श्वेत भारतीय खुद अपनी शासन व्यवस्था लायक नहीं हैं किंतु अमेरिकी दबाव के समक्ष उनको झुकना पड़ा और स्टैनफोर्ड क्रिप्स को भारतीय नेताओं संग उन्हें स्वतंत्रता दिए जाने की संभावनाओं पर बातचीत के लिए भेजना पड़ा। यहां यह गौरतलब है कि वर्तमान में चीन संग बेहद तनावपूर्ण संबंधों वाला अमेरिका द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापान की बढ़ती सैन्य ताकत से चीन को सुरक्षित रखने के लिए हरसंभव प्रयास कर रहा था। जापानी सेनाओं द्वारा चीन के तटीय इलाकों को अपने कब्जे में लेने के बाद तब अमेरिका ने इस युद्ध में भारत के महत्व को समझते हुए चर्चिल सरकार पर दबाव बनाना शुरू किया कि वह ऐसे प्रयास करे जिसमें भारत इस युद्ध में पूरी ताकत और इच्छा के साथ ‘एलीज पावर’ के साथ खड़ा हो सके। बहुत से इतिहासकारों का मानना है कि चर्चिल किसी भी सूरत में भारत को स्वतंत्रता दिए जाने के पक्ष में नहीं थे, लेकिन अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति फ्रेकलीन रूजवेल्ट को भ्रमित करने के लिए उन्होंने क्रिप्स को भारत भेजने की योजना बनाई। स्टेन्से क्रिप्स की भारतीय नेताओं, विशेषकर कांग्रेस संग वार्ता की असफलता के पीछे एक बड़ा कारण क्रिप्स को चर्चिल कैबिनेट और तत्कालीन वायसराय लिनलिथगो से अपेक्षित सहयोग नहीं मिलना था। इस मिशन के असफल होने के बाद जहां कांग्रेस पूर्ण स्वतंत्रता की मांग को लेकर आक्रामक होने लगी, मुस्लिम लीग पर ब्रिटिश सरकार का भरोसा और उनके संबंध प्रगाढ़ होते चले गए। ‘बांटो और राज करो’ की नीति एक बार फिर से आजमाई जाने लगी। ब्रिटिश मामलों के मंत्री एमरी ने अप्रैल, 1942 में वायसराय लिनलिथगों को जिन्ना और अंबेडकर का सहयोग लेने का सुझाव दिया। एमरी का मानना था कि वायसराय अपनी सभा में इन दोनों नेताओं को ज्यादा सीटें दे सकते हैं ताकि इन नेताओं का ब्रिटिश हुकूमत को समर्थन मिलता रहे। एमरी का यह भी मानना था कि पाकिस्तान के नाम पर लीग से समर्थन मिलते रहना तय है। कांग्रेस भीतर इस दौरान युद्धकाल में ब्रिटेन को मदद न किए जाने के सवाल पर भारी अंतर्विरोध उभरने लगे थे। दक्षिण भारत के बड़े नेता चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने तो सीधे तौर पर गांधी की सत्ता को चुनौती देते हुए ब्रिटेन के साथ सहयोग करने की बात कह डाली। मद्रास प्रांत के कांग्रेस विधायकों की एक बैठक में इस विषय पर दो प्रस्ताव तक पारित कर दिए गए। पहले प्रस्ताव में युद्धकाल में ब्रिटेन का साथ देने की बात कही गई तो दूसरे प्रस्ताव में मुस्लिम लीग की अलग देश बनाए जाने के संकल्प का समर्थन कर दिया गया। यह गांधी की सत्ता को खुली चुनौती समान था। अप्रैल, 1942 में इन प्रस्तावों के चलते राजगोपालाचारी को कांग्रेस वर्किंग कमेटी से इस्तीफा देना पड़ा। कांग्रेस वर्किंग कमेटी की अप्रैल, 1942 में हुई बैठक में गांधी द्वारा अपनी शिष्या मीराबेन के हाथों भेजे गए एक प्रस्ताव पर विस्तृत चर्चा हुई।
 क्रमशः

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