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Editorial

संविधान सम्मत राष्ट्र न बन सके हम

मेरी बात
छब्बीस नवंबर 1949 को लागू किए गए भारतीय
संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है कि ‘हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व, सम्पन्न,
समाजवादी, पंथ निरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को :
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय,
विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और
उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और
अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए,
तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और
राष्ट्र की एकता और अखण्डता,
सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए
दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर 1949 ई को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।’
क्या वाकई हम यानी भारत के लोग ऐसा कर पाए? क्या हमने सही अर्थों में इस प्रस्तावना को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित किया है? मेरी समझ से हम ऐसा करने में कामयाब नहीं रहे। फिर चाहे बात सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की हो या फिर विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता का मसला हो अथवा अवसर की समानता सुनिश्चित करने वाली व्यवस्था बनाने की बात हो, बीते पिचहत्तर वर्षों में इनमें से अधिकांश को हासिल कर पाने में हम, भारत के लोग, विफल ही नजर आते हैं। आजादी के बाद ही यदि हम सही अर्थों में पंथ निरपेक्ष बनना चाहते तो तुष्टिकरण की राजनीति से परहेज करते। कांग्रेस इन पिचहत्तर वर्षों के दौरान सबसे अधिक समय तक केंद्र की सत्ता पर काबिज रही। उसने हमेशा ही अल्पसंख्यक समुदाय को वोट बैंक की दृष्टि से देखा और उसी अनुसार आचरण किया। राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्वकाल में शाहबानो प्रकरण कांग्रेस की इस तुष्टिकरण नीति का ज्वलंत उदाहरण है। तब उच्चतम न्यायालय के एक अति महत्वपूर्ण और मुस्लिम महिलाओं के हित में दिए गए फैसले को संसद में कानून बना बदलने का काम किया गया था। जब कांग्रेस भीतर मौजूद दक्षिणपंथी विचारों के नेताओं ने राजीव गांधी को समझाया कि ऐसा करने से हिंदू मतदाता वर्ग नाराज हो चला है, राजीव ने दूसरी बड़ी गलती करते हुए अयोध्या स्थित बाबरी मस्जिद भीतर बने राम मंदिर के ताले खुलवाने की राह प्रशस्त कर दी। इसके बाद धार्मिक ध्रुवीकरण की बयार बही जिसने सामाजिक समरसता को तार-तार करने, विभिन्न धर्मावलंबियों मध्य वैमन्स्य को बढ़ाने और संविधान प्रदत्त पंथ निरपेक्षता के आदर्श को धूल-धूसरित करने का काम कर दिखाया है। आर्थिक और सामाजिक न्याय की भावना को भी शत-प्रतिशत लागू कर पाने में हम पूरी तरह विफल राष्ट्र हैं। हालात इतने विषम हैं कि देश की सारी दौलत चंद हाथों में सिमट कर रह गई है।
ऑक्सफैम द्वारा 2022 में जारी एक रिपोर्ट अनुसार भारत की 40.5 प्रतिशत संपत्ति 1 प्रतिशत के पास है और गरीबी का आलम यह है कि आमजन का एक बड़ा हिस्सा दो वक्त की रोटी नहीं जुगाड़ कर पाता है। इस रिपोर्ट के अनुसार अमीरों की बनिस्पत गरीबों पर टैक्स की मार कहीं ज्यादा है। जीएसटी का 69 प्रतिशत उस जनता से वसूला जाता है जो बमुश्किल अपना जीवन-यापन कर पा रही है। अमीरों का जीएसटी में मात्र 4 प्रतिशत की भागीदारी है। ऑक्सफैम इंडिया के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अमिताभ बहर के अनुसार-  ‘India is unfortunately on a fast track to becoming a country only for the rich. The country’s marginalised – Dalits, Adivasis, Muslims, Women and informal sector workers are continuing to suffer in a system which ensures the survival of the richest.’  (दुर्भाग्य से भारत केवल अमीरों का देश बनता जा रहा है। हाशिए में रह रहे भारतवासियों, जिनमें दलित, आदिवासी, मुस्लिम, महिलाएं और अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिक शामिल हैं, ऐसी शासन व्यवस्था में रह लगातार उत्पीड़ित हो रहे हैं जो केवल अमीरों का अस्तित्व सुनिश्चित करती है।) क्या संविधान की प्रस्तावना में जिस आर्थिक और सामाजिक न्याय की बात कही गई थी, वह ऐसे भारत की कल्पना थी? इस प्रस्तावना में उपासना की स्वतंत्रता पर जोर दिया गया है। अब इस पर भी जरा चिंतन कर लिया जाए। हम, भारत के लोग, एक पंथ निरपेक्ष राज्य के नागरिक हैं, ऐसा हमारा संविधान कहता है। इसका सीधा अर्थ यह है कि राज्य द्वारा किसी भी धर्म के प्रति कोई विशेष रियायत या फिर किसी अन्य को किसी प्रकार की पाबंदी नहीं लगाई जाएगी। ऐसा लेकिन होता नजर नहीं आ रहा है।
1990 के बाद से लगातार यह प्रयास तेज होता गया कि यह राष्ट्र हिंदुओं का है। अल्पसंख्यक भले ही इसके नागरिक हैं और संविधान की नजरों में उनका दर्जा बहुसंख्यक के बराबर का है, हकीकत में उसे लगातार एहसास दिलाया जाता रहा है कि वह दोयम दर्जे का नागरिक है। उदाहरण एक नहीं सैकड़ों हैं जिनकी बिना पर मैं अपने कथन की पुष्टि कर सकता हूं। अतीत के पृष्ठों को न खंगालते हुए आज की बात करूं तो इन दिनों चल रही कांवड़ यात्रा का उदाहरण हमारे सामने है। उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड में पूरा सरकारी अमला इन दिनों कांवड़ यात्रियों की ‘सेवा’ में लगा दिया गया है। सरकारी धन का इससे बड़ा दुरुपयोग और पंथ निरपेक्षता का इससे अधिक विचलन और भला क्या हो सकता है कि इन कांवड़ यात्रियों पर हेलीकॉप्टरों के जरिए पुष्प वर्षा कराई जा रही है। इतना ही मानो काफी नहीं कि उत्तर प्रदेश सरकार ने कांवड़ मार्ग पर मांस की बिक्री को इस यात्राकाल के दौरान पूरी तरह प्रतिबंधित करने का आदेश दे उन सैकड़ों मांस व्यापारियों के समक्ष आजीविका का संकट खड़ा कर दिया है जो कांवड़ यात्रियों के मार्ग पर स्थित हैं।
यहां पर एक प्रश्न यह भी उठता है कि मात्र सावन में मांस की बिक्री पर प्रतिबंध लगाने का क्या औचित्य है और कैसे इससे किसी की भी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंच सकती है? भारतीय राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार 75 प्रतिशत भारतीय शाकाहारी नहीं हैं। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार मात्र 39 प्रतिशत हिंदू शाकाहारी हैं। इसका सीधा अर्थ यह है कि हिंदू धर्म को मानने वालों की भावना धार्मिक आयोजनों के समय में ही मांस खाए जाने को लेकर आहत होती है। यदि ऐसा है तो भी भला अन्य धर्म के लोगों को मांस खाने अथवा उसका व्यापार करने से एक पंथ निरपेक्ष राज्य में कैसे रोका जा सकता है? प्रश्न यह भी उठता है कि क्या अन्य धर्मों के आयोजन दौरान भी पंथ निरपेक्ष राज्य की सरकारें उनकी धार्मिक भावनाओं का सम्मान करते हुए कोई विशेष प्रावधान करती हैं जिनसे बहुसंख्यक को परेशानी का सामना करना पड़ता हो? मेरी जानकारी अनुसार ऐसा नहीं है। उल्टा सावन माह में मांस की बिक्री पर रोक का आदेश देने वाली उत्तर प्रदेश सरकार के मुखिया योगी आदित्यनाथ ने रमजान के समय में मुसलमानों द्वारा यातायात बाधित न किए जाने की व्यवस्था सुनिश्चित करने के आदेश जारी किए थे। उन्होंने ऐसा कोई आदेश जारी नहीं किया कि रमजान महीने के दौरान शराब पर और सुअर के मांस पर अल्पसंख्यकों की धार्मिक मान्यता के दृष्टिगत प्रतिबंध लगा दिया जाए। ऐसे दोहरे मापदंड क्यों? शायद इसलिए कि धीरे-धीरे बहुसंख्यक, धर्म निरपेक्ष बहुसंख्यक भी मानने लगा है कि इस राष्ट्र पर उसका अधिकार अल्पसंख्यकों की बनिस्पत कहीं अधिक है। ऐसी भावना बेहद खतरनाक होने के साथ-साथ संविधान की प्रस्तावना के अंतिम भाग में कहे कथन कि ‘राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए’ पर सीधी चोट करती है। धर्म के नाम पर भेदभाव, वह भी राज्य के द्वारा, आर्थिक असमानता का दिनों-दिन गहराना और सामाजिक न्याय का लक्ष्य हासिल न कर पाने चलते ‘राष्ट्र की एकता और अखंडता’ पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता स्पष्ट नजर आ रहा है। हालात बेहद खराब हैं। उम्मीद की किरण, ऐसी किरण जो इस राष्ट्र को रसातल में जाने से रोक सके, मुझे नजर नहीं आती। भले ही हम विश्व गुरु बनने का लाख दावा करें, भले ही हम खुद को लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होने का लाख दावा करें, हकीकत में हम धीरे-धीरे पंथ निरपेक्षता, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय के सिद्धांत से और संविधान की प्रस्तावना में वर्णित हर उस महान उद्देश्य से दूर होते जा रहे हैं जिसकी कल्पना संविधान निर्माताओं ने आने वाली पीढ़ी से की थी। फिर भी उम्मीद को हमेशा जिलाए रखना चाहिए इसलिए चलते-चलते साहिर की नज़्म आप सबकी नज़र करता हूं-
वो सुब्ह कभी तो आएगी इन काली सदियों के सर से रात का आंचल ढलेगा/जब दुख के बादल पिघलेंगे जब सुख का सागर झलकेगा/जब अम्बर झूम के नाचेगा जब धरती नग़में गाएंगी
वह सुबह कभी तो आएगी . . .
बीतेंगे कभी तो दिन आखि़र ये भूख के और बेकारी के/टूटेंगे कभी तो बुत आखि़र दौलत की इज़ारादारी के/जब एक अनोखी दुनिया की बुनियाद उठाई जाएगी
वह सुब्ह कभी तो आएगी।

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