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Editorial

हम सभी कायर और क्रूर

समाजवादी चिंतक डाॅ. राममनोहर लोहिया ने साठ के दशक में नारा दिया था ‘संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ’। संसोपा से तात्पर्य उनके राजनीतिक दल संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से था। आज यदि लोहिया जीवित होते तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भारी भरकम मंत्रिमंडल में पिछड़ों का प्रतिनिधित्व देख प्रसन्न होते? या फिर गहरी निराशा उन्हें घेर लेती? मुझे शत- प्रतिशत यकीं है वे गहरे अवसाद में डूब जाते क्योंकि वे पिछड़ों को मजबूत करने, उन्हें समाज और राष्ट्र की मुख्यधारा में जोड़ने के लिए सबसे बड़ी जरूरत जातिविहीन समाज के निर्माण को मानते थे। उन्होंने कहा था-‘एक व्यापक भ्रम हमें मिटाना होगा। अपनी कमजोरियों की बात करते हुए हमेशा हमारा ध्यान फूट और दंगों पर केंद्रित रहता है। हमेशा जयचंद और मीर जाफर को ही हमारे देश का खलनायक करार दिया जाता है। ऐसे लोग हर युग में हर जगह रहे हैं। हर स्कूली बच्चे को यह मालूम होना चाहिए कि राजाओं की फूट नहीं, बल्कि लोगों की उदासीनता के कारण हमलावरों को कामयाबी मिली। इस उदासीनता का सबसे बड़ा कारण जाति है। जाति से उदासीनता आती है और उदासीनता से हार।’ इसलिए भले ही मोदी मंत्रिमंडल में सबसे ज्यादा प्रतिनिधित्व पिछड़ों का है, इससे पिछड़ी जातियां मजबूत हो राष्ट्र और समाज की मुख्यधारा का हिस्सा बनने नहीं जा रहीं, इससे केवल और केवल समाज को ज्यादा बांटने का लक्ष्य राजनेताओं का सधेगा, उनकी वोट बैंक पाॅलिटिक्स इससे फलेगी-फूलेगी। डाॅ. लोहिया को ऐसे भविष्य का आभास था इसलिए उन्होंने दर्शकों पहले ही इसकी भविष्यवाणी कर दी थी। इस भविष्यवाणी पर बात करने से पहले जरा मोदी मंत्रिमंडल पर नजर डालते हैं।

 

नरेंद्र भाई दामोदर दास मोदी जब सत्ता में, केंद्र की सत्ता में काबिज हुए थे तब उन्होंने कहा था  ‘I believe government has no business to do business. The focus should be minimum government but maximum government’ उन्होंने 26 मई, 2014 को प्रधानमंत्री पद की शपथ ली और 31 मई, 2014 को अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा विभिन्न समस्याओं के निदान के लिए बनाए मंत्रियों के 82 समूहों (ग्रुप आॅफ मिनिस्टर्स) को भंग कर डाला। तब मोदी मैजिक से अभिभूत मीडिया ने नए पीएम को ‘मिनिमन गर्वमेंट, मेक्सिमम गर्वनेन्स’ के लिए सराहा था। प्रधानमंत्री की सराहना गैर राजनीतिक व्यक्तियों को मंत्री बनाए जाने के लिए भी की गई। कहा गया मोदी जी का विषय विशेषज्ञों को मंत्रिमंडल में लेने का यह कदम उनकी दूरगामी सोच का परिचायक है। प्रधानमंत्री ने पूर्व विदेश सचिव को अपना विदेश मंत्री, पूर्व गृह सचिव को ऊर्जा मंत्री तो भारतीय विदेश सेवा से सेवानिवृत पूर्व सचिव हरदीप पुरी को शहरी विकास एवं नागरिक उड्ययन जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय बना एक संदेश दिया कि उनका फोकस प्रोफेशनल्र्स को आगे कर अपने ‘दूरदर्शी’ विजन को साकार करना है। 2019 के बाद लेकिन मोदी जी का जादू तेजी से घटने लगा। कोविड-19 महामारी के दौरान केंद्र सरकार और समस्त राज्यों की राज्य सरकारों का लचर प्रदर्शन देश की बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था का काला सच सामने लेकर आया है। बेरोजगारी अपने चरम पर है तो अर्थव्यवस्था अपने न्यूनतम पर। महंगाई ने तो सारे रिकाॅर्ड ध्वस्त कर दिए हैं। पिछले सात सालों का निष्पक्ष आकलन जो कोई भी करेगा, उसके सामने मोदी सरकार की सफलता के नाम पर बड़ा शून्य आ खड़ा होगा। मोदी प्रशंसक, धर्म के नाम पर धृतराष्ट्रों की भारी-भरकम फौज भले ही इस सबको समझ नहीं पा रही हो, प्रधानमंत्री इस संकट को बखूबी समझ चुके हैं। यही कारण है उन्होंने अपने मंत्रिमंडल का विस्तार करते समय जाति का कार्ड खेला है। नव विस्तारित मंत्रिमंडल पर जरा गौर कीजिए तो सारा ‘खेला’ समझ में आ जाएगा। मीडिया भी, विशेषकर मीडिया का वह वर्ग जिसे हम ‘गोदी-चारणी’ मीडिया कह पुकारते हैं, इस ‘खेला’ में शामिल है। जबरदस्त प्रचार किया जा रहा है कि नई मंत्री परिषद में 53 मंत्री दलित एवं पिछड़ा वर्ग से हैं। 77 सदस्यीय मंत्री परिषद में से 69 प्रतिशत का इस वर्ग से होने को एक क्रांतिकारी कदम बताया जाना स्पष्ट संकेत है कि सरकार बहादुर की सफलता का यह नया पैमाना वोट पाने की रणनीति मात्र है। ‘न्यूनतम सरकार अधिकत शासन’ गया अब गहरी खाई में। योग्यता, प्रोफेशनेलिज्म गया तेल लेने, अब जातिवाद के सहारे मंत्रिमंडल देश को दिशा देगा। हम 21वीं सदी में भी अति पिछड़ी सोच वाला राष्ट्र बन कर रह गए हैं। अगले बरस हमारा मुल्क 75 बरस का हो जाएगा। विश्व गुरु बनने का सपना हमें दिखाया गया, कई ट्रिलियन डाॅलर की अर्थव्यवस्था बनने का सपना हमें दिखाया गया, लेकिन इन सपनों को साकार करने का रास्ता पहले धर्म और अब जाति के कंधों पर डाल दिया गया है। भाजपा, संघ और इन सबसे कहीं अधिक स्वयं प्रधानमंत्री मोदी समझ चुके हैं कि धर्म रूपी अफीम का अब असर कमजोर होने लगा है। इसलिए अबकी बार ‘जाति-जाति’ का ‘खेला’ ही सत्ता में बनाए रखने के लिए खेलना होगा। इस खेला का सेमिफाइनल उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव होंगे। भाजपा की रणनीति इस बार पिछड़ों और दलितों को रिझाने की है ताकि मायावती और अखिलेश के कोर वोट बैंक में डाका डाला जा सके। सवर्ण जातियों को थामे रखने के लिए अल्पसंख्यक के बहुसंख्यक होने का डर उभारा जाएगा। शुरुआत नई जनसंख्या नीति से हो ही चुकी है। बचा काम श्मशान बनाम कब्रिस्तान सरीखे मुद्दे कर ही देंगे। इसलिए मैं शत-प्रतिशत विश्वास के साथ कह रहा हूं कि केंद्रीय मंत्री परिषद में 69 प्रतिशत पिछड़ों और दलितों का प्रतिनिधित्व कहीं से भी लोहिया सरीखे विचारों, लोहिया के सपनों का साकार होना नहीं है और न ही ‘पिछड़े पावें सौ में साठ’ की परिकल्पना इससे मूर्त रूप लेने जा रही है। लोहिया ने इसको भली भांति समझ कर ही कहा था- ‘लोग लासा फेंकते हैं। जगजीवन राम में लासा फेंको, बाल्मीकि जी को लासा फेंको, सब हरिजन लोग उसमें फंस जायेंगे। जब तक यह लासेबाजी और वोट की ठेकेदारी खत्म नहीं होगी तब तक इस प्रश्न पर सोच विचार नहीं हो सकता।’

लोहिया के कथन को पूरी तरह चरितार्थ करता प्रधानमंत्री मोदी का मंत्रिमंडल पिछड़े वर्ग को सशक्त करने के उद्देश्य से उठाया गया क्राांतिकारी कदम न होकर वोट बैंक की राजनीति मात्र है। इससे पहले से ही नाना प्रकार के धर्मों और नीतियों में विभक्त समाज में अविश्वास की खाई और असहिष्णुता का विस्तार होगा। पिछले सात बरसों के दौरान केंद्र सरकार की गलत नीतियों, विफल नीतियों और असफलताओं पर पर्दा डालने का यह प्रयास 2022 के विधानसभा चुनावों को किस हद तक प्रभावित करेगा यह भविष्य के गर्भ में छुपा है। देश का, समाज का चरित्र देखते हुए यह कुछ न कुछ असर तो अवश्य डालेगा। भाजपा के पास इसके सिवा कोई और मजबूत हथियार अब बाकी बचा नहीं है। राष्ट्रवाद शायद एक और बार काम कर जाए शाय।
राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर की महाभारत के पात्र कर्ण पर आधारित कविता ‘रश्मिरथी’ में एक जगह कर्ण कहते हैं-
‘पूछो मेरी जाति, शक्ति हो तो, मेरे भुजबल से,रवि समान दीपित ललाट से, और कवच कुण्डल से,पढ़ो उसे जो झलक रहा है मुझमें तेज प्रकाश,मेरे रोम-रोम में अंकित है मेरा इतिहास।

मूल जानना बड़ा कठिन है, नदियों का, वीरों का,

धनुष छोड़कर और गोत्र क्या होता है रणधीरों का?

पाते हैं सम्मान तपोबल से भूतल पर शूर,

जाति-जाति का शोर मचाते, केवल कायर और क्रूर।

त्रासदी, कितनी बड़ी त्रासदी कि हम महाभारत काल से निकल 21वीं सदी तक में अभी तक इसी शोर की जकड़ में ग्रस्त समाज होने के लिए अभिशप्त हंै। हम सभी कायर और क्रूर हैं।

                                                            इसे भी पड़े  :  इन जलावतनियों की आवाज सुनो! 

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