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Editorial

अडानी-अंबानी के हवाले वतन-1

हमारे मुल्क में करोड़ों की तादाद ऐसे नागरिकों की है जो पोस्ट ग्रेजुएट हैं। कई करोड़ ग्रेजुएट भी होंगे। 10वीं एवं 12वीं तक स्कूली शिक्षा पाए असंख्य हैं। इसके बावजूद देश की बाबत, देश के संविधान और कानून इत्यादि की बाबत सामान्य-सी जानकारी तक का इन नागरिकों के पास भारी टोटा है। इसे ही राममनोहर लोहिया ‘उदासीन समाज’ कह पुकारते थे। किसी भी समाज में पसरी यह उदासीनता अंतोगत्वा उस समाज के विघटन का, सामाजिक मूल्यों के अवमूल्यन का और राजनीतिक ताकतों के तानाशाह बनने का कारण बनती है। इस उदासीनता का जिक्र इसलिए क्योंकि अधिकांश अपने अधिकारों के प्रति इतने उदासीन रहते हैं कि उन्हें सत्ता द्वारा किए जा रहे बड़े ‘खेलों’ का पता नहीं चलता। जब समझ आता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इन दिनों एक ऐसा ही ‘खेला’ हो रहा है जिसके दुष्परिणाम आने वाले कुछ बरसों में बेहद घातक सिद्ध होने तय हैं। यह ‘खेला’ है देश के दो बड़े उद्योगपतियों के धंधे का दिनोंदिन हो रहा विस्तार जिसके चलते देश में प्रतिस्पद्र्धा घट रही है जो आगे चलकर उपभोक्ताओं के हितों को बड़ा नुकसान पहुंचाने वाली है। इस ‘खेला’ को समझने से पहले यह समझना आवश्यक है कि आमजन यानी उपभोक्ता के हितों की रक्षा करने के लिए 2003 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने राष्ट्रीय प्रतिस्पद्र्धा आयोग (Competition Commission of India) नामक एक संस्था बनाई, जिसका मुख्य उद्देश्य व्यापारिक घरानों द्वारा देश की आर्थिकी पर एकाधिकार को रोकना है। यानी किसी भी औद्योगिक समूह अथवा उद्योगपति पर अंकुश लगाना है ताकि अपने धन एवं राजनीतिक बल का उपयोग कर वह इतना शक्तिशाली न बन बैठे कि उसके इशारे पर बाजार, सरकार की नीतियां एवं आम आदमी के हितों पर व्यापक प्रभाव पड़ने लगे। जून 2012 में इस आयोग ने ग्यारह सीमेंट कंपनियों को एक संघ बना सीमेंट की कीमतों को बढ़ाने का दोषी करार देते हुए छह हजार करोड़ का जुर्माना लगाया गया था। इन दिनों लेकिन यह आयोग खामोश है। इसकी खामोशी का असर बाजार से प्रतिस्पद्र्धा का गायब होने और वर्तमान केंद्र सरकार के करीबी कहलाए जाने वाले दो औद्योगिक घराने का एकाधिकार स्थापित होने के रूप में सामने आता स्पष्ट नजर आ रहा है। समझिए कैसे? केंद्र सरकार के अत्यंत करीबी दो उद्योगपति बताए जाते हैं। रिलायंस समूह के मुकेश अंबानी एवं अडानी समूह के गौतम अडानी। इनकी प्रधानमंत्री संग अति निकटता को लेकर ही कांग्रेस नेता राहुल गांधी अक्सर ‘हम दो-हमारे दो’ कहकर भाजपा पर, केंद्र सरकार पर तंज कसा करते हैं। गौतम अडानी विशेष रूप से इस सरकार के कृपा पात्र बताए जाते हैं। उनका व्यापार केंद्र में मोदी सरकार के स्थापित होने के बाद दिन दूना-रात चैगुना की गति से बढ़ा है। अंबानी समूह भी खासी तरक्की कर रहा है। मुकेश अंबानी के पिता स्व ़ धीरू भाई अंबानी पर हमेशा से ही सरकारी तंत्र के सहारे, सरकारी तंत्र को भ्रष्ट करके, अपने मनमाफिक नीतियां बनाने का आरोप रहा है। धीरू भाई और इंदिरा गांधी सरकार में वित्त मंत्री रहे प्रणब मुखर्जी की दोस्ती के किस्से दिल्ली के सत्ता गलियारों से लेकर विदेशों तक सुने जाते हैं। एक पुस्तक है ‘अंबानी एंड सन्स’। इस पुस्तक के लेखक हामीश मैकडोनाल्ड आस्ट्रलियायी मूल के हैं। 2010 में प्रकाशित इस पुस्तक को पढ़ने से पता चलता है कि किस प्रकार कांग्रेस राज में अंबानी की तूती बोला करती थी और सरकार की नीतियों को किस प्रकार अंबानी समूह को लाभ कराने की नीयत से तैयार किया जाता था। इससे अंबानी समूह ने तो दिन-रात तरक्की की लेकिन उसकी मोनोपाॅली ने देश-विदेशी उन कंपनियों को बर्बाद कर डाला जिनसे उसे कम्पीटिशन मिल सकता था। अंबानी समूह की ताकत भाजपा, विशेषकर 2014 में मोदी सरकार के गठन के बाद बढ़ी है। फर्क केवल इतना भर है कि उसे हर कदम पर अडानी समूह से चैलेंज मिल रहा है क्योंकि गौतम अडानी भी वर्तमान सत्ता के उतने ही निकट हैं जितने मुकेश अंबानी। जो कुछ इन दिनों घट रहा है उसके मूल में यही दो दिग्गज नजर आते हैं। किसान कानूनों से इसे समझिए। सरकार किसानों को उनकी पैदावार के वाजिब दाम दिलाने और कृषि उत्पादन को बढ़ाने के लिए तीन कृषि कानून लेकर आई। इन तीनों कानूनों का देशभर में भारी विरोध किसान संगठन गत् एक वर्ष से कर रहे हैं। किसानों को डर है कि इन कानूनों को लाए जाने के पीछे सरकार का असल उद्देश्य बड़ी पूंजी का इस क्षेत्र में निवेश कराना हैं। बड़ी पूंजी बड़े पूंजीपतियों के पास होती है। ये पूंजीपति शुद्ध मुनाफा कमाने की नीयत से ही पूंजी लगाते हैं। उनकी शर्तें बाजार आधारित होंगी जो अंततः किसानों से उसकी जमीन हड़प उन्हें अपने ही खेतों में दिहाड़ी मजदूर समान बना देगी। यह किसानों की आशंका मात्र नहीं है। सरकार द्वारा बनाए गए कानूनों से ठीक पहले अड़ानी और अंबानी समूह कृषि क्षेत्र में पूंजी निवेश की अपनी योजनाओं को सार्वजनिक कर चुके थे। ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी कार्य योजना को धरातल पर उतारने के उद्देश्य से ही तीनों कृषि कानून बनाए गए। अडानी का जलवा यहीं तक सीमित नहीं है। वह सर्वव्यापी हो चला है। सरसों के तेल में भारी बढ़ोत्तरी ने आम जनता को त्रस्त कर रखा है। खाने के इस तेल में लगातार हो रही वृद्धि के पीछे भी अडानी हैं। सरसों का तेल इस समय दो सौ रुपया प्रति किलो को पार कर चुका है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक एक साल के भीतर-भीतर खाद्य तेल की कीमतों में 55 फीसदी बढ़ोत्तरी हुई है। शायद बहुतों को ज्ञात न हो देश में सरसों के तेल का सबसे बड़ा उत्पादक अडानी समूह है जिसका ब्रांड है ‘फाॅच्र्यून’। अब बढ़ती कीमत की अर्थव्यवस्था खुद समझ लीजिए। अडानी है तो सब कुछ मुमकिन है। अडानी का प्रभामंडल यहीं तक नहीं सीमित। आस्ट्रेलिया में कोयले की खदानों का सौदा करने वाले अडानी समूह को नवंबर, 2014 यानी मोदी जी की सरकार बनने के बाद स्टेट बैंक आफ इंडिया ने 6 हजार करोड़ का ऋण स्वीकृत किया था। यह ऋण आॅस्टेªलिया में कोयले की खदान खरीदने के लिए ही दिया गया था। मोदी की बतौर पीएम पहली आस्ट्रेलिया यात्रा के दौरान अडानी भी उन चुनिंदा उद्योगपतियों में शामिल थे जिन्हें पीएम अपने साथ लेकर गए थे। कुछ समझे? अभी और भी बहुत कुछ है समझने के लिए। मोदी जी के सर्व शक्तिमान होते ही गौतम अडानी को मानो पंख लग गए हों। भारत के पड़ोसी देशों तक उनकी धमक सुनाई देने लगी है। म्यांमार में उन्होंने बंदरगाह प्रोजेक्ट के लिए बड़ा पूंजी निवेश किया है। यह पूंजी निवेश भी विवादों में है।

बांग्लादेश में भी वे ‘लैंड’ कर चुके हैं। यानी चैतरफा वे ही वे हैं। रही-सही कसर उनके द्वारा संचालित गुजरात स्थित मुंद्रा बंदरगाह से हजारों करोड़ की अवैध नशीली ड्रग्स का भारत में प्रवेश करने की खबरों ने पूरा कर डाला है। देश की युवा पीढ़ी को बरबाद करने वाली नशीली ‘हेरोइन’ नामक ड्रग को अडानी के बंदरगाह जरिए ‘टेस्कम पाउडर’ बता इंपोर्ट कराया गया और देश की सुरक्षा एजेंसियों को भनक तक नहीं लगी। सोचिए, थोड़ा दिमाग को कष्ट दीजिए। ऐसा भला कैसे संभव हुआ होगा? नशीले पदार्थो की तस्करी रोकने के लिए केंद्र सरकार का एक पूरा महकमा दिन-रात काम करता है। इस महकमे का नाम है ‘डायरेक्ट्रेट आफ रेवन्यू इंटेलिजेंस’ (DRI), इसके अतिरिक्त विदेशी मामला हो तो राॅ (Raw), देश में कुछ गड़बड़ चल रही हो तो इंटेलिजेंस ब्यूरो (IB) समेत अनेक एजेंसियां हैं लेकिन हमें खबर लगती है एक अमेरिकी अखबार ‘गार्जियन’ की बदौलत। वहां खबर छपती है तब हम जागते हैं। अडानी समूह लेकिन कोई जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं। वह बेखौफ अपना पल्ला झाड़ इसे भारत सरकार की नाकामी बता रहा है। सोचने की बात है कि आजादी के 75 बरस के दौरान कभी भी किसी सरकार बंदरगाह से ऐसी तस्करी की खबर सुनने को नहीं मिली तो फिर कैसे यह प्राइवेट पोर्ट तस्करों की ऐशगाह बन गया? क्या केवल सरकारी तंत्र इसके लिए जिम्मेदार है या फिर इसके पीछे अति ताकतवर हो चले अडानी समूह की नाकामी है?
रही बात मुकेश अंबानी के स्वामित्व वाले रिलाइंस समूह की तो वह भी इस सरकार का चहेता समूह है। पिछले दिनों मुकेश अंबानी के दिवालिया घोषित छोटे भाई अनिल अंबानी पर सरकार बहादुर की कृपा दृष्टि राफेल लड़ाकू विमान खरीद के दौरान देखने को मिली थी। अंधभक्ति में लीन मुल्क समझने-देखने और मानने को तैयार ही नहीं कि राफेल सौदे में बतौर ‘आफशूट पार्टनर’ अनिल अंबानी की इंट्री पूरी तरह से काबिले ऐतराज है। अंध भक्ति का यही तो आनंद है। गांधी जी के तीन बंदर बन चुपचाप भजन गाते रहो। न कुछ देखो, न सुनो और न बोलो। ईश्वर सब कुछ ठीक कर रही देगा वाली मानसिकता ने हमें ऐसे मोड़ में ला खड़ा किया है जहां नकली उजाला है, नकली का राज है। जो कुछ असली है उसे न तो हम देखना चाहते हैं, न ही देख पाने की कूवत हमारे भीतर बाकी है। बड़े अंबानी को किस प्रकार यह सरकार संरक्षण दे रही है और इस संरक्षण की आड़ में कैसे देश में प्रतिस्पर्धा का अवसान और दो-चार निजी कंपनियों का एकाधिकार बढ़ रहा है, इस पर विस्तार से चर्चा अगली बार। तब तक भक्ति चालू रखिए। इस व्यवधान के लिए क्षमा याचना।

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